एक और अलसाई सुबह, अंगराई लेती हुई विनया मोबाइल में समय देखकर ऑंख मिचमिचा कर खोलने के बदले फिर से बंद कर लेती है। बिस्तर छोड़ने की उसकी इच्छा नहीं हो रही थी। दिल दिमाग बोझिल सा हो रहा था, आजकल उसकी रातें घर के हालातों को सोचती गुजर जाती हैं और जब तक दिमाग थक कर बंद हो जाने का ऑंखों से आग्रह करता है, तब तक मुर्गे के जगने की बेला आ जाती है और मुर्गे के साथ साथ निशा से लड़ता सूरज भी अपनी जीत पर मुस्कुराता हुआ अंबर की ओट से बाहर आने के लिए आतुर हो उठता है, अक्सर सूरज के संग संग विनया भी पहली किरण का आनंद लेने के लिए बालकनी में जा खड़ी होती थी। लेकिन आज उसका तन और मन दोनों ही निढ़ाल हुआ पड़ा था।
“भैया, भाभी जगी नहीं हैं क्या?” संपदा आधी नींद में अपने कमरे से निकल बालकनी में आती है और वहाॅं विनया के बजाय मनीष को खड़े देख कलाई घड़ी में समय देखती हुई पूछती है।
“नहीं”… एक नजर संपदा की ओर देखकर मनीष उत्तर देता है।
“अच्छा! भाभी को तो सुबह की पहली किरण से मिली ताजगी बहुत पसंद है। मुझे भी प्रकृति से प्रेम करना उन्होंने ही सिखाया। सुबह की पहली किरण, सामने के पेड़ की पत्तियों से टपकने वाली ओस की बूंदों की आवाज कान लगाकर सुनना और उसी समय बालकनी की रेलिंग पर पड़ी ओस की ठंडी बूंदों को हथेली पर लेकर उसकी ठंडक से तन–मन को दिनभर के लिए ठंडा कर प्रसन्नचित्त रखना, इसका अहसास भाभी ने ही मुझे कराया।” संपदा रेलिंग पर पड़े ओस की बूंदों से रेखाएं बनाती हुई कहती है।
और मनीष उसके प्रकृति प्रेम में डूबे शब्दों को सुनता उसे आश्चर्य से देख रहा था। मनीष, संपदा के शब्दों के साथ उसकी भाभी की प्रकृति प्रेम की मिसालों में खो गया था। संपदा की आवाज ने उसको एक नए दृष्टिकोण से जीवन की सुंदरता को महसूस करने के लिए प्रेरित किया। रेलिंग पर पड़ी ओस की ठंडी बूंदें और रेखाएं, जो प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक थीं, उस समय उसके मन को भी प्रभावित करने लगी थीं। संपदा की बातों ने उसे सूरज के उगते पहली किरण का अहसास करवाया और प्रकृति के साथ जुड़ी सूर्योदय की ख़ुशबू से मनीष जीवन के सौंदर्य से खुश मिलाने की कोशिश करने लगा। उसका दिल भी प्रकृति के साथ मिलकर एक नए स्वरूप में धड़कने के लिए बेताब हो उठा। ये शायद भोर की पहली लालिमा का ही असर था कि संपदा के पूछने पर “भाभी की तबियत ठीक है ना”, मनीष का प्यार से सना हुआ जवाब आया था,” पता नहीं, एक बार जाकर देख लो।”
मनीष से विनया के बारे में पूछते ही संपदा दांतों तले जीभ दबाती अपनी गलती का अहसास करती है। उसने सोचा अब मनीष कागज में पत्थर लपेटे बिना ही उस पर ताबड़तोड़ बरसाने लगेगा। लेकिन ये क्या, मनीष की आवाज में तो इस समय केवल प्रेम की चाशनी टपक रही थी। उसे हैरत से देखती संपदा मनीष के कमरे की ओर बढ़ गई।
“भाभी, भाभी, अभी तक सोई हैं आप। सूरज की दूसरी, तीसरी, चौथी किरण भी धरती को चूम रही है और आप हैं कि…. अरे आपको तो तेज बुखार है।” विनया को जगाने के लिए जैसे ही संपदा ने विनया के ऊपर से लिहाफ हटा कर उसे स्पर्श किया, उसके तपते शरीर के जद में आते ही चीख पड़ी।
संपदा की चीख ने पूरा कमरा गूंथ गया था, तत्पश्चात्ताप विनया को तकलीफ में देख संपदा की ऑंखें भर गई थी। उसकी आंखों में भी दर्द और खेद का आभास स्पष्ट था।
संपदा के स्पर्श और चीख से विनया धीरे से अपने नेत्रों को खोल हल्की सी मुस्कान देती है। विनया की मुस्कान में संपदा को फिर से प्यार और समर्पण की वही मिठास महसूस हुई, जो बीते कुछ समय से उनके बीच बिगड़े हुए रिश्तों को मिटा रही थी। इस मिलन के क्षण में दोनों के बीच की दूरियाँ मिट गईं और पुनः नए प्रारंभ का संकेत में उसने विनया की आँखों में अद्वितीयता के साथ महसूस की।
संपदा झट से दौड़ कर रसोई में जाकर एक कटोरे में भरकर ठंडा पानी और कपड़ा ले आई और कपड़े को गीला कर विनया की माथे को सहलाते हुए उसके ललाट पर रखने लगी। संपदा को खुद के लिए परेशान देख उसे आराम से बैठने के लिए कहते हुए विनया के चेहरे पर मुरझाई हुई लेकिन मासूम मुस्कान तैर गई।
“कितनी प्यारी मुस्कान है भाभी आपकी, गुनगुनाहट से भरी हुई।” विनया को मुस्कुराते हुए देख संपदा उसके सिर पर ठंडे पानी की पट्टी करती हुई मुस्कुरा कर प्यार से कहती है। संपदा की मुस्कुराहट और विनया के प्रति उसकी प्यार भरी भाषा ने विनया के लिए एक प्रेमभरा और आनंदपूर्ण वातावरण बना दिया था। उस प्यारी मुस्कान में छुपी शांति और सुखद भावनाएं भाभी के हृदय को चूम रही थी, जैसे कि एक साथीपूर्ण समय की आनंददायक सार्थकता की परिभाषा गढ़ रही थी।
“मम्मी”… विनया के शरीर का ताप थोड़ा कम होने पर संपदा रसोई में प्रह्लाद मामा जी के लिए नाश्ता बनाती अंजना को आवाज देती है।
“हूं”…अंजना घूम कर अंजना को देखकर प्रतिक्रिया व्यक्त करती है और फिर अपने काम पर लग गई।
“मम्मी, भाभी की तबियत ठीक नहीं है। उनके शरीर का ताप बढ़ा हुआ है। मैंने ठंडे पानी की पट्टी कर दिया, लेकिन अभी भी बुखार है।” रसोई में आती हुई संपदा कहती है।
“तभी मैं कहूं, आज बहू बालकनी में दिखी नहीं।” अंजना के मुॅंह से अनजाने में ही निकल गया।
“मतलब आप भाभी को नोटिस करती हैं मम्मी, फिर जताती क्यों नहीं हैं।” बोलते हुए संपदा की ऑंखें फैल गई थी।
संपदा की ऑंखों में आश्चर्य की रंगत देख अंजना नजरें चुराती हुई कहती है,“ऐसे क्या देख रही हो। रोजाना सुबह कमरे से बाहर आते ही वो बालकनी में दिख जाती है तो”….अच्छा तुम चलो मैं आती हूॅं।”
“ये कहिए ना कि उनका जलवा आप पर भी चल रहा है।” संपदा बोलती हुई रसोई से निकल गई।
“इसकी तो ऑंखें भी नहीं खुल रही है, अपने भैया को कहो, दवाई ले आए।” विनया के माथे को हाथ लगाती हुई अंजना कहती है।
अंजना की बात सुनकर संपदा कमरे से बाहर जा ही रही थी कि मनीष को बुआ के कमरे में जाते देख उसके पैर थम गए, “भैया तो बुआ के कमरे की ओर तशरीफ ले गए हैं, अब क्या वो मेरी सुनेंगे।” संपदा मुॅंह बिचका कर कहती है।
अंजना के दुबारा जोर देने पर संपदा बुआ के कमरे की ओर चल पड़ी। मनीष बुआ की गोद में सिर दिए लेटा हुआ था।
“आज संपदा की सवारी इधर कैसे निकल आई।” संपदा को कमरे में आते देख बड़ी बुआ ने तंज कसा।
“क्या बुआ, आप भी सुबह सुबह शुरू हो जाती हैं। भैया, भाभी को बुखार है, जाकर दवा ले आइए।” बुआ के तंज का उत्तर देती संपदा भाई से कहती है।
“लो हो गया सास वाला ड्रामा शुरू, ज्यादा ध्यान मत दो, थोड़ी देर में खुद ही ठीक हो।जाएगी।” मनीष के बाल सहलाती हुई बुआ कहती हैं।
बुआ की बात सुनकर मनीष संपदा की ओर से मुॅंह फेर कर करवट बदल लेता है। ये भी उसे बुआ का दिया हुआ ही उपाय था, यदि कोई तुमसे बात करना चाह रहा हो और तुम्हें उसमें दिलचस्पी ना हो तो उसकी तरफ से चेहरा फेर लो, बिना बोले ही तुम्हारा काम हो जाएगा और मनीष बिना गलत सही का भान किए बुआ के शब्दों का अक्षरशः पालन करने वाला बुआ का तोता बना हुआ था।
“कभी तो अपने दिमाग से भी सोच लिया करो भैया, कहने को इतनी बड़ी कंपनी में इतने बड़े पोस्ट पर हो। हद्द हो गई।” संपदा भाई के ऐसे व्यवहार से आहत होकर बिफर गई थी।
“मम्मी, भैया का दिमाग जगह पर नहीं है।” विनया के कमरे में घुसते ही संपदा अंजना से कहती है।
अंजना ऑंखों के इशारे से उसे आवाज धीमी रखने कहती है और बताती है कि वह प्रह्लाद मामा जी को कॉल कर दवा के लिए कह चुकी है और वो रास्ते में ही हैं।
“उन्हें आने में समय लगेगा, पापा को बोलूॅं।” संपदा विनया के माथे को छूती हुई पूछती है।
“नहीं, कोई जरूरत नहीं है। उन्हें कब किसी के दर्द का अहसास हुआ है।” अंजना की आवाज तेज हो गई थी और इस तेज आवाज के कानों में पड़ने से ऑंखें बंद की हुई विनया ऑंखें खोल कर कमरे का जायजा लेने लगी।
“भाभी, कुछ चाहिए क्या” विनया को ऑंखें खोलते देख संपदा जल्दी से विनया के बगल में जाकर पूछती है।
विनया हाथ के इशारे से मना कर फिर से ऑंख बंद कर लेती है लेकिन इस अवस्था में भी अंजना की कही हुई बात घूम रही थी, “नहीं, कोई जरूरत नहीं है। उन्हें कब किसी के दर्द का अहसास हुआ है।” लेकिन अभी मन का साथ नहीं मिलने के कारण वो इस पर मंथन नहीं कर पा रही थी।
“संपदा, मैंने विनया के लिए भी सैंडविच बनाया है, एक सैंडविच खिला दो, तब तक दादा भी आ जाएंगे। उनके आते ही बहू को दवा खिला देना।” अंजना विनया के सिरहाने बैठ कर उसके माथे को सहलाती हुई संपदा से कहती है।
“क्या बात है, आज पूरा दिन सोने के बाद अब कमरे से निकली हो। ऐसी भी क्या तबियत खराब का बहाना करके पड़े रहना। सास को आराम दो अब”, खुद को स्वस्थ महसूस कर रही थी, इसलिए जब सब रात के खाने के लिए डाइनिंग हॉल में बैठे तो विनया अपने कमरे से निकल वही आ गई।
आज अंजना को विनया के लिए विह्वल देख दोनों बुआ के कलेजे पर साॅंप लोट गया था इसीलिए बड़ी बुआ कटाक्ष करती हुई अंजना के प्रति अपनी चिंता दिखाती हुई कहती है। इस समय बुआ की ऑंखें अंजना के चेहरे पर कठोरता का भाव आते देख चमक उठी थी, उन्हें लगा जैसे अंजना पर उनकी कही बातों का प्रभाव पड़ रहा है लेकिन अंजना उन्हें कहना चाहती थी कि वो उसके और उसकी बहू के बीच ना आएं, इस बात से वो अनभिज्ञ थी। बड़ी बुआ के कटाक्ष में विनया के प्रति एक कठोरता भरा दृष्टिकोण प्रकट हो रहा था। उनकी दिखावटी चिंता और चेतना परिस्थितियों को उलझाने के लिए एक नकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखने का प्रयास कर रहा था। लेकिन सास बहू पर उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ। अंजना की मुखमुद्रा कठोर ही रही और विनया की नजर मनीष पर जाकर टिक गई। यही वो एक समय होता है, जब पत्नी पति से झूठे मुॅंह ही सही एक बार प्यार के बोल सुनना चाहती है, आखिर उसके गाॅंठ से बॅंधी वो पराए घर में आती है और यदि गाॅंठ खुलते ही वो इंसान भी पराया हो जाए तो कई बार तो उस घर में रहने का कोई औचित्य भी समझ नहीं आता है।
“बस एक बार माॅं को उनका अधिकार दिला दूॅं, एक बार उनके नारीत्व को जगा दूॅं, फिर नहीं रहना मुझे यहाॅं। जिसके साथ आई वो तो इस घड़ी भी दो पल के लिए कमरे में नहीं आ सका।” सच ही ऑफिस जाने पहले और ऑफिस से आने के बाद मनीष बुआ के कमरे में बैठा रहा। किस तरह परिवार से दूर हुआ जा सकता है, इसके गुर सीखता रहा। विनया के दिल में और शायद नजर में भी तूफान आया हुआ था और उसका आवेग उसकी बड़ी बड़ी ऑंखों से होकर बाहर निकलने के लिए आतुर हो रहा था।
उसकी नजरों के तूफान में कुछ ऐसा था, जिसने मनीष को नजरें झुकाने के लिए मजबूर कर दिया और संपदा की कही बात “कभी तो अपने दिमाग से भी सोच लिया करो भैया” दिमाग में घूम गई। यदि ऑफिस के किसी साथी को हल्का जुकाम हो जाए तो मनीष उसका हाल चाल लेने में बिल्कुल कोताही नहीं करता और यहाॅं तो उसकी पत्नी बीमार थी, वो विनया के लिए इतना कठोर कैसे हो जाता है। मनीष से मुॅंह में लिया निवाला अब निगला नहीं जा रहा था।
और अब विनया की दूसरी दृष्टि अपने ससुर जी की ओर गई। जो बिल्कुल किसी साधक की तरह उपेक्षित भाव से अपना नाश्ता कर रहे थे, “नहीं, कोई जरूरत नहीं है। उन्हें कब किसी के दर्द का अहसास हुआ है।” उन्हें देखते ही अंजना के शब्द विनया के कानों में गूंज उठे। क्या ऐसी कोई बात है जिससे माॅं और पापा जी के बीच एक गहरी खाई बन गई और घर में साथ रहते हुए भी दोनों घर के अलग अलग कोने में अपना बसेरा बना लिया। विनया मन ही मन इसके तह में जाने की जरूरत समझती अपना सिर हल्के हल्के हिला रही थी।
क्या हो गया बहू, माता आ गईं क्या तुम पर, जो सभी को घूरती हुई सिर हिलाए जा रही हो। विनया को बहुत गौर से देखती हुई बोल कर बड़ी बुआ जोर से हॅंसती हैं और उनका संग देने के लिए मंझली बुआ भी हॅंसने लगी।
“माता ही तो आई थी, तभी मुझ पर माॅं का इतना ज्यादा प्यार बरसा।” धीमी सी आवाज में कहकर विनया रसोई की ओर जाती सबके सामने अंजना के गले से लग गई। विनया की धीमी आवाज में भीगी भीगी सी भावना थी, जो मातृप्रेम की गहराईयों को छू रही थी। उसने अंजना को उसके प्रति अपने दिल की सीमा तक पहुंचने की भावना को गले लगकर जता दिया। इस पल में उनकी गले लगने से माँ-बेटी सा पवित्र बंधन और मजबूत हो गया।
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आरती झा आद्या
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