अपना घर – मंजू ओमर : Moral Stories in Hindi

घर वापसी, आज मोहन जी जब सुबह सोकर उठे तो अपने आप को बहुत तरोताजा महसूस कर रहे थे। उठकर दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर घर के बाहर टपरे पर चाय पीने निकल गए ।चाय का कप हाथ में लेकर चाय पीते पीते चाय वाले से बात भी करने लगे ।अरे राजू तू कब से दुकान पर बैठने लगा अभी तो तेरी पढ़ने लिखने की उम्र है ।

क्या करूं चाचाजी पिताजी नहीं रहे तो दुकान पर बैठना पड़ा ।जमीं जमाई दुकान थी सो संभाल लिया ।तो क्या पढ़ाई छोड़ दी नहीं भइया प्राइवेट फार्म भरा है थोड़ी बहुत पढ़ाई कर लेता हूं।काम भर का पढ़ लूंगा बाकी तो दुकान ही संभालनी है न । हां वो तो है मोहन जी बोले।तेरे पापा के पास आकर मैं अक्सर बैठा रहता था ।

चाय घर से पीकर आता था तब भी तेरे पापा जगदीश एक कप चाय पिला ही देते थे।बड़ा दुख हुआ तेरे पापा के न रहने का । वहां खड़े खड़े चाय पीते पीते कुछ और लोग जान पहचान के मिल गए जिनसे दुआ सलाम होती रही और हालचाल पूछते रहे।अब समय दो घंटे बीत गया पता ही न चला।मोहन जी अपने घर वापस आकर बहुत सुकून महसूस कर रहे थे।

                 घर आकर मोहन जी बाहर बरामदे में कुर्सी डालकर  बैठ गए और पच्चीस साल पहले की जिंदगी का एक एक पन्ना खुलने लगा । संयुक्त परिवार था दो भाई पांच बहनें माता पिता भरा पूरा परिवार था ‌। कितना अच्छा लगता था कितनी रौनक हुआ करती थी ।भाई एक बड़े थे मोहन जी से और बहनें सब छोटी थी ।

हर दो तीन साल के अंतराल पर घर में एक बहन की शादी हो जाता करती थी। बहुत आनंद आता था ‌‌‌‌‌‌‌‌‌। मोहन के दो बच्चे थे और बड़े भाई सोहन के तीन बेटे थे ।सब बहनों की एक एक करके शादी हो गई। मां पिताजी भी बूढ़े हो चले थे । पिताजी ने दोनों भाइयों के बीच जायदाद का बंटवारा कर दिया।दो घर थे तो एक घर

बड़े को और एक छोटे को दे दिया । बड़े भाई दूसरे घर चले गए और मां पिताजी मोहन के साथ रह गए। मोहन के बच्चे भी सातवीं आठवीं में पढ़ रहे थे। मोहन का घर बादशाह पुर जैसी छोटी जगह पर था । आगे बच्चों को उच्च शिक्षा देनी थी और मोहन की पत्नी रंजना कानपुर से थी।उनका मन अपने ससुराल बादशाह पुर में लगता ही न था ।

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वो हर वक्त मोहन पर दबाव डालती रहती थी कि बच्चों को आगे अच्छा पढ़ाना लिखाना है तो यहां छोड़कर कानपुर जाना होगा। लेकिन मोहन जी तैयार नहीं हो रहे थे । साथ में मां पिताजी भी थे ।

                     हर समय के रंजना के दबाव से आखिर में मोहन जी ने मन बना ही लिया बादशाह पुर छोड़ने का कि बच्चों का भविष्य बन जाएगा।मोहन जी जिस घर में रहते थे वो घर बहुत बड़ा था उनके यहां से चले जाने के बाद इतने बड़े घर में मां पिताजी कैसे अकेले रह पाएंगे।तो विचार बनाया कि बड़े घर को बेचकर एक छोटा घर मां

पिताजी के लिए खरीद लें ।और दूसरे शहर रहने को हाथ में पैसा भी तो चाहिए । यहां तो घर में बिजनेस था जिसको पिताजी और बड़े भाई संभालते थे मोहन जी भी साथ साथ देखते थे लेकिन अब उसका भी बंटवारा हो गया था।

               मोहन जी ने एक छोटा घर ले लिया और घर का बड़ा बड़ा सामान बेचकर और जो जरूरी सामान था उसको अपने साथ ले आए ।और मां पिताजी के लिए जरूरत भर का सामान वहीं छोड़ दिया । घर को छोड़कर आते समय मां की भरी हुई आंखें मोहन जी आज भी नहीं भूल पाते हैं। कभी घर से दूर रहें नहीं बचपन से लेकर आजतक इतनी उमर तक सब मां पिताजी के साथ ही रहे  तो इस तरह मोहन का जाना मां को बहुत तकलीफ़ दे रही थी। लेकिन मोहन जी जोश में थे एक नये शहर में रहने को लेकिन एक नये सिरे से किसी ने शहर में रहना मुश्किल होता है।

                     यहां घर पर शुरू से ही शुगना चाची काम करती थी वहीं अब भी कर रही है बर्तन झाड़ू पोंछा। मोहन जी के घर से चले जाने पर शुगना ही घर के और कामों में मां की मदद कर देती थी। कुछ समय बाद शुगना के पति का देहांत हो गया।दो बेटियां थीं ससुराल चली गई दो बेटे थे तो बहू बेटों ने शुगना को घर से निकाल दिया कोई ठिकाना नहीं था उसका तो अब पूरी तरह से मां के पास ही उसका ठिकाना है गया था ।एक कोने में पड़ी रहती थी वहीं दो रोटी खा लेती थी मां को उसी से सहारा मिल जाता था।उसे भी सर छुपाने की जगह मिल गई थी।

              मोहन जी यहां ने शहर में जीवनयापन करने को हाथ पैर मारने लगे ।किराए का मकान बच्चों की पढ़ाई लिखाई नए सिरे से सारी व्यवस्था करनी थी । वहां बादशाह पुर में तो इतनी जद्दोजहद नहीं थी सबकुछ बना बनाया था। यहां आकर किसी दुकान पर एकाउंटेंट की नौकरी कर ली थी पढ़ें लिखे तो थे ही।

और घर से शेयर मार्केट का काम करने लगे। बच्चों का स्कूल में दाखिला करा दिया । इसी तरह दो साल बीत गए । मोहन के बेटे सुमित ने हाई स्कूल कर लिया इंटर के बाद उसे कुछ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाने लगे । लेकिन सुमित पढ़ने में गधा था तो कहीं कोई भी परीक्षा पास नहीं कर पाया ।

फिर घर बैठे ही कोर्स मंगवाकर प्राइवेट एम सीए कर लिया फिर उसे इसी बेस पर प्राइवेट बैंक में नौकरी मिल गई । बेटी श्वेता पढ़ने में होशियार थी तो उसको सरकारी बैंक में नौकरी मिल गई। गाड़ी धीरे धीरे चल पड़ी । लेकिन बड़े शहर में अपना एक रहने सहन भी बना कर रखना पड़ता है ।

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                बीच बीच में मां पिताजी के पास भी आते रहते थे ।और जब वहां से लौट कर आते तो कुछ दिन बहुत उदास रहते।अपना घर छोड़ देना आसान नहीं होता। लौटते समय मां की भरी हुई आंखें मोहन को और उदास कर जाती थीं। कुछ दिन तक तो वहां से वापस आने पर वहां की याद बहुत सताती थी ‌।

           धीरे धीरे समय बीतता गया और अब मोहन की मां नहीं रही फिर मां के जाने के दो साल बाद पिता जी भी नहीं रहे । यहां मोहन के दोनों बच्चों की शादी हो गई ।सब अपने अपने परिवार में व्यस्त हो गए । रंजना का मायका कानपुर का था तो उनका भी मन लग गया ।अब मोहन की उम्र भी 65की हो गई थी। धीरे धीरे मोहन को भी कुछ बीमारियों ने घेर लिया था।सब कुछ कम्प्यूटराईज्ड हो चुका था तो जहां नौकरी करते थे

वहां अब उनका काम नहीं रहा । धीरे धीरे 25 साल बीत गए कानपुर में रहते।इतने सालों में आपाधापी वाली जिंदगी रही ।एक दो दोस्त ही बन पाए थे मोहन जी के राजेंद्र खास दोस्त बन गए थे। गहरी दोस्ती हो गई थी घर आना जाना था। राजेन्द्र जी के एक परिचित अपना फ्लैट बेचे रहे थे तो किसी तरह थोडे पैसे देकर मोहन जी ने फ्लैट ले लिया। राजेन्द्र जी की वजह से संभव हो पाया बाकी पैसे किश्तों में देते रहेंगे।

राजेन्द्र जी से हर सुख-दुख साझा करते थे । लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था एक दिन हृदयाघात से राजेन्द्र जी की मृत्यु हो गई।अब मोहन जी को बहुत अकेला पन हो गया।घर में सब अपने अपने काम में व्यस्त थे। मोहन जी जब भी अकेले बैठते बादशाह पुर वाला घर बहुत याद आता। वहां के दोस्त यार मिलने जुलने वालों की कमी बहुत महसूस करते। कभी कभी पत्नी रंजना से कहते चलो अब अपने घर चले तो वो साफ मना कर देती। अरे मैं अब न जा रही उस देहात में ‌।

                  मोहन जी की जब बहनों से बात होती तो यही कहते अब घर वापस जाना चाहता हूं बहुत याद आता है घर । लेकिन क्या करूं तुम्हारी भाभी नहीं जाना चाहती । लेकिन मोहन जी मन ही मन ठान रहे थे कि जीवन का आखिरी समय अपने घर में ही बिताएंगे  अब सत्तर पार कर चुका हूं और कितना ही जीना है।

             आज सुबह कपड़े लगा रहे थे अटैची में पत्नी ने पूछा कहां जा रहे हैं तो मोहन जी बोले घर वापसी कर रहा हूं ।तो रंजना बोली पगला गए हैं क्या कैसे रहेंगे वहां अकेले ,तो तुम चलो ना साथ। लेकिन मैं नहीं रह सकती वहां। मोहन जी बोले अच्छा चलो थोड़े दिन रहेंगे फिर वापस आ जाएंगे। फिर चले जाएंगे।जब रंजना ने देखा मोहन जिद पकड़कर बैठ गए हैं तो दो चार दिन रहने के उद्देश्य से रंजना जाने को तैयार हो गई।

                    बादशाह पुर में जब लोगों ने रंजना और मोहन को देखा तो एक एक कर सब मिलने आने लगे । कभी कोई नाश्ता बना कर लाता तो कोई खाना बना कर दें जाता। इतना प्यार और अपनापन देखकर मोहन और रंजना गदगद हो रहे थे । सभी लोग कह रहे थे भइया आपने अच्छा किया घर वापसी करके अब यही रह जाइए। जीवन के आखिरी समय यही बिताइए हम सब लोगों के संग।पुरखन की ड्योढ़ी है यही रहो आराम से । हां हां क्यों नहीं मोहन जी बोले और एक हंसी फैल गई कमरे में ।

मंजू ओमर

झांसी उत्तर प्रदेश

11 सितम्बर

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