“घर में बहू का पदार्पण होते ही सास और बहू दोनों ही घर वालों के लिए एक बाॅंध की तरह बन जाती हैं। बहू के आते ही अपनी ढलती आयु में भी सास एक जिजीविषा महसूस करती है क्योंकि उन्हें इस घर के रीति रिवाज, रस्मों की जानकारी बहू को देनी होती है। लेकिन हाय रे मेरी किस्मत, साइकोलॉजी पढ़ी मम्मी ने और उसे औजार बनाने के कार्य में मुझे लगाया गया है।” अंजना को बालकनी में जाते हुए देखती विनया सोचती है और एक गहरी साॅंस लेकर कमरे से बाहर निकल रसोई की ओर बढ़ने लगी।
“पता नहीं नई नवेली दुल्हन और उसके अरमान कैसे होते हैं। मुझे तो अभी तक नहीं लगा कि मैं नई नवेली दुल्हन हूँ। मनीष के तो कोई अरमान हैं ही नहीं। एक ही उम्र की होने पर भी नन्द से किसी तरह का हॅंसी मजाक, कोई बात नहीं कर सकती। कितना अच्छा था नियम मम्मी ने बनाया था, भले ही दिन भर सब अपने अपने काम में लगे रहो।
लेकिन डिनर सब एक साथ ही करेंगे। हाॅं, अगर कोई जरूरी कार्य वश कोई समय पर नहीं आ पाया तो उसे भी समझा जाएगा। काश यहाॅं का भी माहौल थोड़ा तो सामान्य होता।” रसोई में कैबिनेट को पकड़ कर खड़ी विनया अपने मायके को याद करती हुई सोच रही थी। अचानक उसे अपने गाल पर पानी की बूॅंदों के ढलकने का अनुभव कर उसके हाथ खुद ब खुद गाल तक पहुॅंच गए थे तो वो चौंक उठी क्योंकि उसकी ऑंखों से अश्रु बह रहे थे। वो जल्दी जल्दी अपने बहते ऑंसुओं को पोछने लगी क्यूँकि उसे इस घर में खुद के साथ सभी को संभालना था और घर का सही अर्थ भी समझाना था।
अंजना भी शायद बालकनी में खड़ी अश्रु से ही बातें कर रही थी। दोनों के बीच फिलहाल ऑंसुओं का बंधन था। इस घर की दोनों बहू ही अपनी अपनी पीड़ा से लड़ रही थी। एक दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहती थी और दूसरी उस हाथ को सशंकित दृष्टि से देखती हाथ को अपने ऑंचल में छुपाती खुद को पीछे धकेल रही थी।
दोनों ही कोरे कैनवास की तरह रंगों की दुनिया खोज रही थी। एक समझ रही थी कि ये रंगों की दुनिया हमारी ॲंजुरी में ही भरी हुई है, बस जरूरत है इसे आजाद करने की और दूसरी ने परिस्थितियों के सामने खुद को समर्पित कर अपनी ॲंजुरी इतने कस कर बंद कर लिया था कि वो रंग भी अपना अस्तित्व भूल कर हथेली के रंग की ही हो कर रंगहीन हो गई थी। विनया की इच्छा हुई कि जाकर अंजना के बगल में खड़ी होकर दो चार सुख दुःख की बातें सुने, सुनाए।
लेकिन वो जानती थी कि उसके जाते ही अंजना अपने कमरे में आ जाएगी। विनया ने अंजना को बहुत कम ही उनके कमरे के अलावा बिना काम कहीं और देखा था। चलो इसी बहाने कमरे से बाहर तो निकली हैं। इसी बहाने पुरानी चीजों को निकाल सहलाने के बदले खुद के लिए थोड़ा आत्म विश्लेषण करेंगी। मैं भी सोती हूॅं, कल के कर्मक्षेत्र के लिए एक नए सिरे से खुद को तैयार भी तो करना होगा। आत्ममंथन करती विनया संपदा के कमरे के बंद दरवाजे और दरवाजे के नीचे से प्रकाश बिंदुओं को देखती अपने कमरे में चली गई।
“तुम सुबह सुबह यहाॅं क्या कर रही हो।” जैसे ही सुबह अंजना रसोई में कदम रखती है विनया को उससे पहले रसोई में देख ठिठक गई।
“वो माॅं जल्दी ही नींद खुल गई तो सबके लिए चाय बनाने आ गई।” विनया चीनी का डब्बा हाथ में लिए अपने चेहरे पर भरपूर मुस्कान लाती हुई कहती है।
“हटो तुम, मैं बना लूॅंगी।” विनया के हाथ से चीनी का डब्बा लेती हुई अंजना अपने शुष्क स्वर में ही कहती है।
“जिसे देखो, वही मुझसे कुछ ना कुछ छीनने पर लगा रहता है। इस घर में जो थोड़ी जगह मेरे लिए बची है। उसे अब ये हथियाना चाहती है।” रसोई से बाहर पग रखती विनया के कानों में अंजना का धीमा मगर कुंठित आवाज पड़ती है।
“ऐसा कुछ नहीं है, मैं तो बस।” बोलने के लिए रुकी विनया कुछ सोचकर बिना बोले ही रसोई से बाहर आ गई।
अन्य दिनों की अपेक्षा आज उसके नेत्रों ने नींद को जल्दी भगा दिया था और विनया सुबह की ताजी हवा के झोंके को महसूस करने के लिए बालकनी में आ खड़ी हुई थी। कुछ देर बाद उसने अपने ससुर जी को सुबह की सैर से आते देखा और सासु माॅं को भी जगा हुआ देख रसोई में घुस गई थी। उसने सोचा शायद काम की अधिकता से भी अंजना खुद में चिड़चिड़ी सी हो गई हो तो उसे हाथ बंटाते देख इत्मीनान की साॅंस लेगी। लेकिन यहाॅं उसे हर वक्त उल्टी गंगा बहती ही नजर आती है। फिर से वो बालकनी में आ खड़ी हुई थी और घर के हालात के बारे में सोचने लगी थी। हर कोई हर वक्त एक दूसरे को लेकर शंकित रहता है और बड़ी बुआ, मंझली बुआ के आने के बाद फिर से इसे हवा मिलने लगेगी, उससे पहले यदि संपदा मेरे खेमे में आ जाए तो कुछ राहत मिलेगी। लेकिन कैसे वो तो अपने आप में ही मस्त रहती है। उसे देख तो ऐसा लगता है मानो पेइंग गेस्ट हो वो।
“टिंग टोंग” बेल की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई और वो बालकनी से नीचे झाॅंक कर देखने लगी। अखबार से भरी हुई स्कूटी उसके घर की सीढ़ियों के पास खड़ी थी।
अखबार तो यहाॅं बालकनी में भी डाल कर जा सकता है। ऊपर तक आने का कारण। ज्यादातर विनया का सबेरा अखबार आने के बाद ही होता था तो इसके बारे में उसे ज्यादा कुछ मालूम नहीं था।
“ये आपकी चाय और सैंडविच दादा।” अंजना कमरे में पतिदेव के लिए चाय पहुॅंचाने के बाद बैठक में बैठे हुए अखबार वाला जिसकी उम्र अंजना और उसके पति के बराबर ही होगी, उनके सामने चाय और सैंडविच की ट्रे रखती हुई कहती है और अपनी चाय लेकर उनके सामने ही बैठ गई।
“जीती रहो बहन, तुम्हारे हाथ से सुबह का नाश्ता मिल जाना सौभाग्य है मेरा।” आशीर्वचन के साथ अखबार वाला कहता है।
“नहीं दादा, ये तो मेरा सौभाग्य है कि दो पल आपसे बातें करने का समय प्राप्त हो जाता है।” अंजना कहती है और विनया की ऑंखें और मुॅंह असामान्य तरीके से खुली हुई थी क्योंकि अंजना को इस तरह पहली बार किसी से बेतकल्लुफ होकर बातें करते देख रही थी वो।
“ये बच्ची तुम्हारी बहू है बहन।” अखबार वाला अंजना के सोफे के पीछे खड़ी विनया को देख कर पूछता है।
जी मैं इनकी बहू…
“मनीष की पत्नी है ये।” विनया हाथ जोड़े आगे बढ़ती हुई कह ही रही होती है कि अंजना बोल पड़ी।
विनया चाय वाली घटना से समझ गई थी कि अंजना उसे बहू नहीं, खुद की प्रतिद्वंदी की तरह ले रही है। जिस कारण से उसके साथ अंजना का व्यवहार हर समय नाखुशी का होता है। इसीलिए विनया मुस्कुरा अंजना की इस उक्ति को मुस्कुरा कर स्वीकार करती है।
“ठीक है बहन, चलता हूॅं अब। अपना ध्यान रखना।” चाय का प्याला ट्रे में रखता हुआ अखबार वाला कहता है।
“अंजना ये सब कब तक चलेगा। मुझे इस तरह अनजान लोगों का घर आना बिल्कुल पसंद नहीं है।” अखबार वाले के बाहर जाते ही ससुर जी बैठक में आकर कहते हैं।
“जी” अंजना छोटा सा उत्तर देकर ट्रे लेकर वहाॅं से हट गई।
“आखिर माजरा क्या है। कैसे पता करूं। किससे पूछूं। सुलोचना बुआ से पूछती हूं आज…आई।” मनीष के आवाज के जवाब में बोलती हुई विनया सोच भी रही थी।
“माॅं, वो मनीष चाय के लिए बोल रहे हैं।” विनया रसोई के दरवाजे पर खड़ी सकुचा कर कहती है।
“सुलोचना बुआ से क्यों, संपदा दीदी से सारा ब्यौरा लेती हूॅं। इसी बहाने उनसे कुछ बातचीत तो बढ़ेगी। थैंक्यू, थैंक्यू, थैंक्यू भगवान जी।” कमरे में मनीष के साथ ही चाय पीती विनया हाथ जोड़ती हुई बड़बड़ा उठी और इस चक्कर में थोड़ी सी चाय छलक कर नीचे गिर गया।
“कहाॅं दिमाग रहता है तुम्हारा। क्या बड़बड़ा रही थी।” चाय गिरता देख मनीष नाराज होकर बोला।
“बस अभी साफ कर देती हूॅं।” चाय को एक ही साॅंस में खत्म करती विनया कहती है।
आरती झा आद्या
दिल्ली