”कहो राजकरण! कैसा लग रहा है? अब चले, कि अभी अपनी आंखों से और भी कुछ देखना बाकी है।”
”नहीं-नहीं प्रभु, अब इतना सब कुछ देख लिया, अब तनिक इच्छा नहीं करती कि और कुछ अपने आंखों से देखूँ। अभी इसी समय कृपया कर मुझे अपने साथ ले चले प्रभु, कृपया कर अपने साथ ले चलें।”कहते हुए राजकरण फफक फफक कर रो पड़े।
राजकरण 90 साल के बुजुर्ग जो बिस्तर पर हफ्तों से पड़े हुए हैं। उन्हीं के पोते की शादी है। सबको पता है आज या कल या बहुत चले तो 15 दिन इससे आगे राजकरण जी जीवित नहीं रहेंगे। लेकिन किसी को उनकी कोई परवाह नहीं है। सब अपनी ही मस्ती में मगन खुशियां मनाने में जुटे हुए हैं।
राजकरण जी के सबसे जेष्ठ पुत्र का सबसे छोटा बेटा जो जूनियर इंजीनियर है, उसी की शादी में पूरा परिवार उत्साहित, कहना छोटा शब्द है अति उत्साहित है। उस पर तब जब घर में एक बुजुर्ग मरणासन्न बिस्तर पर पूर्ण रूप से पड़े हुए हैं।
एक वक्त था, जब दो भाइयों में सबसे बड़े राजकरण जी भारतीय रेलवे में लोको पायलट के पद पर कार्यरत थे। सरकारी नौकरी और ऊंचे पद के मद में चूर जितना पाते लूट मचाते थे। जितना धन अर्जित करते सब अपने परिवार के लिए समर्पित कर देते। उनसे छोटे भाई से उन्हें कोई लेना-देना ना था जबकि उसके परिवार के लिए वे स्वयं माता पिता तुल्य थे।
एक समय तो वह भी आया था जब भाई रघुवीर की मृत्यु उपरांत, उनकी धर्मपत्नी ने अपने जेठ जी अर्थात राजकरण जी से पुत्री विवाह हेतु मदद मांगी थी। तब उन्होंने यह कह कर उन्हें अपने द्वार से भगा दिया था कि पुत्री को जन्म दिया हमसे पूछ कर? जिस दम पर पुत्री को जन्म दिया, उसी दम पर जाकर अपनी पुत्री का विवाह करो। खैर उनकी तो दोनों पुत्रियों का विवाह हो ही गया एवं वह दोनों अपने घर में बहुत सुखी भी थी
इधर पांच बेटों के पिता राजकरण जी, पुत्र मोह में अंधे होकर पूर्णरूपेण धृतराष्ट्र हो चुके थे। किसी भी तरह, इमानदारी बेईमानी करके अपने परिवार को आकाश की ऊंचाइयों तक पहुंचाना चाहते थे। पर कहते हैं ना, समय सदा एक सा नहीं रहता। नौकरी के लगभग दो दशकों बाद एक बार उन्हें घूस लेते हुए रंगे हाथ पकड़ा गया और तत्काल वे सस्पेंड कर दिए गए। शायद उनके पाप का घड़ा भर चुका था।
यहीं से उनके बुरे समय की शुरुआत हुई। वक्त की ही बात है जिन अपनों के लिए उन्होंने सब को ठुकराया था, आज उन्हीं अपनों ने उन्हें ठुकरा दिया था।
उन्हें आसरा मिला अपने उसी छोटे भाई के घर जिसके मरणोपरांत, उसके परिवार को उन्होंने पराया कर दिया था।
पत्नी तो कब का साथ छोड़ चुकी थी, सस्पेंशन के कारण पेंशन भी हाथ से निकल चुकी थी। पांचो लड़कों ने उन्हें रद्दी की तरह घर से बाहर निकाल दिया।
उसी दिवंगत भाई के इकलौते बेटे इंद्र कुमार, ने उन्हें अपने घर में आसरा दिया।
अपने ताऊ जी की हर परेशानी को इंद्र समझता था। कहीं ना कहीं उसे अपने ताऊजी में, अपने दिवंगत बाबू की छवि नजर आती थी। उसकी कर्तव्य निष्ठा को देखते हुए राजकरण जी की आंखों में भी आंसू आ जाया करते थे कि कर्म का थप्पड़ इसी तरह अपनों से ही पड़ता है। अपने जाए बच्चे अपने ना रहे, और अपने जिस भाई के परिवार को उनके बुरे समय पर अकेला छोड़ दिया कठिन समय पर वहीं परिवार उनका सहारा बना है। इंद्र उन्हें समझाता भी कि ”दद्दा, जो बीत गई सो बात गई अब किस लिए परेशान हो रहे हैं? मैं तो हूँ ना।”
धीरे-धीरे समय बीतता गया और कुछ कागजी कार्यवाही करने के बाद राजकरण जी को थोड़ी बहुत पेंशन मिलने लगी। पैसे आते देख, अब उनके पांचों बेटों के मन में लालच जाग उठा। सबको अपने बाबूजी का ख्याल आ गया। किसी न किसी तरह वे चाहते थे कि बाबूजी अब उन्हीं के पास आ जाए। राजकरण जी ना चाहते हुए भी अपने उन्हीं पुत्रों के पास चले गए या यूं कहें सामाजिक दबाव के कारण उन्हें जाना पड़ा। (ना जाने यह समाज तब कहां रहता है जब किसी पर अत्याचार हो रहा होता है) खैर…..
आज उन्हीं के जेष्ठ पुत्र के छोटे बेटे की शादी है। डीजे, ढोल-नगाड़े और बैंड-बाजे बज रहे हैं। यहां कमरे में मरणासन्न पड़े राजकरण जी उन बाजों का कंपन महसूस कर रहे हैं। शादी वाला घर है, सिवाय इंद्र कुमार और उसकी दो बहनों के उनके पास उनका सगा कोई भी नहीं है। कभी उन्हें देखते हुए कभी शून्य में ताकते हुए राजकरण जी की आंखों से अविरल अश्रु धारा बहने लगी। साक्षात यमराज जी यमपुरी से उन्हें लेने आ गए। राजकरण जी उनसे प्रार्थना कर रहे हैं-“हे प्रभु अपने साथ ले चलिए, वक्त अच्छा होता है तो सब अपने होते हैं और वक्त बुरा होता है तो अपने भी पराए हो जाते हैं। इस मोह माया के दुनिया से दूर मुझे अपनी दुनिया में ले चलिए और मेरे कर्मों की उचित सजा दीजिए प्रभु। इस मृत्यु शैया पर मेरे ज्ञान चक्षु खुल चुके हैं प्रभु। इन बच्चों पर अपनी कृपा बनाए रखिए और मुझे अपने साथ ले चलिए।”
कहते कहते उनके मुख से शब्द निकलने बंद हो गए व मुख खुला का खुला रह गया। आंखों से आंसू अभी भी बह रहे थे। हाथ ढीले और शरीर ठंडा पड़ चुका था। शायद उनके अंत का पश्चाताप उनके किए पापों पर भारी हो पड़ गया और यमराज प्रभु को भी उनका कहा मानना पड़ा। इंद्र कुमार और उसकी बहनें जड़त्व वही खड़े थे।और बाहर अभी भी शादी का जश्न मनाया जा रहा था।
#वक्त
इति समाप्त
स्वरचित एवं मौलिक
पूजा मिश्रा ‘धरा’
गोंडा, उत्तर प्रदेश