आज मन बहुत ज्यादा बेचैन है।कुछ बातें, कुछ सवाल बहुत ज्यादा ही परेशान कर रहे हैं। सोचा अपने मन की बेचैनी यहां पर शेयर करूं तो शायद कुछ सवालों के जबाव मिल जाएं…
दो दिन पहले शाम को किसी काम से पास की मार्केट में जाना हुआ तो वहां से पैदल ही वापिस घर आ रही थी..संध्या का समय हो गया था..आते आते जिस गली से निकली हर तीसरे या चौथे घर के बाहर दिया जल रहा था..ये भी अच्छी तरह से जानती हूं कि अमावस के दिन श्राद्ध का आखिरी दिन होता है तो इस दिन सभी पितरों को विदा करना होता है इसीलिए संध्या के समय ये दिया जलाया जाता है।
ऐसा बिल्कुल नही कि मैं इन बातों को मानती नही या follow नही करती। मैं भी एक हिंदू परिवार में जन्मी और हिंदू परिवार की बहू होने के नाते सभी रीति रिवाजों को अच्छे से निभाती हूं।केवल श्राद्धों में ही क्यों.. मैं और मेरे पति हम तो नित्य ही अपने बड़े बुजुर्गों को नमन करते हैं उनको हर रोज याद करके उदास होते हैं।
वो सब बातें एक तरफ कर दें तो मन में उठने वाले सवाल तो अपनी जगह उठते ही रहेंगे..उनका क्या..!!
हम सनातनी परिवारों में इन दिनों खूब अच्छे से हम लोग अपने बड़े बुजुर्गों के नाम से पंडितों को खूब श्रद्धा से भोजन करवाते हैं और ये मानते हैं के उनकी आत्मा की तृप्ति हो गई होगी पर सवाल ये है कि अन्य धर्मों के लोग जो श्राद्ध नही करते या इन बातों को नही मानते उनके बुजुर्गों का क्या..उनके पितरों की आत्मा क्या बिना तृप्त होते ही रह जाती होगी।
हिंदू धर्म में ही ये मानते हैं कि व्यक्ति की मृत्यु के साथ ही आत्मा दोबारा जन्म लेती है ..वो तो किसी अन्य शरीर में प्रवेश करके किसी अन्य नाम से जिंदगी जीती है।शरीर तो उसी वक्त राख हो जाता है।तो फिर कैसे हमारे बुजुर्गों की आत्मा तृप्त होती होगी।
सवाल तो कई हैं ..अपने आसपास ऐसे बुजुर्गों को भी देखा है जिनको जीते जी तो बच्चे पूछते नही ..वो बेचारे छोटी छोटी चीजों के लिए तरसते हैं।अगर घर में रहते हैं तो उन्हें अकेले एक कमरे में रहने को मजबूर कर दिया जाता है।या फिर किसी पारिवारिक समारोह में उनको शामिल न करके उनको घर की रखवाली के लिए छोड़ दिया जाता है।
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उनके अपने ही बच्चे उनके साथ बात तक करना भी जरूरी नही समझते। अगर वो किसी अपने के साथ फोन पर अपने दिल की बात करें तो भी उन्हें चार बाते अपने ही बच्चों से सुनने को मिल जाती हैं।वो बस अपने कमरे में चुपचाप या छुपकर आंसू बहा लेते हैं कि इस बुढ़ापे में कहां जायेंगे।और कोई आसरा तो है नही..क्युकी वो अपनी जिंदगी भर की जमा पूंजी तो सब अपने बच्चों को दे चुके होते हैं।
जिन मां बाप के दोनो में से एक जीवन साथी दूसरे से पहले दुनिया से विदाई ले लेता है तो दूसरे की तो जिंदगी दूभर और अकेलेपन का शिकार हो जाती है क्युकी आजकल के बच्चों के पास तो उनसे बात तक करने का समय नही है।
तो फिर मरने के बाद ऐसे मां बाप की आत्मा क्या सच में तृप्त हो जाती होगी..??
हम ऐसे परिवारों से हैं जहां जीते जी बुजर्गों की बात का मान रखा जाता है उनकी दिल से सेवा की जाती है।पर जिनके घरों के बुजुर्ग आज वृद्ध आश्रम में पहुंच गए हैं उनकी कहानी सुनकर तो आंसू ही रुकने का नाम नही लेते।एक दो बार ऐसे ही किसी अवसर पर वृद्ध आश्रम जाना हुआ तो बस क्या ही बताऊं..बहुत दिन तक मन भारी रहा.. कि क्या इसी दिन के लिए हम लोग भगवान के आगे संतान के लिए नाक माथा रगड़ते हैं..
और आजकल के कल्चर में ये शायद फैशन,या जरूरत या देखा देखी..अधिकांश घरों के बच्चे पढ़ाई या काम के सिलसिले में विदेशों को पलायन कर रहे हैं। बेहतर भविष्य या अधिक पैसे के लिए जो बच्चे यहां एक ग्लास पानी भी खुद नही पीते वो वहां क्या क्या काम करते हैं सभी जानते हैं और जो एक बार विदेश जाते हैं वहीं के होकर रह जाते हैं।जिन मां बाप ने दिन रात मेहनत करके अपने बच्चों के लिए बड़े बड़े घर बनाए होते हैं वो बेचारे बुढ़ापे में अकेले रहने को मजबूर होते हैं
या फिर जब खुद कुछ करने लायक नही रहते वो नौकरों के आसरे जिंदगी बिताते हैं और कई तो आखिरी समय में अपने बच्चों का मुंह देखने को तरसते हुए अपने आखिरी सांस लेते हैं लेकिन बच्चे उनसे मिलने और कई तो आखरी रस्मों में भी नही आ पाते।या फिर एक साथी के जाने पर दूसरे को मजबूरन बच्चों पास जाना पड़ता है और जाते जाते वो खूब चाव से बनाई अपनी गृहस्थी के सभी समान कोडियों के भाव बेच देते हैं या फिर ऐसे ही बांट देते हैं कि अब इनकी क्या जरूरत..और बड़े बड़े घर या तो उजाड़ हो जाते हैं या फिर उनमें नौकरों के परिवार रहते हैं।
अब सवाल ये है कि विदेश में रहने वाले या दिन रात काम की शिफ्ट लगाने वाले ये बच्चे क्या कभी अपने मां बाप का श्राद्ध कर पाएंगे..??
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या फिर बहुत सी अन्य बातों की तरह ये सब भी हमारी पीढ़ी तक ही सिमट के रही जायेगा..तो फिर क्या हमारी पीढ़ी..या जिनके बच्चे विदेशों में बस गए हैं क्या उनकी आत्मा अतृप्त ही रह जायेगी..
ऐसे बेटे जो मां बाप के जीते जी तो ये कहते हैं कि उनके घर में मां या बाप के लिए जगह नही है..तो फिर मरणोपरांत उनकी आत्मा की शांति के लिए..तेरहवीं पर,या 17दिनो पर ,या श्राद्ध पर पंडितों को भोजन करा कर शायद अपने कर्मो का प्रायश्चित तो कर ले पर उनके बड़ों की आत्मा को शांति तो शायद ही मिले। फिर चाहे भोजन कराने के लिए कौवे ढूंढते रहो..इन दिनों बहुत सी रचनाओं को पढ़कर और भी उदास हो जाती हूं। कि जैसे बहू बेटा मां का श्राद्ध तो खूब जोर शोर से कर रहे है लेकिन पिता कमरे में दोपहर तक भूख से तड़प रहा है क्युकी उसको भोजन पंडित जी के बाद ही मिलेगा फिर चाहे शुगर के कारण उसकी तबीयत ही खराब हो जाए..या फिर अगर कौवे ने भोजन नही खाए तो पितरों की आत्मा तृप्ति नही होगी…क्या सच में ऐसा है..
बहुत कुछ मन में चल रहा है..बहुत से सवाल हैं जो अनसुलझे है।बस सोच सोच के रह जाती हूं और अपनी सामर्थ्य अनुसार अपना धर्म निभाने का प्रयास हमेशा रहता है।
कृपया कोई मेरी बातों को अन्यथा न लें।सभी बच्चे गलत नही होते..अपवाद हर जगह होते है।जो अपने आसपास होते देखा..या जो दिल दिमाग ने कहा उसे बस शब्द दे दिए..!!
धन्यवाद
रीटा मक्कड़