अपनों की अहमियत – संगीता अग्रवाल 

ये क्या खुशी और अथर्व तुम दोनों फिर फोन में लग गए हो !” तृप्ति ने अपने दोनों बच्चों से कहा।

” और क्या करें मम्मा स्कूल की छुट्टियां है कुछ काम नहीं करने को तो फोन ही चलाएंगे ना !” बारह साल का अथर्व बोला।

” और नहीं तो क्या !” दस साल की खुशी ने भी उसका समर्थन किया।

” अरे करने को है क्यों नहीं त्योहार है तो कितने काम हैं चलो मेरे साथ काम कराओ फिर बाज़ार जाना है सब रिश्तेदारों परिवार वालों को गिफ्ट देकर आना है !” तृप्ति दोनों से बोली।

” मम्मा आप कमला आंटी ( कामवाली) से बोलो ना सफाई करने को ये उनका काम है हमारा थोड़ी और हमे किसी के घर नहीं जाना आप अकेले हो आना हम तो दोस्तों के साथ ऑनलाइन गेम खेलेंगे !” अथर्व बोला।

” क्यों कमला आंटी का काम क्यों ही ये घर हम सबका है तो दिवाली की सफाई भी मिल कर करेंगे कमला आंटी को सबके घर में काम करके अपने घर के भी तो काम करने हैं।” तृप्ति ने कहा।

” मम्मा छुट्टी तो मस्ती मजे करने के लिए होती है काम करने के लिए थोड़ी ना और आप जिन लोगों के घर हमे ले जाते हो हमे अच्छा नहीं लगता उनमें से किसी का घर छोटा है किसी के घर में गार्डन नहीं खेलें कहा हम !” खुशी बोली।

तृप्ति समझ गई कि बच्चों के दिमाग पर रिश्तों और परिवार से ज्यादा पैसा हावी हो रहा है तभी वो अपने से कम पैसे वाले रिश्तेदारों के बीच जाना नहीं चाहते।

” पर ये सोच तो गलत है इनकी इन्हे रिश्तों की एहमियत तो बतानी  होगी वरना कहीं ऐसा ना हो इनके पास रिश्ते बचें ही ना बिन रिश्ते कैसे वार त्योहार !” तृप्ति ने खुद से सोचा और बच्चों की तरफ देखा खुशी फोन पर अपनी सहेली को अपने लाए दिवाली के कपड़ों के बारे में बढ़ा चढ़ा कर बता रही थी और बेटा अथर्व गेम में व्यस्त था।

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” क्या जिंदगी हो गई आज के बच्चों की ना त्योहारों की उमंग ना कोई जोश एक 6 इंच के फोन ने सबकी जगह ले ली हो जैसे पर नहीं वो अपने बच्चों को फोन का गुलाम नहीं बनने देगी।” तृप्ति ने खुद से वादा किया।

” मम्मा भूख लगी है कुछ खाने को दो ना !” तभी अथर्व गेम छोड़ कुछ खाने का मांगने आया।

” बेटा मम्मा सफाई में लगी है तो कुछ बनाया नहीं आप मेरे साथ काम करवाओ तभी तो जल्दी खाना बनेगा !” तृप्ति बोली

मजबूरी में दोनों बच्चों को तृप्ति के साथ सफाई करवानी ही पड़ी। सफाई के बाद बच्चे खा कर सो गए क्योंकि थक जो गए थे। आज उन्हें फोन का होश नहीं था।

” खुशी अथर्व चलो जल्दी जल्दी ये गिफ्ट्स पैक करो !” अगले दिन तृप्ति बच्चों से बोली।

” मम्मा ये इतने सारे गिफ्ट किस रिश्तेदार के लिए हैं।” बच्चे हैरानी से बोले।

” पता चल जाएगा पहले पैक तो करो कल छोटी दिवाली है हमे ये गिफ्ट्स देकर आने है !” तृप्ति ने जवाब दिया।

” मम्मा आप और पापा चले जाना हम नहीं जाएंगे !” बच्चों ने वहीं अपना राग गाया।

” बेटा ये वो रिश्तेदार नहीं हैं , इनके घर बहुत सारे छोटे छोटे बच्चे हैं देखो तभी तो छोटे छोटे गिफ्ट पैक कर रही हूं आप खुद उन्हें गिफ्ट देना आपको भी अच्छा लगेगा उन्हें भी !” तृप्ति ने कहा।

नए रिश्तेदारों का नाम सुन बच्चे जल्दी से पैकिंग में लग गए।

अगले दिन तृप्ति , उनके पति अरुण तैयार हुए और बच्चों को आवाज़ दी चलो बच्चों गिफ्ट्स देने दोनों बच्चे भागते हुए आए नए रिश्तेदारों के जाने। सबने मिलकर गाड़ी में गिफ्ट्स रखे और चल दिए अपनी मंजिल की तरफ। रास्ते में बच्चे फोन में ही लगे रहे।

” मम्मा ये हम कहां आ गए !” गाड़ी रुकते ही अथर्व बोला।

” चलो तो !” अरुण अंदर जाता हुआ बोला।

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” देखो कितने सारे बच्चे है यहां पर !” अंदर आ तृप्ति बोली।

” पर मम्मा इनके मम्मी पापा कहां है ?” खुशी ने उन्हें अकेले देख पूछा।

” बेटा इनके मां बाप नहीं है बल्कि कोई भी रिश्तेदार नहीं हैं जो कुछ हैं इनके हम ही हैं।” तभी वहां आश्रम की संचालिका आकर बोली।

” फिर इनको चीजें कौन दिलाता है इन्हे दिवाली पर गिफ्ट्स कौन देता है क्या ये किसी के घर नहीं जाते ?” दोनों बच्चे एक साथ कई सवाल पूछ बैठे।

” बेटा इन्हे इनकी जरूरत की चीजें भी बहुत मुश्किल से मिलती हैं रही गिफ्ट्स की बात हम जैसे कुछ लोग इन्हे गिफ्ट्स दे जाते तो ठीक वरना ये यूँ ही रहते हैं और किसी के घर जाने की रही बात जब इनका कोई है ही नहीं तो कहां जाएंगे ये! आप लकी हो आपके पास मम्मा पापा हैं इतने सारे रिश्तेदार हैं जिनके साथ आप त्योहार की खुशी बांट सकते उनके घर जा सकते उन्हें गिफ्ट्स दे सकते उनसे गिफ्ट्स ले सकते पर ये लोग यही रहकर त्योहार मनाते कई बार तो इन्हे मिठाई भी नहीं नसीब होती !” तृप्ति ने बच्चों को समझाया।

तभी कुछ बच्चे आ अथर्व और खुशी को देखने लगे।

” मम्मा हम इन्हे गिफ्ट्स दे दें?” अथर्व ने पूछा।

” हां बेटा !” तृप्ति बोली।

दोनों बच्चों ने खुशी खुशी सब बच्चों को गिफ्ट्स बांटे सभी बच्चे खुश हो गए गिफ्ट्स ले उन्हें देख अथर्व कुछ सोचने लगा।

” क्या हुआ बेटा ?” अरुण ने अथर्व से पूछा।

” पापा जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो मैं अपनी हर दिवाली ऐसे बच्चों के साथ मनाऊंगा जिनका कोई अपना नहीं होता !” नम आंखों से अथर्व बोला।

” मम्मा हम अपनी हर दिवाली पर अपने इन नए रिश्तेदारों को गिफ्ट्स देने आएंगे ना !” खुशी तृप्ति के पास आ बोली।

 

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” हां बेटा बिल्कुल आएंगे।” तृप्ति उसे प्यार करती बोली।

बच्चे थोड़ी देर उन बच्चों के साथ खेले फिर दुबारा आने का वादा कर सबसे विदा ली।

आज गाड़ी में बैठ दोनों बच्चों ने फोन नहीं लिए बल्कि दोनों उन बच्चों के बारे में ही बात कर रहे थे। तृप्ति उनकी बातें सुन मुस्कुरा दी।

” अरे मम्मा जल्दी काम ख़तम करो हमे सबके गिफ्ट्स देने भी तो जाना है!” अगले दिन दोनों बच्चे तृप्ति के पास आ बोले।

” पर बेटा आपको तो अच्छा नहीं लगता सबके जाना !” अरुण बोला।

” नहीं पापा अब हम समझ गए हैं कि हम बहुत लकी हैं कि हमारे पास मम्मी पापा के साथ साथ रिश्तेदार भी हैं जिनके साथ हम त्योहार मना सकते हैं। क्या हुआ जो उनका घर हमसे छोटा है वहां हमे प्यार तो मिलता है ।” खुशी बोली।

” हां मम्मा और उनके गार्डन नहीं तो क्या हुआ घर में तो हम जीभर कर खेल सकते !” अथर्व बोला।

अरुण और तृप्ति बच्चों की बात सुन मुस्कुरा दिए आज उनके बच्चे रिश्तों की एहमियत जो समझ गए।

दोस्तों कहानी के माध्यम से मैं क्या कहना चाहती हम आप अच्छे से समझ गए होंगे। बस ये गुजारिश है अपने बच्चों को त्योहारों की और रिश्तों की एहमियत जरूर समझाएं।

आपको मेरी कहानी कैसी लगी अगर अच्छी लगी हो तो भले लाइक , कमेंट मत कीजिए पर इस दिवाली अपने बच्चे के हाथ किसी गरीब बच्चे को छोटा सा गिफ्ट जरूर दिलवाइए। यकीन मानिए उस बच्चे के चेहरे की हंसी आपको और आपके बच्चे को अलग ही खुशी देगी।

#परिवार 

आपकी दोस्त

संगीता अग्रवाल 

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