“कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि मनीष और पापा जी को सच्चाई से कैसे अवगत कराया जाए। मनीष तो बुआ की बात आते ही पूर्ण रूप से हृदय हीन हो जाते हैं। दोनों बुआ ऐसा कौन सा नशा करा दी हैं कि अपनी माॅं भी नजर नहीं आती हैं। घर के हर निर्णय के लिए बुआ की ओर ही देखेंगे। वो तो आज संपदा दीदी ने पापा जी से पहले ही पूछ लिया, नहीं तो मेरा आना तो आज कैंसल ही था।” चाॅंद की बिखरती चाॅंदनी में ओस की बूॅंदों के बीच ठंडक से ठिठुरते हुए गर्म कॉफी से खुद में गरमाहट भरती विनया अपनी मम्मी और भाभी के साथ बैठी हृदय में धारण किए हुए उबाल को उड़ेलती बातें कर रही थी
“मैं तो कहती हूॅं दीदी कि उनके बेटे बहू से संपर्क कर उन्हें बुलाओ और उनसे ही दोनों बुआ की फजीहत करवाओ।” विनया की भाभी दीपिका कहती है।
“दीपिका, ये टीवी का ड्रामा नहीं चल रहा है, जो हम बेइज्जती की बात कर परिस्थिति और बिगाड़ देंगे। बेटा ये मकान को घर बनाने की बात है। वो जो पुरुष अपनी जिम्मेदारी से मुॅंह मोड़ने के लिए नारी के कंधे पर बंदूक रख कर चलाते हैं, चाहे वो नारी कोई हो, कभी माॅं, कभी बहन, कभी पत्नी, कभी बेटी कोई भी हो सकती है। अरे मेरी माॅं ही ऐसी है, अरे मेरी तो किस्मत खराब थी, जो ऐसी पत्नी मिल गई, अब उसकी सुनूं या कुक और देखूं, उन पुरुषों से पूछो कि जब खुद की बात आती है, तब उस माॅं और पत्नी की कितनी सुनते हैं, उन्हें सही मार्ग पर लाना हमारा उद्देश्य है।” दीपिका की बात पर पहले जोर से बोलती फिर मध्यम स्वर में संध्या समझाती है।
“फिर मम्मी, क्या करें…इस तरह कब तक दीदी झेलती रहेंगी। एक दिन तो किसी का भी धैर्य खत्म हो जाता है। आपने इस परिस्थिति को कैसे हैंडल किया था मम्मी, आपकी ननद और हमारी बुआ ब्रह्मांड सुंदरी हेमा जी भी तो ऐसी ही हैं। मेरे और सौरभ के बीच गलतफहमी का टूटा हुआ पुल बनाने की उन्होंने कितने प्रयास किए थे। वो तो आप अडिग थी मम्मी, इसलिए आपके और मेरे मध्य भी वो गलतफमी उत्पन्न नहीं कर सकी।” संध्या के विचारों को सुनने के बाद दीपिका उन दिनों को याद करती हुई पूछती है।
“जब घर के अपने ही इंसिक्योर होकर घर तोड़ने के प्रयास में लग जाते हैं तो स्थिति दुरूह हो जाती है। खासकर तब जब कोई बाहर से आया हुआ अभी अभी उस घर की सदस्यता ग्रहण कर रहा हो। ऐसे में घर के पुरुषों का और अनुभवी स्त्रियों की भूमिका निर्णायक होती है। यहाॅं अनुभवी स्त्रियाॅं अक्सर मात खा जाती हैं। दूसरे घर से आई उस लड़की को प्रतियोगी की तरह देखती है और अपने सारे अनुभव ताक पर रख अपने बेटे का ही घर तोड़ने में लग जाती है। यहाॅं भी यही होता अगर तुम्हारे पापा हम सबके बीच बाॅंध बनने का काम नहीं करते तो। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि आप लोग को जो भी दिक्कत हो सीधा मुझे कहें और मुझसे भी यही कहा। धीरे धीरे मुझे अनुभव हुआ कि जो नई आती है, पहले उसे, उसके अस्तित्व को पूरे मन से स्वीकार तो करो, हमारी तरफ से उसकी शान खिलाफी ना हो। बाकी बाद में उसके स्वभाव के अनुसार ज्यादा या कम वैसा रिश्ता रखो।” संध्या मुस्कुरा कर चाॅंद की ओर देखती हुई कहती है।
“लेकिन मम्मी मेरे यहाॅं तो ऐसा कुछ भी नहीं है। माॅं में अभी भी आत्मविश्वास नहीं है। कैसे क्या होगा।” विनया उत्तेजना में खड़ी होकर टहलने लगी।
“बुलाना तो है उनके बेटे बहू को ही, बच्चों से ज्यादा अच्छी तरह अपनी माॅं को कौन समझ सकता है। जैसा तुमने बताया था तुम्हारी बड़ी बुआ का इतिहास रहा है कि जब भी उनके घर में काम बढ़ जाता है तो वो यहाॅं आ जाती हैं तो इस बार बेटे बहू को यही बुला लेते हैं, फिर शायद दूध का दूध पानी का पानी होते समय नहीं लगेगा।” संध्या थोड़ा झुक कर दोनों हाथ गाल से टिकाए विनया और दीपिका की ओर देख कर कहती है।
“लेकिन मम्मी उनका बेटा बहू क्या हमारा साथ देने के लिए तैयार होंगे।” दीपिका सशंकित दृष्टि संध्या की ओर ताकती है।
“अरे नहीं बाबा, आपस में नहीं बन रहा हो और अधिक दिन कहीं भी साथ रहेंगे तो खुद ही आपस की बातें बाहर आ कर ज्वालामुखी सी फटेंगी और हो सकता है ज्वालामुखी से निकला वो लावा मनीष की ऑंखों को खोलने में सक्षम हो। ऊं…क्या विचार है तुम दोनों का।” बोलती हुई संध्या की ऑंखें बड़ी हो गई थी।
“हो सकेगा मम्मी।” विनया दोनों हाथों को रगड़ती हुई पूछती है।
“समस्या तभी तक है बेटा, जब तक हम उसका खाना उसे नहीं खिलाते हैं और उसका खाना है समाधान। अब हमने खाना पकाना शुरू कर दिया है, जैसे ही समाधान पूरी तरह पक कर उसके पेट में जाएगा, उसी समय समस्या उड़न छू हो जाएगा।” संध्या बेटी के गालों को पकड़ हिलाती हुई प्यार से कहती है।
“चलें अब सोया जाए, ब्यूटी स्लीप लिया जाए और कल से फाइनल टच के लिए तैयार हो जाया जाए।” संध्या खड़ी होती हुई विनया और दीपिका से कहती है।
जीवन का ये कैसा समीकरण होता है, जो फांस बन कर चुभता रहता है। आकांक्षाओं भी बोझ सी लगने लगती हैं, इच्छाएं मरने लगती हैं। क्या सच में ये इच्छाएं मर जाती हैं या सिर्फ दिल के एक ऐसे कोने में जा कर छुप जाती हैं, जहाॅं तक खुद भी नहीं पहुॅंच पाता है और जैसे ही वैसी कोई इच्छा आसपास दिखाई जाती है, वो छुपी इच्छा मन की बिना बताए ताॅंक झाॅंक करती दिल में दर्द देने लगती है।
“आज को गुलाबी शाम भी मुझे कुछ ऐसा ही अहसास हुआ। जीवन के इस उथल पुथल मैं अपनी इच्छाओं को भुला बैठी थी। लेकिन जब भैया ने भाभी को गुलाबी शाम का तोहफा गुलाबी गुलाब दिया तो एक चुभन सी महसूस हुई, क्या मनीष भी कभी ऐसे मेरे मनोभाव को समझ सकेंगे। क्या उन्हें कभी प्यार होगा या मैं मृगमरिचिका में भटकती रहूंगी।” अपने कमरे में लेटी विनया अपने और मनीष के रिश्ते को लेकर स्वयं से परामर्श कर रही थी।
विनया को अपनी जिंदगी का कोई हाशिया नहीं मिल रहा था। वो अंधेरे में हाथ पैर मारती अपनी जद्दोजहद से निकलने की कोशिश कर रही थी और अतीत के लम्हों को उस अंधेरे में भी देख रही थी। यही जाड़ों की धूप में छत पर लेटी अपना पसंदीदा उपन्यास पढ़ती ख्वाबों के गलियारे के सैर पर निकल जाती थी। लेकिन जिंदगी क्या फेयरी टेल होती है, नहीं ना। वो तो अपने जेब में किसके लिए क्या छुपाए चलती है, समय के साथ निकाल कर हथेली पर रख देती है और शिकायत का अवसर दिए बिना पल भर में गायब हो जाती है। करवट बदलती विनया मोबाइल उठा कर गानों की सूची में से एक गाना खुद के बजाने लगी।
दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन
जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिये हुए
दिल ढूँढता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन…
विनया गाने को सुनती उठ कर बैठ गई थी और अपने अंतर्द्वंद पर, अपनी अपेक्षाओं पर काबू करने के लिए कमरे में रौशनी कर अपने मन के दहलीज पर फैलते अंधियारे को भगाने की चेष्टा कर रही थी, उसे हरियाली में बदल कर सूरज की तरह उजाला बनना चाह रही थी। भले ही वो सही के साथ खड़ी थी, एक उचित मार्ग खोजती उचित दिशा की ओर बढ़ना चाह रही थी लेकिन थी तो आखिर वो भी एक इंसान ही, उसके कदम भी अपनी इच्छाओं, अपने सम्मान के आगे लड़खड़ा जा रहे थे। विनया उन चंद लोगों में से है, जो अपने संघर्ष पर निराशा को हावी होने नहीं देती है और संभावनाओं की तलाश में जुटी रहती है। इसलिए लड़खड़ाते कदम को बार बार उचित अनुचित का पाठ पढ़ाती उचित के साथ भी चल पड़ती थी।
“पर मम्मी”….ये उचित होगा क्या”….सुबह सास, बहू, बेटी रसोई में नाश्ता की तैयारी करते हुए रात की बात जहाॅं खत्म हुई थी, वही से शुरू हुई थी और संध्या का विचार सुनकर विनया हाथ का काम छोड़कर पूछती है।
“देख बेटा, कभी कभी जब सीधी उंगली से घी ना निकले तो थोड़ी सी टेढ़ी करनी पड़ती है और ये सब तुम अपना घर बचाने के लिए करोगी, साम दाम दण्ड भेद अपनाना पड़ता है। संपदा की मदद तो मिल ही जाएगी। हाॅं, इसके लिए समधन जी को भी तैयार करना पड़ेगा। बिना उनके ये सब संभव नहीं है। पहले तुम सुलोचना बुआ से बात कर लो और फिर बड़ी बुआ के बेटे बहू को कुछ दिनों के लिए घर आने का निमंत्रण दो। अभी सारे लोग घर से ही ऑफिस ऑफिस कर रहे हैं तो मुश्किल नहीं होगी।” अपने हाथ के काम को रोकती हुई संध्या विनया की ऑंखों में देखती हुई पूरे विश्वास से कहती है।
“मम्मी, आप अपनी बहू के सामने ही इतनी प्लानिंग कर रही हैं।” दीपिका मुॅंह को सीटी बजाने के अंदाज में गोल करती हुई कहती है।
“क्योंकि मेरी बहू, मेरी बहू नहीं, सखा, सहेली, बेटी सब कुछ है।” संध्या प्यार भरी मुस्कुराहट देती हुई कहती है।
“हाय, आपकी यही अदा तो दिल का चैन लूट ले जाती है।” दीपिका घूम कर संध्या के गलबहियाॅं करती हुई कहती है।
“लो भैया की हिरोइन जाग गई।” विनया जोर से हॅंस पड़ी थी।
“अगर सास बहू का प्रेमालाप हो गया हो तो इस पापी पेट के लिए भी कुछ दे दो माई।” सौरभ किचन के दरवाजे पर खड़ा था।
“बस बस बेटा अभी लाई।” संध्या दीपिका को खुद से अलग करती हुई कहती है।
“एक जगह बैठा नहीं जाता ना तुमसे भैया।” दीपिका की ओर देखती विनया सौरभ को संबोधित करती हुई चंचलता से कहती है।
“किसी ने अभी अभी हमारा नाम लिया था और उसी डोर से खींचे हम चले आए थे बालिके।” सौरभ रसोई के अंदर आता हुआ कहता है।
“जी नहीं किसी ने नाम नहीं लिया था। ये लो”…प्लेट को पोहा से भर कर सौरभ की ओर बढ़ाती हुई विनया कहती है।
“ओह हो, हीरो हिरोइन की बात किसी ने तो किया था।” खड़े खड़े ही चम्मच में पोहा भर कर मुॅंह में डालते हुए सौरभ कहता है।
“चलो बाहर सब”… प्लेट में पोहा डाल कर ट्रे में रखती हुई संध्या कहती है।
“दीपिका बेटा जूस लेती आना।” कहती संध्या सौरभ के साथ डाइनिंग हॉल में चली गई।
“हो गई तुम लोग की मंत्रणा, किस निष्कर्ष पर पहुॅंची तीनों देवियाॅं?” पोहा का प्लेट अपने सामने रखते हुए विनया के पापा संध्या की ओर देखकर पूछते हैं।
हमने सोच है बड़ी बुआ के बेटे बहू को विनया अपने घर बुलाए और”….. सांध्य विस्तार से उन्हें सब कुछ बताती है।
“बेटे बहू तक तो ठीक है, लेकिन ये देख लो कि समधन जी की इमेज खराब ना हो जाए।” विनया के पापा जूस के एक घूंट के साथ कहते हैं।
“उस घर की सर्वेसर्वा समधन जी हैं, उस घर की बैक बोन समधन जी हैं, हमें लगता है मनीष और समधजी को उनकी अहमियत बताने का यही एक तरीका है।” संध्या कहती है।
“ठीक है हमारी जहाॅं जरूरत लगे, बता देना।” जूस खत्म करते हुए विनया के पापा कहते हैं।
“जी बुआ अगले हफ्ते भैया भाभी आ जाएंगे। आप चिंता ना करें बुआ, अगर मुझे आपकी आवश्यकता लगी तो जरूर कहूंगी। जी बुआ, बस आज ही दोपहर तक घर के निकलूंगी।” विनया सुलोचना से कह रही थी।
“बेटा, दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। इसीलिए अगर समधन जी ना नुकूर करें तो हार मत मानना, उन्हें मनाने का प्रयास करना और ना हो तो सुलोचना बुआ से बात करा देना।” बैग में कपड़े जमाती विनया से संध्या कहती है।
आरती झा आद्या
दिल्ली
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Beautiful story 👏🏻👏🏻👏🏻👌🏻👍🏻
Aap logon ne aj story upload kyo nahi ki please bhag 22 jaldi upload kijiye
Next part
22 bhag jaldi upload karo
Itna late kyu krte ho aap log