Moral Stories in Hindi : यूॅं ही कोई गृहलक्ष्मी नहीं बन जाती भाभी, खुद के लिए दूसरों के लिया सोचना करना होता है। अभी थोड़ी देर पहले ड्योढ़ी लाॅंघ कर आई विनया घूॅंघट की आड़ से अपनी ननद संपदा की कही बात सुन रही थी।
“हाॅं, और क्या, तेरी माॅं को ही देख ले संपदा। पूरी जिंदगी खपाने के बाद अब जाकर शऊर आया है और गृहलक्ष्मी सा व्यवहार करने लगी है, हम लोग नहीं होते तो तुमदोनों का और मेरे भाई का क्या होता, पता नहीं।” किसी ने उत्तर दिया लेकिन घूॅंघट से चेहरा ढ़ॅंका होने के कारण उत्तर देने वाली का चेहरा विनया नहीं देख सकी थी लेकिन मेरे भाई सुनकर इतना जरूर समझ गई थी कि उसकी बुआ सास होंगी। ससुर इकलौते भाई और उनकी तीन बहनें हैं, दो बड़ी और एक छोटी, ये तो विनया जानती ही थी।
“सही में बुआ, माॅं तो कभी कुछ समझती ही नहीं थी, आप लोग नहीं होती तो हम दोनों भाई बहन की पढ़ाई लिखाई भी नहीं हो पाती।” विनया ने देखा संपदा के हामी भरने पर वही थोड़ी दूर पर बैठी उसकी सास अंजना ऑंचल से दृगों के कोने पोछ्ती हुई कमरे से बाहर निकल गई। शायद ननद से ज्यादा बेटी के कहे वचन उन्हें आहत कर गए।
“आप तो संभाल लेंगी न भाभी अपना घर और बाल बच्चे कि बुआ की तरह मुझे ही सब कुछ देखना पड़ेगा।” सम्पदा अपनी भाभी विनया के साथ ठिठोली करती हुई कहती है और विनया प्रत्युत्तर में धीरे से सिर हिला देती है।
“देख ले विनया मुॅंह दिखाई के रस्म के लिए पड़ोसी आने लगे हैं लेकिन तेरी सास का कहीं अता पता ही नहीं है, ये भी हमें ही देखना होगा, चलो दीदी।” विनया को संबोधित करती हुई उसकी बुआ सास शक्ति अपनी बड़ी बहन शैली से कहती है।
“दीदी, तुम लोग भाभी को कुछ करने दो, तब न करेंगी कुछ। वो कुछ पूछती हैं तो बताने के वजाय जोर जोर से बोल कर लोगों को उनकी कमियाॅं दिखाने लगती हो।” विनया ये नई आवाज सुनकर समझ गई कि ये सबसे छोटी वाली बुआ सास सुलोचना हैं।
“तू चुप कर छोटी, खुद तो बाल छॅंटवा कर परकटी बनी घूम रही है और हमें सिखा रही है।” कहकर दोनों बड़ी बुआ सास कमरे से बाहर आकर रस्म की तैयारी में जुट गई।
“देखो विनया, मैं तुम्हें पहले ही बता दूॅं, गृहलक्ष्मी बनना इतना आसान नहीं होता, सर्वगुणसंपन्न होना पड़ता है, जैसे मेरी दोनों बुआ है।” पति मनीष की प्रतीक्षा में कमरे में बैठी भविष्य के सुहाने सपने संजोती विनया के कानों में मनीष की आवाज गूॅंजी।
“जी” विनया केवल इतना ही कह सकी क्योंकि बाहर भी तो लगभग सभी इसी बात की तो चर्चा कर रही थी कि इस घर को अब एक गृहलक्ष्मी की जरूरत है आखिर उसकी बुआ सास कब तक यहाॅं वहाॅं देखती रहेंगी।
पगफेरे की रस्म हो गई , अब घर की सारी बागडोर विनया के हाथों में आ गई थी। संपदा अपने कॉलेज जाने लगी थी। विनया की भी शादी मास्टर्स के बीच में हो गई थी और मनीष ने वादा किया था कि वो कॉलेज जाकर अपना मास्टर्स पूरा करेगी। चार महीने होने को आ गए थे लेकिन इस पर मनीष की तरफ से कोई बात नहीं होती थी और विनया चर्चा करना चाहती तो मनीष झुंझला कर चला जाता। इन चार महीनों में उसकी बड़ी और मंझली बुआ सास को अपने घर की एक बार भी याद नहीं आई, वो अभी तक यही रह रही थी तो उन दोनों का एक्सपर्ट कमेंट आ जाता कि लगता है इसका घर भी हमें ही संभालना होगा, इन चार महीनों में ही मनीष कैसा कुम्हला गया है। उसकी सासु माॅं तो ऐसे भी पति और बच्चों के लिए किसी गिनती में नहीं आती थी और ससुर जी अखबार में चेहरा घुसाए बहनों की हर बात को मौन स्वीकृति दे देते थे।
अपनी कोई गलती नहीं होने पर जब भी विनया सासु माॅं की तरफ देखती तो वो उसे शून्य में देखते ही मिलती। उसे झुंझलाहट भी होती लेकिन हमेशा दोनों बुआ सास आसपास ही होती तो कुछ बोल भी नहीं पाती। उन्हें बात का बतंगड़ बनाते देर नहीं लगेगी, यही सोचती और चुप रह जाती।
“मुझे लगा था तुम गृहलक्ष्मी होगी लेकिन तुम भी माॅं की ही तरह दूसरों पर ही निर्भर हो। आखिर बुआ का अपना भी घर है। कब तक वो हमारे लिए ही करती रहेंगी।” एक दिन मनीष बुआ के मुॅंह से सुनी बातों से विनया उसकी कमियां गिना रहा था।
“लेकिन वो करती तो कुछ भी नहीं हैं, सिर्फ मीन मेख ही तो निकालती हैं और उन्हें उनके घर जाने से रोका ही किसने है। वो चाहे तब ना।” ना चाहते हुए भी विनया बोल गई।
“चुप करो, मैं बुआ के विरोध में एक शब्द नहीं सुनना चाहता। खुद को सुधारो।” गुस्से में मनीष दनदनाता हुआ कमरे से बाहर चला गया।
देख बहू, छह महीने से हम तुम्हें घर को घर बनाना सीखा रही हैं। लेकिन सास की तरह तू भी ढाक के तीन पात है। अब हम अपना भी घर देख आएं। पंद्रह बीस दिन बाद फिर आएंगी हम, कोशिश करेंगी तुम्हें गृहिणी बना सकें। उसकी बुआ सास विनया को कम और मनीष को सुनाती हुई ज्यादा ही जोर से बोल रही थी।
“जल्दी आना बुआ” सम्पदा बुआ के गले से झुलती हुई कहती है।
बुआ के जाते ही दोनों सास बहू सुकून की साॅंस लेती है। इतने दिनों में तो विनया का आत्मविश्वास डोल गया था तो उसकी सास तो कितने वर्षों से इसी जिंदगी को जीती चारों ओर अपनी कमियों की बौछार देख रही होंगी, जो शायद उनमें होगी भी नहीं और जबरदस्ती सबके कानों में ठूॅंसा गया होगा। अपने विचारों में डूबे डूबे विनया को याद आया कि उसकी छोटी बुआ सास सुलोचना ने कहा था जब दीदी लोग अपने घर चली जाएं तो विनया उसे कॉल करे। विनया तुरंत सुलोचना को कॉल कर उसे सबके जाने का संदेश देती हुई उन्हें आने का निमंत्रण देती है।
बुआ, मनीष भी हर बात में उनकी बातों को ही सहमति देते नजर आते हैं। माॅं सबके कटु वचन सुनती अपना काम निपटा कर कमरे में सिमट जाती हैं। पापा अखबार में लगे रहते हैं, ऐसा लगता है जैसे नजरें चुरा रहे हो। सम्पदा भी माॅं से दूर रहने का बहाना ढ़ूॅंढ़ती रहती है। बुआ, घर में हर वक्त एक अनदेखी सी चुप्पी छाई रहती है।” विनया के कॉल के एक सप्ताह बाद हाजिर हो गई सुलोचना से सारी बातें बताती विनया रुआंसी हो उठी थी।
“इसीलिए तो मैं आना चाहती थी। दोनों दीदी से अपना घर तो संभलता नहीं, उनके इसी आग लगाने वाले व्यवहार के कारण ना उनकी बहू पूछती है और ना बेटा। कितनी बार कहा है दीदी तुम दोनों अपना स्वभाव बदलो। शुरू से ही साल का आधा समय यही व्यतीत करती रही हैं दोनों और भाभी की जिंदगी में जहर घोलती रही। भाभी ऐसी नहीं थी, हर गुण से परिपूर्ण थी, लेकिन इन दोनों ने ऐसा खेल रचाया कि ऑंखों देखी बात झूठी हो गई। वो कहते हैं ना कि झूठ को अगर कई बार बोलो तो वो सच ही प्रतीत होती है। बस यही हुआ बहू। माॅं बाबूजी भी दोनों बेटी के ही रंग में रॅंगे हुए थे। कोई गलत सही बोलने वाला था नहीं तो दीदियों ने इस घर को तबाह करने की तैयारी ही कर ली।” सुलोचना का स्वर आहत होकर भीग गया था।
“फिर क्या करें बुआ, कैसे ठीक करें सबकुछ।” विनया पूछती है।
“देख बेटा भाभी गृहलक्ष्मी बनने के चक्कर में अपने अंतर्मन की लक्ष्मी को मार बैठी। जिसका नतीजा यह हुआ कि ना तो खुद खुश रह रही हैं और ना घर में ही किसी को खुश रख पा रही हैं। कई बार भाभी को समझा चुकी हूं अपने अंतर्मन की लक्ष्मी को मत मारो और जितने गुण आपके अंदर हैं, बस उसको आधार बनाओ। लेकिन पति और बच्चों द्वारे नकारे जाने पर पूरी तरह ही खुद से खुद को अलग कर दिया है उन्होंने।
बेटा गृहलक्ष्मी बनो, लेकिन अपने अंदर की लक्ष्मी को मत मरने दो। ये मर जाती है तो गृह में चलते फिरते लोग तो होते हैं, लेकिन घर नहीं बन पाता है और इसके लिए नकारात्मक ऊर्जाओं को घर बिगाड़ने से पहले रोकने के लिए कमर कस लो। तुम्हारे घर को तुमसे बेहतर कोई नहीं जान सकता, इस बात को अच्छे से समझ लो।” गर्दन तक कटे बाल, पैंट और कुर्ती डाले सुलोचना एक ऑंख दबाती हुई विनया के हाथ पर हाथ रखती हुई मुस्कुरा कर कहती है।
“अब आप चिंता ना करें बुआ, आपने मेरे हाथ में जादू की छड़ी दे दी है। अब खुद के साथ साथ माॅं के अंतर्मन की लक्ष्मी को भी जीवित करूंगी मैं।” सुलोचना के विचार सुनकर विनया के चेहरे पर आ गई मुस्कान भी यही कह रही थी कि वो गृहलक्ष्मी तो बनेगी लेकिन अपने अंतर्मन की लक्ष्मी के साथ।
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अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 2 ) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi
betiyan M