अंतहीन ” – गोमती सिंह

शाम का समय था ,सूरज अपनेख आप को सिंदूरी चादर में लपेटते हुए अस्तांचल की ओर रवाना करनें लगे थे।  ठीक उसी समय सरोज अपने घर की दूसरी मंजिल पर खिड़की के पास बैठे हुए इस दृश्य को देखकर उदासी के सागर में खोने लगी ।

उसकी आँखों के सामने 35-40 वर्ष की एक महिला का चेहरा ठहर गया।  जिसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ चुकी थी, आँखें दो इन्च गड्ढे में चली गई थी, मगर उन आँखों में फिर भी चमक थी ,दृढ इक्ष्छा शक्ति थी अपने बच्चों के लालन पालन करने की। 

उसी महिला के चूल्हे चक्की की चिंता नें सरोज को उदास किया था । जो कल कह रही थी  -सरोज बेटी मैंने सुना है कि तुम कहानी लिखती हो , काल्पनिक कहानी लिखने के बजाय मेरे ऊपर वास्तविक कहानी लिखोगी तब बहुत प्रसिद्धि पाओगी । पुस्तक खूब बिकेंगे,  बहुत पैसे कमाओगी ।  उसके दिमाग में सिर्फ दो -दो पैसे की बात घूमते रहते थे ।

फिर कलम आँसू बहाने लगी उसके आप बीती की —

आज मेरी बारात आनें वाली थी , मुझे दुलहन बनाने के लिए सजाया जा रहा था । घर के सभी लोगों के मन में अपार खुशी छाई हुई थी। 

सब आपस में बातें कर रहे थे कि- जमींदारों के घर में जा रही है हमारी बेटी।

दामाद जी कुछ भी नहीं करते होंगे तो भी बैठे बैठे राज करेगी हमारी बेटी ।

तभी पीछे से मेरी  एक बुआ जो मेरी छोटी गूंथ रही थी वह बोलने लगी -सुना है कि दामाद जी लोग चार भाई हैं ,लगभग बीस-बीस एकड़ जमीन के मालिक होंगे चारो भाई।  राज करेगी हमारी राधिका।

ये सभी बात मेरे कानों में गर्म शोले की तरह पड़ रहे थे । मन में आ रहा था कि फेंक दूँ ये शर्म लिहाज़ का घूंघट और चिल्लाते हुए कहूँ-” नहीं बनना मुझे ऐसे जमींदारों के घर की बहू । “

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क्योंकि मैंने कहीं से सुन लिया था कि लड़का मानसिक रूप से विकलांग है। (इस बात को मेरे ही माँता -पिता मुझसे छिपा रहे थे। )

ऐसा इंसान क्या कमाएगा और क्या खिलाएगा। 

  लेकिन मन में ये बात आई -ऐसा करने से लोग उजड्ड कहेंगे, समाज में बदनामी होगी । कौन ब्याह के ले जाएगा।

लड़कियों के मन में बचपन से ही समाज का डर समाया रहता है । और लगता है यह गुंण सृजनकर्ता ही उसे देकर भेजते हैं। समाज के इसी भय से लड़कियां अधिकतम रूप से गलत फैसले के बलि चढ जाती हैं। 

और इस तरह मैं ससुराल चली गई। 

एक दो वर्ष संयुक्त परिवार में रही फिर बंटवारा लेकर अलग रहने लगी।  

क्योंकि मुझे लगा मेरे साथ मेरे पति के कमजोरी की वजह से गलत हो रहा है। 

पति कमाने की हालत में नहीं थे , घर का सारा काम –खेती -बाड़ी से लेकर घर-आँगन सब मैं ही संभालती थी । जितना कमाई होता उनके इलाज में चला जाता था।

इस तरह एक दो वर्ष के अंतराल में मेरे पांच बच्चे हुए, सब के सब जानलेवा। 

सभी अपने बाप पर गये “मंदबुद्धि “किसी में इतनी क्षमता नहीं कि पढ लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो जाते।

मगर बच्चे चाहे जैसे भी हों माँ तो वात्सल्यमयी ही होती हैं न बेटी सरोज ! मैं उनके मुंह में निवाला डालने के लिए संघर्ष करती हूँ और जीवन पर्यन्त करती रहूँगी ।

पतिदेव के इलाज कराते कराते मैं थक गई । आधा से ज्यादा जमीन बिक गया। मैं दो-दो पैसों के लिए मोहताज होने लगी । दूध बेचती ,मुर्गी पालन करती गरीबी में आ गई । गाँव के पूंजीपतियों से पैसे कर्ज में लेने लगी  । जिनके घर भी जाती एक विस्वास के साथ उधार दे देते थे ।

देते भी कैसे नहीं, मैं अकेली  ईमानदारी से ब्याज दे देकर पूरे गांव का बरकत कर रही थी । और किसी भी तरह सम्मान की जिंदगी जी रही थी ।

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मेरी संघर्ष भरी जिंदगी को देख देख कर मेरी सबसे छोटी बेटी के मन में क्रांति आ गई ।

इधर की कहानी को लिख दे कहने की हिम्मत नहीं है बेटी!…..कुछ देर चुप्पी साधने के बाद उसने खुद को रोक नहीं पाया और आगे कहने लगी-उसका गला भर आया आँखों से आँसू की धार फूट पड़ी। 

सरोज ने उसे ढाढस बंधाते हुए कहने की हिम्मत की -” क्या हुआ बड़ी माँ!बोलिए न मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम। “

फफक -फफक कर रोते हूए उसने कहा मेरी छोटी बेटी ने नाजायज रास्ता अपना लिया ।

किसी लड़की को इस गर्त में ले आता है समाज का डर ।

और जब गरीबी घेरती है तो कुछ भी नहीं हल नहीं मिलता इस समाज से फिर इसी तरह नाजायज रास्ते की ओर निकल पड़ती है जिंदगी। 

मेरी कहानी का अंत नही  बेटी!

कल तक मैं दो-दो पैसों की मोहताज थी और आज मेरी चौखट इज्जत की मोहताज है।

अब तक कलम आँसू बहा रही थी उसकी आप बीती लिखते हुए किन्तु अब लेखिका की आँखें नम हो गई।

लेखिका चाहती थी उसकी कहानी, उसकी आत्मकथा उसके जिंदा रहते प्रकाशित हो जाए ।ताकि समाज के सामने उजागर हो किसी कि बेटियाँ संपत्ति देखकर नहीं लडके की योग्यता देखकर ब्याही जानी चाहिए।  और सब कुछ समझते हुए कैसे एक लड़की समाज में बदनामी से भयभीत बलि वेदी पर चढ जानें को विवश होती है । लेकिन ऐसा नहीं हुआ, वह ममता की देवी वह वीरांगना खुद बीमार ग्रस्त होकर स्वर्ग सिधार गई

ॐ शान्ति

– गोमती सिंह

छत्तीसगढ़

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