अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 4 ) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi :

“देख बेटा, ये एक दिन में हल होने वाली समस्या नहीं है। इसके लिए थोड़ा सोचना पड़ेगा। उनका विश्वास जीतना टेढ़ी खीर साबित होगी।” विनया की मम्मी उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाती हुई कहती है।

“लेकिन मम्मी प्रयास तो करना ही होगा ना, सिर्फ उनके लिए ही नहीं, उनके साथ साथ खुद को जीवित रखने के लिए भी प्रयास करना ही होगा।” विनया कहती है।

“बिल्कुल बेटा, ठान लो तो कुछ भी कठिन नहीं है।” विनया की मम्मी कहती है।

“चाय पकौड़े ठंडे हो रहे हैं। इसे उदरस्थ करो, तब तक सास बहू कुछ ना कुछ सोच लेगी बहना रानी।” सौरभ पकौड़े का प्लेट बहन की तरफ बढ़ाता हुआ दीपिका की नकल करता हुआ कहता है।

“टिंग टोंग” लगता है पापा आ गए। मैं देखता हूॅं, दरवाजे की घंटी के घर में गूॅंजने पर सौरभ कहता है।

“विनया बेटा, तुम कब आई।” अपना लंच बॉक्स बैग वही टेबल पर रखते हुए श्याम जी खुश होकर कहते हैं। 

“दोपहर और शाम के बीच की जो बेला होती है ना पापा, उसी समय आपकी बेटी का घर में पदार्पण हुआ।” सौरभ नाटकीय अंदाज में कहता है।

“तेरे भाई को नाटक मंडली में शामिल हो जाना चाहिए।” बेटी को गले से लगाकर सिर पर आशीर्वाद का हाथ फेरते हुए मुस्कुरा कर श्याम जी कहते हैं।

“मैं कपड़े बदल कर आता हूॅं। दामाद बाबू भी आएंगे न।” श्याम जी अपने कमरे की कदम बढ़ाते हुए रुक कर पूछते हैं।

“नहीं पापा, मैं भी नौ बजे तक निकल जाऊॅंगी।” विनया कहती है।

“ये सब छोड़िए, आप जल्दी से फ्रेश होकर आइए। कुछ महत्वपूर्ण बात करनी है।” श्याम जी बेटी से कुछ और कहते, पूछते उससे पहले पत्नी संध्या कह उठती है।

“हाॅं मुश्किलात तो है। देखो बेटा पहले एक काम करो , उन्हें स्पर्श की भाषा द्वारा अपना प्रेम दर्शाओ। किसी को अपनी ओर झुकाने के लिए पहले खुद झुकना होता है और एक अच्छा पहलू ये है कि तुम इसके लिए तैयार हो।” चाय के गर्म घूॅंट के साथ समस्या का समाधान देने की चेष्टा कर रहे थे।

“स्पर्श की भाषा मतलब, मैं समझी नहीं पापा।” विनया तफ्सील से ब्यौरा चाहती थी।

“मतलब की इसे जादू की झप्पी भी कहते हैं। लेकिन यहाॅं परिस्थिति ऐसी है कि तुम सीधा जादू की झप्पी नहीं दे सकती हो तो मेरी डार्लिंग बेटी जब तब उन्हें स्पर्श करना, जैसे कुछ बोलते समय अचानक उनका हाथ पकड़ लेना। कोई उन्हें कटु वचन बोल रहा हो तो उनके बगल में इस तरह खड़े होना कि उन्हें तुम्हारी छुअन महसूस हो, महसूस ही नहीं हो वरन तुम किसी भी परिस्थिति में उनके साथ हो, इसका अहसास समधन जी को होता रहे और ये तभी होगा जब तुम सिर्फ इसे एक टास्क मानकर नहीं करो, इसे दिल से करो, उनके लिए तुम्हारे दिल में प्यार, सम्मान होगा तो उन्हें तुम्हारे हर छोटे छोटे स्पर्श से इसका भान होता रहेगा।” श्याम जी अपने स्पर्श की भाषा का मंतव्य विस्तार से समझा रहे थे।

“आपलोग बातें कीजिए, मैं फटाफट डिनर तैयार करती हूॅं। दीदी डिनर करके टाइम से निकल जाएंगी।” दीपिका वहाॅं से उठती हुई कहती है।

“नहीं, नहीं, आज नहीं…पापा ने जो बताया है वो मैं आज से प्रारंभ करना चाहूॅंगी। ऐसे ही छह महीने निकल गए। एक दो सप्ताह में दोनों बुआ भी आ जाएंगी, उससे पहले माॅं को इतना आश्वस्त तो जरूर कर दूॅंगी कि आई एम ऑलवेज विथ हर।” दीपिका को हाथ पकड़ कर बिठाती हुई विनया कहती है।

“देख बेटा, ये कई दिनों की जमी हुई बर्फ है, पिघलने में कितना समय लेगी, कहना मुश्किल है। जब जहाॅं, जैसे तुम्हें हमारी जरूरत होगी, हम तुम्हारे साथ खड़े हैं। फिर तुम्हारी छोटी वाली बुआ भी तो तुम्हारे साथ हैं। इसलिए घबराना नहीं, प्राउड ऑफ यू बेटा।” श्याम जी अपने भावुक हो गए स्वर और अश्रुपूरित नेत्रों से बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहते हैं।

“जी पापा, इसीलिए तो इस मुश्किल घड़ी में मुझे आप लोगों की ही याद आई और मैं दौड़ी दौड़ी चली आई।” पापा के कंधे पर सिर रखती हुई विनया कहती है।

“चल झूठी, तुम तो मम्मी के लिए दौड़ी दौड़ी आई।” सौरभ चिढ़ाता हुआ कहता है।

“जी, क्या अंतर मम्मी और माॅं में। भाभी बताइए है क्या कोई अंतर।” विनया दीपिका को जज के पोजीशन में बिठाती हुई कहती है।

“इनके लिए हो तो हो, हमारे लिए तो नहीं है, हमारी मम्मी ने हमें अच्छे संस्कार दिए हैं।” दीपिका विनया द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देती संध्या के बगल में जगह बनाती हुई जाकर बैठ गई।

संध्या के एक ओर बेटी विनया और दूसरी ओर बहू दीपिका बैठी थी और संध्या मन ही मन दोनों की नज़र उतार रही थी।

“ये सही है, जब से ये आई है, मैं तो बाहरवाला हो गया हूॅं। कहाॅं पहले सिर्फ मेरी मनमर्जी चलती थी, मेरी इच्छा सर्वोपरि थी, क्या दिन थे वो।” छत की ओर ताकता सौरभ यादों के समंदर में खोने का अभिनय करता हुआ कहता है।

“अपने पति को एक्टिंग क्लास क्यों नहीं ज्वाइन करा देती हो दीपिका बेटा। उसके बाद चार पैसे घर आएंगे, सब्जी भाजी का इंतजाम हो जाया करेगा।” श्याम जी भी बेटे की तरह दीन हीन की तरह बोलते हैं।

“आप दोनों को ही एक्टिंग क्लास की आवश्यकता है। आपको तो ज्यादा ही, ओवर एक्टिंग हो जाती है आपकी।” संध्या ऑंखों में अपने हॅंसते खेलते परिवार को समाती हुई कहती है।

“हे प्रभु अगले जन्म मोहे बिटिया कीजो।” सौरभ टीवी के शो को उद्गार के रूप में व्यक्त करता हुआ कहता है।

“बेटी विदा करके बेटी लाने का सुख है ये, तुम नहीं समझोगे।” दोनों के गाल प्यार से थपथपा कर संध्या कहती है।

“अहा कितना मनोहारी दृश्य है, एक पिक्चर तो बनता है।” श्याम जी विनया और दीपिका दोनों को संध्या के कंधों पर सिर टिकाए देख कहते हुए मोबाइल निकाल कर खड़े हो गए।

“पिक्चर परफेक्ट।” पिक्चर क्लिक कर श्याम जी गदगद स्वर में कहते हैं।

“पापा, मम्मी, अब मैं चलूँगी, जिससे माॅं के डिनर के समय तक घर पहुॅंच जाऊॅं। डिनर तो आज माॅं के साथ ही करुॅंगी।” एक दृढ़ विश्वास से विनया का चेहरा दीप्तिमान हो रहा था।

“ठीक है बेटा, सौरभ पहुॅंचा आएगा।” सौरभ की ओर देखते हुए श्याम जी कहते हैं।

“जी पापा”…उनके कहने से पहले ही सौरभ चाभी हाथ में लेकर खड़ा हो चुका था।

अगला भाग

अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 5 ) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

दिल्ली

अंतर्मन की लक्ष्मी भाग 3

 

2 thoughts on “अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 4 ) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!