अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 29) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“वो माॅं, पूछ रही हैं कि कुछ चाहिए था क्या आपको।” मनीष के पीछे पीछे कमरे में प्रवेश करती विनया पूछती है।

“तुम्हें एक बार बता तो देती कि तुम मम्मी के कमरे में हो।तुम्हारी प्रतीक्षा में यही सोफे पर सिर टिकाए सो गया था मैं। अब गर्दन भी अकड़ गई है।” मनीष बिना मुड़े विनया के पदचाप को कमरे के अंदर महसूस कर कहता है।

आं… बता देती…प्रतीक्षा”…इस वक्त विनया के चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे उसने दुनिया का आठवां अजूबा देख लिया हो।

हाॅं, तुम्हारी प्रतीक्षा….

आ….दर्द से विनया कराह उठी क्योंकि बोलते हुए मनीष ने उसकी बाॅंह कस कर अपनी हथेली से पकड़ ली थी, उस कसाव के दर्द से विनया उफ़ कर बैठी और मनीष उसके मुॅंह से निकले कराह को सुनकर हड़बड़ा कर झेंपता हुआ अपना हाथ झट से हटा कर समेत लेता है।

“हाॅं, तुम्हारी प्रतीक्षा…तुमसे बात करनी थी। दिन में तो संभव हो ही नहीं पाता है। बैठो…” मनीष बोलता हुआ विनया को सामने सोफे पर बैठने का इशारा करता हुआ खुद में भी बुदबुदाता है।

विनया के चेहरे पर चित्रित भावनाएं एक इस मौके के प्रति विराग और प्रतीक्षा दोनों का अद्वितीय संगम दिखा रही थी। उसके चेहरे पर छठे आसमान की प्रतीक्षा और आशा के साथ जुड़े भाव थे, जिससे उसके आंखों में चलकर आ रहे आंसू उसके आंतरिक भावनाओं का साक्षात्कार कराते थे और ऑंखों में नमी का अनुभव कर सोफे पर बैठती हुई एक पल के लिए वह ठिठक गई थी।

शायद उस नमी के साथ विराग भी बह कर निकल गया था क्योंकि अब चेहरे रूपी कैनवास पर गहराईयों से भरा व्याकुल भाव के साथ आशा और उत्साह की रंगीनी फैल गई थी। उसकी मुस्कान में एक अलग प्रकार का आनंद और संतुलन छाया हुआ था, जिससे उसकी आंखों में चमक आ गई थी, मानो एक नई उम्मीद की भावना से वह ओत–प्रोत हो रही थी, एक नई शुरुआत का संकेत उसके हृदय में प्रतिस्थापित हो रहा था।

विनया सोफे पर बैठी हुई, बच्चों के समान, मनीष को गौर से देख रही थी। उसकी बड़ी बड़ी आंखों में चंचलता और चपलता की छवि दिख रही थी, जो उसके भावनात्मक संवेदनाओं को उजागर कर रही थी। उसकी ऑंखों की चमक और टुकुर-टुकुराहट दिखाती थी कि वह स्थिति को समझने का प्रयास कर रही थी और खुद को दोनों हाथों से कसते हुए ठंड से बचने का प्रयास भी कर रही थी क्योंकि कमरे से बाहर निकलते हुए वह अपना शॉल नहीं ले सकी थी। उसे देखते हुए मनीष अपनी जगह से खड़ा होकर गंभीर कदमों से विनया के कपड़ों की आलमीरा की ओर बढ़ा और एक शॉल निकाल लौट कर विनया ओर बढ़ाता हुआ सोफे पर बैठ गया।

“पहले तो तुम इस तरह देखना बंद करो।” मनीष परेशानी भरे स्वर में कहता है।

“किस तरह।” ऑंखों को दोनों हाथों से मसलती हुई विनया पूछती है।

“इसी तरह तुमने मम्मी और विनया को अपने वश में कर रखा है ना।” मनीष विनया की ओर बिना देखे कहता है।

“पर किस तरह, देखिए आप स्पष्ट शब्दों में बताइए कि क्या बात करनी है आपको। मुझे नींद भी आ रही है और सुबह से हरारत भी थी मुझे।” मनीष की बातों पर थोड़ी परेशान होती और जम्हाई लेती विनया कहती है।

“ये जो तुम अपनी नजर में प्रेम का दरिया बहाती हुई देखती हो ना, इस तरह।” थोड़ा झुककर बैठता हुआ मनीष कहता है।

“ओह, पर आपको इस नजर से क्यों देखूंगी मैं, आपसे प्रेम थोड़े ना हुआ है और माॅं से, दीदी से मुझे प्रेम है।” मनीष की बात पर उत्तर देती विनया बेबाकी से बोल गई और आगे बोलने से पहले जीभ को दांतों से दबा कर खुद को रोक सकी।

मनीष उसकी इस बेबाकी पर कुछ बोलता, उससे पहले ही विनया का जीभ दांतों से आजाद होता हुआ मन के साथ मिलकर साजिश रच चुका था, “आप ईर्ष्या के वशीभूत होकर मुझे ये सब तो नहीं सुना रहे हैं।” 

“क्या बकवास कर रही हो, किस बात की ईर्ष्या” विनया के कथन पर मनीष खफा हो उठा था।

“छोड़िए, बात बढ़ जाएगी। आप चीखेंगे तो सबकी नींद में खलल पड़ेगी।” मनीष का स्वर तेज होता देख विनया खड़ी होती हुई कहती है।

“चुपचाप बैठ जाओ और ये बताओ क्यों होगी तुमसे ईर्ष्या। ऐसा है क्या तुम्हारे पास।” मनीष इस एक शब्द के पीछे पड़ा हुआ था।

“माॅं हैं मेरे पास, वो भी दो दो। एक तो आपकी ही माॅं हैं, जिसकी गोद में पता नहीं आप कब से नहीं सोए होंगे। पता नहीं कब से आपने उन्हें गले नहीं लगाया होगा, शायद भर मुॅंह बोले भी अरसा बीत गया होगा और उनके गले से मैं बेधड़क लिपट जाती हूॅं। बातें करती हूॅं और साधिकार उनके कमरे में सो भी जाती हूॅं, तो आपका ईर्ष्यालु होना बनता है ना।” विनया आराम से सोफे पर बैठी मनीष के चेहरे पर बदलते भाव को देखती हुई कहती है। 

मनीष के प्रश्न पर कुछ देर तो उसे समझ नहीं आया था की क्या उत्तर दे, लेकिन उसके हाजिरजवाबी की आदत ने तुरंत उसका साथ दिया और वो बिना अवसर गंवाए मनीष के मानस पटल पर चोट कर बैठी। मनीष के अचेतन मन में जो पीड़ा जख्म बन कर ठहर गई थी, उस जख्म को विनया कुरेद कर खड़ी हो गई थी।

“आप विचार कीजिएगा, इस चक्कर में आपने संभव भैया को और मंझली बुआ की युवा बेटियों को उनसे दूर रखा है। इतना पाप एक ही जीवन में, राम राम।” विनया मनीष के सामने कहती कमरे से ये गई कि वो गई।

“मैं जानना चाहता हूं कि डिनर के समय तुमने मुझे उस तरह की नजर से क्यों देखा मानो सब कुछ तूफान में बहा ले जाओगी।” कमरे का दरवाजा खुलने के आवाज पर मनीष हड़बड़ा कर कहता है लेकिन तब तक विनया बाहर जा चुकी थी।

“तुम्हें चैन नहीं है ना, अभी अभी ऑंख लगी थी मेरी। अपने कमरे में ही सो जाती।” अंजना अपने कमरे का दरवाजा खोलती हुई झूठे गुस्से से विनया से कहती है।

विनय खिलखिलाती हुई अंदर आती अंजना से कहती है, “लेकिन आपके चेहरे पर तो नींद की खुमारी तो कहीं नहीं है। ये क्या आप तो एलबम खोले बैठी हैं। अच्छा तो इसमें नींद खोज रही थी।” विनया खिलखिला पड़ी थी।

“क्या बात है, ऐसे ही खिलखिलाती रहो।” अंजना विनया की उन्मुक्त खिलखिलाहट पर मुग्ध होती हुई कहती है।

“आज अचानक ही तुरुप का पत्ता हाथ लग गया माॅं, देखते हैं वो तुरुप का पत्ता कब तक अपना रंग दिखाता है।” आराम से बिस्तर पर बैठती एलबम के पन्ने पलटती हुई विनया कहती है।

“कैसा तुरुप का पत्ता। तुम्हारी बातें तो मेरी समझ में भी नहीं आती हैं।” अंजना भी बैठती हुई कहती है।

“पहले इस पत्ते का रंग जमने तो दीजिए। फिर मैं सब बताऊंगी। वैसे एक राज की बात है कि आपका बेटा थोड़ा सिरफिरा भी है।” अंजना के बिल्कुल निकट आकर कान में फुसफुसाती हुई विनया कहती है।

“ऊं, मेरे बेटे के बारे में उटपटांग बातें नहीं। ऐसे ही इतनी बड़ी कंपनी नहीं संभालता है।” अंजना प्यार से ऑंखें तरेरती हुई विनया के सिर पर हल्की चपत मारती हुई कहती है।

“तभी तो सिरफिरे हैं।” विनया हॅंसती हुई दोहरी हुई जा रही थी।

“चलो, सो तुम अब। हद्द हो गया है, जिसकी तबियत ठीक नहीं थी, वो आराम करने के बजाय तुरुप का पत्र चल रही है।” मेज पर रखी घड़ी में अंजना समय देखती है।

“और खबरदार जो सुबह जल्दी उठने की हड़बड़ी दिखाई तुमने, कल का पूरा दिन आराम करोगी तुम, बस।” अंजना विनया के पीछे तकिया रखती लिहाफ ठीक करती हुई कहती है।

जी, मुॅंह पर अच्छे बच्चे की तरह उंगली लगाए विनया अंजना की ओर देखती लेट गई।

“तुम ना, फिर से इस घर के लिए वो आसमान में उड़ता बादल का वो टुकड़ा हो, जो तब बरसता है जब फसल को उसकी जरूरत होती है। जब महसूस हुआ कि इस घर के लोग एक दूसरे को पहचानना भूल जाएंगे, तो तुमने अपने आगमन से प्रेम बरसा कर उनमें पुनः पहचान की भावना जागृत की, दिल में बहुत सी उम्मीदें बो दी हैं। तुमने मेरे मन की पुनर्जीवित कर पुनर्मिलन की भावना को उत्पन्न किया है और संपदा का मुझे गलबहियां करना हृदय में कई हसीन पल समाहित कर जाता है।” विनया मुस्कुराती हुई अंजना के मातृत्व पगी भावनाओं को सुन रही थी।

“बेटा, मैंने तुम्हें कितना गलत समझा था, माफ कर देना मुझे।” अंजना लेटी हुई विनया के गाल पर अपनी हथेली रखती हुई कहती है।

“अच्छा हुआ आपने गलत समझा, तभी तो आपके प्यार को पाने की जिद्द आ गई मुझमें।” विनया अंजना की हथेली पर अपनी ठंडी हथेली रखती हुई कहती है।

“तुम्हारे हाथ कितने ठंडे हो रहे हैं। अंदर करो और मुझे पता है कि तुम्हें जिद्द प्यार पाने की नहीं, मुझे प्यार दिलाने की रही है।” लिहाफ के अंदर उसके हाथों को करती हुई अंजना कहती है।

“पर आपको कैसे, आज आप दोनों माॅं–बेटा मुझे ही झटके दे रही हैं।” विनया उठ कर बैठना चाह रही थी।

“नहीं, चुपचाप ऑंखें बंद करो।” अंजना विनया के ऑंखों को अपने हाथ से बंद करती हुई कहती है।

“अल्फाज भी आप दोनों के एक से ही हैं।” एक ऑंख खोल कर विनया कहती है और जब तक अंजना कुछ कहती झट से फिर बंद कर लेती है।

“पता नहीं समधन जी कैसे संभालती होंगी इस नटखट लड़की को।” अंजना बुदबुदाती है।

“जब मिलेंगी तो ये ट्रिक पूछ लीजिएगा।” विनया ऑंखें बंद किए ही कहती है।

अंजना उसकी बात पर कुछ ना कहते हुए सोने का उपक्रम करने लगती है।

“तब भाभी, कुछ बात बनी क्या।” संपदा कॉलेज जाने से पहले विनया को जगी हुई देख कमरे में आती है।

“मायके वाली बात खल्लास हो गई। कुछ नई अपडेट है आपके भैया से संबंधित। लेकिन अभी नहीं, संदेश देकर बताऊंगी। दीवारों के भी कान होते हैं।” बाहर बड़ी बुआ को मंडराते देख विनया धीरे से कहती है।

“हूं, ठीक है भाभी।” कहकर संपदा कमरे से बाहर आ गई।

आज भी राजकुमारी जी की तबियत ठीक नहीं है क्या। ससुराल को मायके बना रखा है इसने। हमारा क्या जाता है, ये जो आदतें बिगाड़ी जा रही हैं ना, देख लेना मनीष कुछ दिनों बाद सब उसकी गुलामी ही करोगे।” खाने के टेबल पर जैसे ही मनीष बैठा बड़ी बुआ विनया को लक्ष्य करके कहती हैं।

“क्या बुआ, सुबह सुबह ही। वो जाने और घर ले लोग जाने।” मनीष बेरुखी से कह गया। रात भर विनया की बातों ने उसे सोने नहीं दिया और अगर नींद आई भी तो सपने में उसे उसका बचपन ही दिखता रहा, अंजना के साथ भागते दौड़ते। संपदा से लड़ कर अंजना के ऑंचल में छिप जाना। अंजना का संपदा की डाॅंटना, पापा के साथ उंगली पकड़ कर भाई बहन का बाहर घूमने जाना। जितनी बार उसकी ऑंख लगी, आधे अधूरे सपने के मध्य ही उसकी ऑंख खुल भी गई। 

मनीष समझ रहा था, लगातार इन विचारों की दुनिया में डूबकी लगाने के कारण सपने भी उन्हीं पलों को लगातार दोहरा रहे थे। लेकिन सोचने और उसे वास्तविकता में अनुभव करने में एक अंतर होता है और यही मनीष के साथ हो रहा था। सपने ने उसके हृदय को व्यापकता से भरकर, उसकी आँखों में गिरी रेत को हटाने का कार्य किया और उसे नीचे की धरती की ओर मुख करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रक्रिया ने मनीष को नए दृष्टिकोण और अनुभव की दिशा में मोक्षित किया, जिससे उसने अपनी जीवन यात्रा को एक नए दर्शन से देखना शुरू किया।

सॉरी बुआ, अचानक मनीष को आभास हुआ कि संभव, कोयल, संपदा और उसके पापा सभी उसकी ओर देखने लगे थे, तब मनीष को बुआ के प्रति अपनी बेरुखी का आभास हुआ और वो उठ कर बुआ के समक्ष आता हुआ कहता है।

“बुआ, क्यों ना आप, संभव भैया और कोयल भाभी शहर घूम आइए। ये लोग जब से आए हैं, घर में ही कैद हैं।” वही बुआ के बगल वाली कुर्सी पर बैठता हुआ मनीष बुआ के प्लेट से एक निवाला तोड़ उन्हें खिलाता हुआ कहता है। 

“नहीं, मुझे कहीं नहीं जाना है।” बुआ की बेरुखी से नाराज बड़ी बुआ कहती हैं।

“माफ भी करो ना बुआ, रात भर नींद नहीं आई। सिर में भी बेतहाशा दर्द है, शायद इसलिए”… आशा भरी नजरों से बुआ की ओर देखता हुआ मनीष कहता है।

“दर्द है तो इसका क्या अर्थ है।” बुआ नाराजगी से कहती हैं। 

तब तक अंजना ने मनीष के लिए तुलसी की पत्तियों को उबालकर उनमें शहद मिलाया था। इस आत्मीय और सात्विक प्रक्रिया के बाद वह एक ताजगी भरे अरोमा वाले उपहार के साथ मनीष के सामने आई और चाय से उठती भाप के प्रतिच्छाया के मध्य में अंजना का चेहरा भावनाओं से भरा हुआ था और मनीष उस प्रतिच्छाया के मध्य से ममता और धैर्य से भरी प्रतिमूर्ति को देखने का प्रयास कर रहा था।

विनया ने अलाव की जो आग माॅं–बेटे के सामने सुलगाई थी, उस आग ने अनजाने ही दोनों के मध्य भावनाओं का आग भड़का दिया था। अंजना उम्मीदों से भरी थी और मनीष के हृदय को माॅं से दूर होने का दंश झेल रहा था साथ ही उसे विनया ने उसके भीतर बड़ी बुआ और मंझली बुआ को उनके बच्चों से दूर करने की तकलीफों का भी भरपूर अहसास कराया था। इस आग के साथ विनया ने एक नए साझेदारी के आगाज का प्रयास किया

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