अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 33) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“आप कमरे में चलिए पापा, मैं कुछ व्यवस्था करता हूॅं।” मनीष अपने पापा से कहता है।

“बेटा, पहले अपनी माॅं को डॉक्टर से दिखा ला, उसके बिना ये घर नहीं चल सकेगा।” मनीष के पापा बहुत ही धीमे और क्षीण स्वर में कुछ इस तरह कहते हैं जैसे यदि किसी और ने सुन लिया तो आफत आ जाएगी। लेकिन ट्रे लेकर कमरे से निकलती विनया के कानों में ये अल्फाज सरसराते हुए चले गए।

“माने इन्हें अच्छे से ज्ञात है कि ये घर केवल उनकी पत्नी के होने से ही चल सकता है, संभल सकता है। लेकिन फिर भी उनकी तरफ से उन्होंने अपना मुॅंह मोड़ रखा है। 

सबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी

दिल में झूठा अहम लिए कराते हो हानि”, ससुर जी की बात पर मन ही मन प्रतिक्रिया देती विनया श्री मैथिलीशरण गुप्त जी की पंक्तियों पर पुरुष वर्ग के लिए पंक्तियां रचती विनयाकी मुस्कान उसके चेहरे पर सजीव हो गई, जिसने इस समय मनीष को भड़काने का कार्य किया।

“जब देखो, बस दाॅंत निपोड़ने लगती हो। घर की बहू वाले कोई लक्षण हैं भी तुम्हारे अंदर।” मनीष की निगाह विनया पर पड़ी और उसके मुख ने तानों की बौछार कर दिया।

विनया ने उसके तानों का सामना मुस्कान से किया और सहानुभूति भरी नजरों से देखते हुए कहती हुई आगे बढ़ गई, “मनीष बाबू, हर मुस्कुराते हुए दाॅंत की एक कहानी होती है जो सुनने लायक होती है। अगर श्रवण करने लायक कान हो तो, काश आप अपनी माॅं के करीब होते।”  विनया की बवाल से भरी बातों ने मनीष के मन को हिला दिया। मनीष विनया के कथन को जब तक समझता, विनया जा चुकी थी और मनीष उसे रसोई की तरफ जाते हुए देखता रह गया।

“क्या करूं, पापा के लिए पहले कुछ ले जाऊं, फिर माॅं को देखता हूॅं।” मनीष भी रसोई की तरफ बढ़ गया।

“आप गलत जगह पर आ गए हैं, आपकी मंजिल उधर है।” विनया ट्रे लिए रसोई से निकल रही थी और मनीष से रसोई के दरवाजे पर टकरा गया और विनया से बिना कटाक्ष किए रहा नहीं गया।

“हटो तुम सामने से” मनीष कहता है।

“ठीक है”, विनया बगल होती हुई कहती है।

“और सुनो, ये जो तुम बात बेबात कुछ से कुछ कह देती हो ना ये मुझे हरगिज पसंद नहीं है।” पीछे से मनीष कहता है।

“जिसे ना सुनना हो तो दोनों हाथ से दोनों कान बंद कर ले।” विनया भी बिना मुड़े कहती चली गई।

“क्या करूं, पापा के लिए दूध ही गर्म कर ले जाता हूं। फिर बुआ से ही कहता हूॅं कुछ बना लें। गोलू तो कोयल भाभी को छोड़ ही नहीं रहा है, वो भी क्या करें। संपदा भी रहती तो कुछ आराम हो जाता। ऑफिस भी कॉल करना है।” मनीष गैस ऑन कर दूध गर्म होने रखता हुआ खुद से ही बातें कर रहा था।

ट्रे में गर्म दूध का कप और दो ब्रेड लिए मनीष अपने  पापा के कमरे की ओर बढ़ा और दरवाजे पर ही ठिठक गया।

“दवा भी लेनी है आपको पापा जी, ये देखिए आपकी दिन भर की समय सारिणी मैंने बना रखी है। कोई मजाक थोड़े ना है, इस घर की बहू हूॅं, हाॅं माँ की तरह तो सब कुछ नहीं संभाल सकती। फिर भी प्रयास तो किया ही जा सकता है ना।” मनीष के पापा की ओर टेबलेट बढ़ाती हुई विनया कह रही थी।

मनीष के पापा बिना कुछ बोले चुपचाप टेबलेट लेकर निगल लेते हैं।

“आप बेफिक्र रहिए पापा जी, अभी थोड़ी देर में बुआ जी घर संभाल लेंगी तो सब कुछ व्यवस्थित हो जाएगा।” विनया मुस्कुरा कर कहती है।

“बेटा, बाहर से कुछ मंगवा लो और मनीष से कहकर अपनी सास को डॉक्टर से दिखवा लो और कोई कुछ नहीं करने वाला।” विनया ट्रे में कप रख रही थी तब ससुर जी धीरे से अपराधी की तरह कहते हैं। 

विनया की इच्छा होती है कि ससुर जी पूछ ही ले, जब उन्हें ये सच्चाई मालूम है तो घर की लक्ष्मी के साथ ऐसा व्यवहार करना उचित था। उनके मान, सम्मान, अधिकार को छीन कर किसी और के हाथ में दे देना क्या यही बड़प्पन था। सौ तरह के सवाल मन में लिए विनया चेहरा स्तब्ध था और उसने अपनी मृगनयनी जैसी ऑंखों से ससुर जी की ओर देखा, जिसमें उन सवालों के साथ उपालंभ भी तैर रहा था और ससुर जी उसकी नजरों का ताव में खुद को जलता महसूस कर नजर नीची कर पास में रखे अखबार के शब्दजाल में खुद को उलझाने का प्रयास करते हैं और विनया ट्रे लिए बाहर निकलती है तो मनीष दरवाजे पर खड़ा मिलता है। “गुणी माॅं का अवगुणी बेटा”, मनीष के हाथ में दूध का गिलास और प्लेट में ब्रेड देख मुस्कुरा कर कहती विनया चली जाती है।

“पापा, ये दूध”, मनीष पापा से नजर मिलते ही कहता है।

“बहू ले आई थी बेटा”, मनीष के पापा अखबार रखते हुए कहते हैं। जिसका अर्थ था मनीष उनके पास थोड़ी देर बैठे, उनके चेहरे पर खुशी का प्रतिबिंब झलक रहा था।

मनीष प्लेट और गिलास मेज पर रखते हुए कुर्सी खिसका कर बैठ गया। लेकिन दस मिनट बीतने के बाद भी दोनों के बीच एक अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था। वे दोनों ही चुपचाप अपनी नजरें नीची किए बैठे रहे और आसपास की चीजों को ताकते रहे। इस स्थिति में उनके बीच की दूरी महसूस हो रही थी, जैसे दोनों ही अव्यक्त सोच के साथ अनबोले शब्द इंतजार कर रहे हों।

“पापा मैं बुआ से लंच के लिए कहता हूं और मम्मी को चिकित्सा उपलब्ध कराकर दफ्तर भी जाना होगा।” मनीष खड़े होने का उपक्रम करता हुआ कहता है और मनीष के पापा केवल सिर हिला कर अपनी सहमति देते हैं।

“बुआ मुझे दफ्तर भी जाना है। आप आज रसोई देख लीजिए ना, सबके लिए कुछ बना देती, मैं भी आपकी सहायता कर दूंगा।” पहली बार ऐसा हो रहा था कि मनीष झिझकते हुए बुआ से कोई बात कह रहा था या यूं कहा जाए कि इससे पहले वो सिर्फ बुआ की सुनता रहा था, कभी कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी।

“मुझे तो कमजोरी हो गई है मनीष। सुबह से अन्न का एक दाना भी तो नहीं ले सकी और तुम्हारी पत्नी को तो बातें बनाने से ही फुर्सत नहीं मिलती है।” बुआ अपने बिस्तर पर लेटे लेटे ही कराहती हुई कहती है। उनकी आवाज में दर्द और कमजोरी कूट कूट कर भरा हुआ था। वह चिंताग्रस्त और थकी हुई नजरों से मनीष की ओर तकलीफ भरी दृष्टि डालती हुई कहती है।

“मैंने तो पहले ही कहा था मेरा टिकट करा दो। घर से दूर कितने दिन रहे इंसान।” मनीष की दृष्टि जैसे ही मंझली बुआ की ओर उठी, वो हाथ खड़ा करती हुई कहती है।

“अजीब ही है, कुछ समझ ही नहीं आ रहा है कि क्या करूं।” मनीष निराशा भरे स्वर में बड़बड़ाता हुआ अपने कमरे में आता है।

“तुम ये क्या कर रही हो?” विनया को कमरे के सोफे पर बैठे और टेबल पर पैर अटकाए देख मनीष तेज आवाज में कहता है।

“नेल पेंट कर रही हूं। कई दिनों से समय नहीं मिला था, आज कोई काम नहीं है। दवाई के कारण माॅं की भी ऑंख लग गई है तो मेरे दिमाग में आया कि इस समय का सदुपयोग करते हुए खुद पर ध्यान दिया जाए।” पैर के नाखून में गुलाबी रंग की रंगत बिखेरती विनया बिना सिर उठाए जवाब देती है। उसकी सहज हॅंसी से उसका चेहरा धूप की किरणों की बौछार में निर्मल भूमि पर खिलते हुए एक सुंदर फूल की तरह लग रहा था। 

“समय का सदुपयोग, मम्मी की तबियत खराब है। घर अव्यवस्थित है। किसी ने कुछ खाया पिया नहीं है। मेरी जरूरी मीटिंग है और तुम समय का सदुपयोग करते हुए नेल पेंट कर रही हो। वाह गजब ही है।” मनीष विनया पर चिल्लाना चाहता था लेकिन उसके उत्साह में चमकते चेहरे को देख झल्ला कर रह गया।

“हूं, आप अभी बुआ जी के कमरे में गए तो थे। क्या बना रही हैं बुआ जी। आपकी तो पसंद नापसंद उन्हें मालूम ही होगी। आपके लिए उन्हें कभी कुकिंग करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ होगा। आज तो इसी बहाने हम जैसों को भी उनके हाथ के खाने का स्वाद मिलेगा।” अपने नाखूनों पर फूंक मारती ऑंखें मटकाती विनया बेधड़क कहती है। 

“नहीं वो बुआ ने मना कर दिया है। कुछ मंगवाना ही होगा।” मनीष शर्मिंदा होता हुआ कहता है।

“ओह हो, इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। मेरी मम्मी से बात हो गई है, थोड़ी देर में दिनभर का खाना लेकर ड्राइवर आ जाएगा और उनकी घरेलू सहायिका आकर साफ सफाई कर जाएगी।” विनया बैठे बैठे ही कहती है।

मनीष के पुरुष प्रधान अहम् ने चौंकते हुए अपनी भावनाएं प्रकट करते हुए कहा, “तुमने बिना पूछे ही निर्णय ले लिया, कैसे!” उनके चेहरे पर व्याकुलता और आश्चर्य से भरे भाव प्रतिद्वंदित हो रहे थे।

मनीष के चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए विनया कहती है, “अब जिसे अपनी माॅं के कमरे में भी जाने के लिए किसी और की पीठ का सहारा लेना पड़े, उसके निर्णय लेने की क्षमता समझ आती है और पापा जी से आज्ञा मिल ही गई है।”

मनीष के लिए यह सब अप्रत्याशित था। विनया का व्यवहार उसके लिए बिल्कुल गौण सा था। इस परिस्थिति ने मनीष को एक नए स्तर पर विचार करने पर मजबूर किया। 

“लेकिन यह व्यवस्था कब तक चलेगी। इससे पहले तो बुआ सब कुछ संभाल”…

“इससे पहले कब मनीष….इससे पहले माॅं का स्वास्थ्य कब बिगड़ा था मनीष और आपको अपनी बुआ से घर संभालने कहना पड़ा था।” मनीष को बीच में रोकती विनया एक तरह से गुर्रा उठी थी। आज विनया अपने मन का गुबार बिना किसी परिणाम को सोचे निकालने पर आमादा थी। उसने कहीं सुना था कि पुरुष के अहम को सहला कर उससे काम लिया जा सकता है। लेकिन यहाॅं तो वो उल्टा ही देख रही है, एक जमाने से माॅं तो इन लोगों के अहम को पोषित ही कर रही हैं लेकिन उससे उनका कुछ भला हुआ हो, ऐसा दिखा तो नहीं। इसलिए विनया ने सीधे अहम पर चोट करने का सोच लिया था।

“उत्तर ढूंढते रह जाएंगे, नहीं मिलेगा। जाइए माॅं को देखिए।” विनया मनीष को बगलें झांकते देखकर आदेशात्मक स्वर में कहती है।

मनीष के पास विनया के सवालों का जवाब नहीं था। क्योंकि अंजना उसकी जरूरत का समान उसके हाथों में पकड़ा जाती थी और वो बुआ के साथ बैठा इन सब बातों का श्रेय बुआ को ही देता था। उसने कभी इस हालात का सामना नहीं किया था। इसलिए वो चाह कर भी कुछ नहीं कह सका और सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गया।

मनीष के दिल में गहरा विचार चल रहा था, क्योंकि विनया ने उसे भी हर समस्या का सामना करने का आभास करवाया था। विनया के आत्मविश्वास को उकेड़ने वाले उन सवालों ने मनीष को अपने जीवन की महत्वपूर्णता पर चिंतित कर दिया था। अब उसे महसूस हो रहा था कि खुद से और अपने रिश्तों से नए संबंध जोड़ने का समय आ गया है, अब वो समझ रहा था किउसके ठंडक का स्रोत तो उसके घर में ही विद्यमान है, वो जिस मृगमरिचिका की ओर भाग रहा था, वास्तविकता में तो वो है ही नहीं। विनया ने उसके जीवन के पुनर्निर्माण का संकेत दिया था।

सोचता हुआ मनीष झटके से उठकर बिना झिझक अपनी माॅं के कमरे की ओर चला गया। जहाॅं अंजना खिड़की के शीशे से बाहर देखने का प्रयास कर रही थी और आहट सुनकर नजरें घुमाती है तो मनीष को सामने खड़ा पाकर उठने की कोशिश करती है।

“नहीं, नहीं माॅं, आप लेटे रहिए। थोड़ी देर में डॉक्टर से मिल आते हैं।” मनीष लेटे रहने कहकर वही कुर्सी खिसका कर बैठ गया।

अब तो मैं बिल्कुल स्वस्थ….

अंजना बेटे को देखकर प्रफुल्लित होकर कह ही रही थी कि विनया ना में सिर हिलाती हुई कमरे में प्रवेश करती है। 

“डॉक्टर का क्या करना बेटा, उम्र का तकाजा है।” उठने की कोशिश करती अंजना अचानक से नाटकीय अंदाज में कहती है और विनया को हॅंसी आ गई।

उसकी हॅंसी सुनकर मनीष बैठे बैठे ही मुड़ कर निगाह में प्रश्न का तालाब भरकर देखता है।

“वो आपको यहाॅं बैठे देख हॅंसी आ गई। मेरे कहे का इतनी जल्दी असर होगा, मैंने सोचा नहीं था। आपके पास कोमल हृदय भी है, ये तो कल्पना से भी परे था। सो स्वीट पतिदेव।” विनया एक ऑंख दबाती हुई कहती है।

विनया की इस हरकत पर मनीष भनभना गया। “तुम्हारी ये जो बचकानी हरकतें हैं ना”….

“टिंग टोंग”…. “मैं देखता हूॅं, तुम माॅं को तैयार करो। डॉक्टर से मिल आऊॅं।” विनया को निर्देश देता मनीष उसे घूरता हुआ मुख्य द्वार खोलने चला गया।

 

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आरती झा आद्या

दिल्ली

2 thoughts on “अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 33) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”

  1. कहानी अच्छी है। भावनाओं के वर्णन में आपकी लेखनी का सामर्थ्य विस्मित कर देता है।
    अनुरोध है कि शब्दों के चयन में थोड़ा ध्यान रखें
    1. उसके चेहरे … भाव प्रतिद्वंदित हो रहे थे ।
    – सही शब्द “प्रतिबिंबित” हो रहे थे – यह कहना चाहिए।
    2.विनया के आत्मविश्वास को उकेड़ने वाले उन सवालों ने मनीष को अपने जीवन की महत्वपूर्णता पर चिंतित कर दिया था।
    : उकेड़ने( गलत) – उधेड़ने सही शब्द है।
    (दोनों का अर्थ अलग है।)
    3. महत्वपूर्णता( अशुद्ध शब्द)– भाव के अनुसार इसका पर्याय सार्थकता या अहमियत इस्तेमाल करें।
    अन्यथा न लें। धन्यवाद!

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