अंतिम इच्छा – पुष्पा ठाकुर 

” मां आज खाना हमारे साइड खाना,तुम्हारी बहू ने आज तुम्हारी पसंद की चना भाजी और मक्के की रोटियां भी सेंकी है।”

राघव अपनी बात को लगभग जाते जाते ही कह गया,जो देहरी पर बैठी उसकी बूढ़ी मां ने अच्छी तरह सुन भी ली थी।सुनती भी क्यों न ……….आज पूरे एक महीने बाद बड़े बेटे के घर से खाने का बुलावा आया था ।

बूढ़ी मां के तीन बेटे और दो बेटियां थीं, पति का देहांत हो चुका था ,बेटियां ब्याहकर जो गई तो भाई भाभी के घर लौट कर न आ पाईं,आती भी किसके घर ??? भाइयों ने एक एक महीने मां का बंटवारा कर रखा था।मजाल है कि महीना पूरा होने से पहले दूसरा उसके हाल भी पूछे ?

कहीं पूछते ही  मां नया खर्चा न बता दें , फिर पत्नियों को भनक लगते ही बखेड़े हो जाते। इससे तो अच्छा हर कोई अपने अपने महीने का पूरा जिम्मा खुद ही उठाए।

इधर बूढ़ी मां अपने जीवन के उन दिनों की स्मृति में खो जाती ,जब तीनों बेटों को अपनी छोटी सी रसोई में उनकी पसंद की हर चीज़ बनाकर खिलाती और तीनों अंगुलियां चांट चांटकर बड़े मजे से एक-दूसरे के साथ खाते और खिलखिलाते ,ये नजारा देख मां को जो असीम सुख मिलता ,वो संसार के हर सुख से ऊपर होता।    

जब भी त्यौहार या उत्सव आते ,घर की रौनक में चार चांद लग जाते ,घर में आने जाने वालों का जमावड़ा भी तब बड़ा ही सुखदाई लगता,सारा घर चाचा ,बुआ ,मौसी ,मामा ….की पुकारों से गूंजने लगता……..सबके बच्चे यहां , वहां दौड़ते भागते …..घर की बेटियां चाय नाश्ते , खाना पानी के इंतजाम में मशरुफ हो जातीं…..किसी को पुरी नहीं खाना तो रोटियां सेकी जाती,कोई उबला पानी मांगता तो कोई एसीडिटी से परेशान काली चाय की फरमाइश करता….

उधर आंगन में खाट डाले फूफाजी मोहल्ले के चार लड़कों के बीच घिरे अपनी वीरता और शौर्य की कहानियां सुना सुना कर हंसाते ….

अपने पति के साथ घर परिवार की एक एक जिम्मेदारी निभाते वो बूढ़ी हो चली थी।पति ने तीनों बेटों के लिए लाइन से तीन मकान बनाए ,चौथा किसलिए बनाते,बड़ा बेटा समझदार था ,मां बाप उसी के साथ रहते ।सोचते बेटियां अपने अपने घर चली जाएंगी,हम बुड्ढे बुड्ढ़ी तीन में से किसी भी बेटे के साथ रहेंगे,बुढ़ापे में खुद के लिए अलग इंतजाम का ख्याल तब सपने में भी न आया।


आज अपने पति और अपनी मति पर उसको रह रह कर पछतावा होता,दो वक्त की दो रोटी के लिए जाने कितने व्यंग्य बाण वो सहती ……मन करता ,एक छोटे से कोठे में अलग रह लेती,छोटी सी चुल्हिया में जो मन करता ,खट्टा मीठा बनाती और सुकून से खाती,कोने में चटाई डाल धरती मां से लिपटी पड़ी रहती ,कम से कम कोई एक कोना तो होता , जहां कोई रोक-टोक न होती……

जिंदगी की सारी पूंजी से जिन बेटों की छत्रछाया बनाई, बेटियां उसकी परछाई में भी दो पल आकर सुस्ता न पाईं…

जहां मां रहती ,वहीं आकर बैग रखतीं , भाभियां जैसे पानी भी न पूछतीं,हमसे मिलने थोड़ी न आती हैं ये….अपनी मां से मिलो और चलती बनो…..ये भाव उनकी आंखों से भर भर कर छलकता या वो छलकातीं…..

”  मां ….ओ मां…कबसे छोटी बहू आवाज़ दे रही है,रोटी खा लो….उसे भी फुर्सत होना है,कोई तुम अकेली नहीं घर में…अंदर आकर खालो तो वो बर्तन भाड़े मांज धोकर फुर्सत पाएं”

छोटे बेटे की तीखी चिड़चिड़ी आवाज से बूढ़ी मां की तंद्रा टूटी,वो सोचते हुए उठी –

‘काश एकबार सब फिर से साथ बैठकर खाते ,हंसते खिलखिलाते…. एकबार वो असीम सुख मैं अपनी आत्मा में भर लेती , खुशी खुशी इस दुनिया से विदा हो पाती’

बड़ा मन था चने की भाजी और मक्के की रोटी खाऊं,बड़ी बहू बनाती भी बड़ा स्वादिष्ट है …..

इधर थाली लग गई,चलो लगी थाली छोड़कर कैसे जाऊं….सोच वो उठी और चल दी ।


एक एक निवाला कठिन हो रहा था ,रोटी शायद रात की थी,साथ में मूंग दाल थी ,मन में पहले ही साग भाजी की गंध समाई थी पर कैसे कहे…..

घंटाभर बाद बड़ी बहू तमतमाती चली आई,उसके बुलाने के बाद भी मां नहीं आई,जाने कैसी अकड़ है बुढ़िया को….कहकर हंगामा खड़ा कर ही लिया।

बात बढ़ती गई और एकबार फिर बंटे हुए बेटों ने निष्कर्ष निकाला कि लड़ाई की जड़ ‘मां’है।ये जब तक जिएगी ,गृह शांति नहीं आएगी।

जाने कैसा पल था ,कैसी घड़ी …..बेटों के मुख में साक्षात् सरस्वती आ बैंठी जैसे…..मुं का निवाला मां के गले से नाक के रस्ते जा फंसा….

वो छटपटाने लगी ,सब दौड़े , मां को उठाया ,पलंग पर लिटाया…..

मां की जान निकलने को देखने लगी थी लेकिन उसकी ‘अंतिम इच्छा ‘उसे भी न निकलने देती थी।

अस्पताल की दौड़-भाग भी हुई और आखिरकार बूढ़ी मां की तकलीफ़ ईश्वर से न देखी गई…..

वो शांत हो गई।

‘मां शांत हो गई ‘की खबर फोन पर बड़ी तेजी से फैलाई, बेटियां रोती बिलखती आईं और एक एक कर आए  बूढ़े होते बुआ, चाचा,मामा,मौसी,फूफा……और साथ आए उनके नाती ,नातिन…..

सालों बाद एकबार फिर सारा घर भर गया था।बहु बेटियां खाने के इंतजाम में जुटी थीं,आंगन में खाट डाले फूफाजी भी थे और घर में दौड़ लगाते बच्चे भी ……

बूढ़ी मां की पसंद की हर एक चीज बहुओं ने बनाई थीं।सबने साथ फिर एकबार  रसोई बनाई और खाई थी।

उनके बीच ही कहीं बैठी बूढ़ी मां की आत्मा ये सब देख असीम सुख की अनुभूति कर रही थी और अंततः यही कह रही थी –

मेरी अंतिम इच्छा मेरे जीते जी ने सही ….मरकर  पूरी हो गई।’

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