“मां अपना जरूरी सामान सब देखकर रख लेना… दवाइयां ध्यान से ले लेना… एक महीना तो कम से कम रहना ही पड़ेगा ना…!”
“अरे चारू… बेटा मुझे मत बुला इतने दिनों के लिए… तेरी सासू मां तो हैं ही… उनका स्वभाव मुझसे नहीं मिल पाता… तू तो जानती है बेटा… पिछली बार कितनी परेशानी उठानी पड़ी थी तुझे भी…!”
” मां पिछली बार 7 साल पहले की बात है वह… तब से तुम रही कहां हो… अब सासू मां बिल्कुल बदल गई हैं… तुम आओ ना कुछ परेशानी नहीं होगी… प्लीज मां आ जाओ… मुझसे नहीं होगा… सासू मां भी उतना नहीं संभाल पाएंगी… तुम दोनों रहोगी तो मिलकर सब कर लोगी… तुम नहीं आओगी तो अक्षत की ड्यूटी… रिशु का स्कूल… एक और बच्चे की जिम्मेदारी के साथ मेरा ध्यान कौन रखेगा…!”
” तू तो ऐसे बात करती है… शादी के 10 साल बाद तुझे मां चाहिए… अपना ध्यान रखने को… मैं तो खुद दवाइयां के भरोसे हूं…!”
“ओ मां तुम्हारा पास होना ही बहुत मायने रखता है… आ जाओ ना… प्लीज मां… मेरे बच्चे को दादी नानी दोनों का प्यार चाहिए… और मुझे मेरी मां चाहिए…!”
” ठीक है बेटा… तेरी जिद के आगे तो मेरी आज तक कभी चली है जो आज चलेगी… मैं आ जाऊंगी…!”
सविता जी नियत समय पर बेटी के ससुराल पहुंच गईं… सब अच्छे से हो गया… चारु एक और बेटे की मां बन गई… दो दिनों बाद सब घर वापस आ गए… चारु की मां और सास दोनों मिलकर बड़े प्यार से बच्चे की देखरेख कर रही थीं… पूरा एक महीना होने को आया… लेकिन घर के माहौल में कोई घुटन नहीं थी…
सभी मिलकर आपस में सारे काम कर रहे थे… सविता जी खाना देखतीं… तो अनुराधा जी चारु की सासू मां बच्चे का ख्याल रखतीं… और अगर कभी सविता जी बेटी से बातों में लगी रहतीं… तो अनुराधा जी रसोई और बाकी सब देख लेतीं…
इसी तरह मधुर वातावरण में दिन बीत गए… वापस जाने से एक दिन पहले… यूं ही बातों में सविता जी ने अनुराधा जी से पूछ लिया… “क्या बात है अनुराधा जी… इस बार तो लगा ही नहीं कि मैं बेटी के ससुराल में हूं… बिल्कुल अपना घर लग रहा था…!”
” अनुराधा जी हंस पड़ीं बोलीं…” सविता जी मैं जानती हूं रिशु के जन्म के समय आपको मेरे अड़ियल रवैए के कारण बहुत परेशानी उठानी पड़ी… क्या करूं उस वक्त मैं अपने आप को आपसे अधिक अहमियत दे रही थी… मगर जब मेरी बेटी प्रिया के घर जाकर मुझे 2 महीने रहना पड़ा… तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि आपको कैसा लगा होगा… सचमुच अपना घर अपना घर ही होता है… बेटी के ससुराल में अगर अपनापन ना मिले…
तो वहां रहना बहुत तकलीफ दे जाता है…मां अपने बच्चों की खातिर सारी तकलीफ झेल लेती है… पर बेटी की मां हो या सास दोनों में अगर एक छत के नीचे नहीं बनती… तो इसका सबसे ज्यादा दुख और असर बच्चों के रिश्ते पर और उनके दिमाग पर पड़ता है…
मुझे जब प्रिया का घर बेगाना लगा… तो मुझे एहसास हुआ कि आपको भी तो इसी तरह चारु का घर बेगाना लगा होगा… इसलिए मैंने पूरी कोशिश की कि यह घर भी आपको अपना लगे…!”
” ठीक कहा अनुराधा जी अपना घर तो अपना घर ही होता है… पर जब हम कुछ दिनों के लिए इकट्ठे हों तो प्यार से एक दूसरे का सम्मान रख लें तो यादें कभी कड़वी नहीं होती… ना बच्चों की ना हमारी…
स्वलिखित
रश्मि झा मिश्रा
# अपना घर अपना ही होता है