अपना घर अपना घर ही होता है। – मधु वशिष्ठ   : Moral Stories in Hindi

अपना घर अपना घर ही होता है। नीता मन ही मन यूं ही बड़बड़ा रही थी, लड़कियों का तो कोई घर ही नहीं होता मां कहती थी की ससुराल ही तुम्हारा घर है और यहां हाल देखो? 

लगभग एक सप्ताह होने को आया, सासु मां की तबीयत ज्यादा खराब होने के कारण वह तो बिस्तर से ही नहीं उठ पा रहींं थी। जब सासू मां साथ काम करवातीं थी, तब भी घर का काम पूरे दिन में मुश्किल ही खत्म होता था। उनके डर के कारण कम से कम प्रिया (उसकी ननद) थोड़ा बहुत काम में हाथ तो बंटवा देती थी।

भाभी नीता को तो वह कुछ समझती ही नहीं थी। सासू मां उसको डांटने या कुछ कहने की हालत में नहीं थी। दो-तीन दिन तो ऐसे ही निकल गए चौथे दिन से नीता की भी हालत खराब ही होने लगी। प्रिया को खुद नजर नहीं आता क्या सारा दिन मोबाइल लेकर बैठी रहती है। बढ़िया कपड़े पहन कर सारा दिन सिर्फ मुंह बना बना कर

अपनी फोटो खींचकर फेसबुक में डालती रहती है। बस नीता को जब गुस्सा आना शुरू हुआ तो हर बात बुरी लगने लगी। हर काम थोपा हुआ लगने लगा। क्या ससुर जी, देवर जी और पूरे घर का काम करना अकेली उसकी ही जिम्मेदारी है ? सबसे बड़ी मुसीबत की बात तो यह है कि सासू मां ने सब को बिगाड़ इतना रखा है कि शाम को दफ्तर से आने के बाद चाहे देवर जी हो चाहे ससुर जी हो

और चाहे उसका पति हो सबको गरम रोटियां चाहिए। सबको दिख नहीं रहा कि माता जी बीमार है और प्रिया कोई काम नहीं कर रही। यदि वह शादी होकर इस घर में ना आए होती तो क्या माताजी के बीमार होने के बाद सारे भूखे मरते। गुस्से में वह बहुत कुछ सोचती जा रही थी।

अगले दिन दोपहर को उसने प्रिया के कॉलेज से आते ही उसे कहा कि आज शाम को खाना वगैरह का काम तुम ही कर लेना क्योंकि सारा दिन मैंने कपड़े धोए और समेटे हैं और अब मेरी भी तबीयत ठीक नहीं है। सारे घर की चादरें भी बदलीं है। हमेशा के जैसे ही प्रिया ने सुना अनसुना कर दिया। नीता सिर्फ देख रही थी

कि अभी तक शाम की सब्जी भी नहीं कटी है तो बाकी काम कैसे होगा? लेकिन या तो नीता वास्तव में ही थक रही थी या गुस्से का अतिरेक था, वह भी जाकर अपनी चारपाई पर लेट गई। प्रिया की भी बड़बड़ाहट उसे साफ सुनाई दे रही थी कि मेरी भी आज कोई भी क्लास फ्री नहीं थी मैं भी थक रही हूं वगैरा-वगैरा।

गुस्से में नीता ने अपने कमरे का दरवाजा भी मूंद दिया था । ख्यालों में खोए खोए थकावट के कारण उसे कब नींद आई पता ही नहीं चला।

शाम को 9:00 बजे जब उसे कमरे में आवाजें आई तो उसने आंख खोली। देखा देवर जी एक प्लेट में मोटे मोटे गोभी के शानदार पराठे और कप में गर्मागर्म चाय रखकर लाए थे । सामने मेज पर रख कर बोले भूखे सोने की जरूरत नहीं है आप खाना खा लो। भैया ने खा लिया और सब ने भी खाना खा लिया।

ऐसे ही वह प्रिया के लिए भी पराठे बनाकर दे गए थे। उस दिन घर में सारा काम ,कभी ना काम करने वाले पतिदेव और देवरजी ने किया था। देखकर बहुत अच्छा लगा, या कुछ शर्म सी भी लगी थी या —- खुशी। उस अनुभव को शब्दों में नहीं बयान कर सकते।

खाना खाकर जब नीता रसोई की ओर अपने बर्तन रखने के लिए गए तो देखा पतिदेव और देवर जी दोनों रसोई साफ कर रहे थे। ऐसा देखकर नीता ने कहा मैं अब ठीक हूं जाओ मैं रसोई साफ कर लूंगी। प्रिया भी भाभी का हाथ बंटाने के लिए आ गई थी। तभी देवर जी और पतिदेव की आवाज आई ,

देखा यह औरतों की खासियत होती है, यह जब तक काम होता है बस तब तक ही लड़ती है काम खत्म होने के बाद में यह प्यार से रहती हैं। सुनकर दोनों मुस्कुरा दीं। उस दिन रात को हमेशा के जैसे सासू मां भी गैस बंद है या नहीं देखने के लिए रसोई में आई थी। लगता है उनकी भी तबीयत ठीक हो रही थी।

 यह तो सच ही है कि जब तक काम होता है तब तक टेंशन के कारण आपस में गुस्सा होते हैं वरना संयुक्त परिवार में रहना बहुत अच्छा अनुभव है और फिर अपना घर तो अपना घर ही होता है। 

 

मधु वशिष्ठ फरीदाबाद हरियाणा

2 thoughts on “अपना घर अपना घर ही होता है। – मधु वशिष्ठ   : Moral Stories in Hindi”

  1. मेरी कहानी को प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद जी। आभार।

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