अनाम – सुधा शर्मा     

 अचानक सामने कुमार और रोहित को देखकर मै चौंक गयी । मैंने प्रश्न वाचक निगाहो  से दोनों की तरफ देखा मुँह से आवाज़ तक नहीं निकली। फिर कुमार की ओर मुखातिब हो कर कहा,’आप? क्या बात है?” इससे पहले कि कुमार कुछ कहते रोहित बोल उठा,”माँ,उनसे मत कहो कुछ मैं उन्हें यहाँ लाया हूँ ।”    अब तो मेरी  हिम्मत बिलकुल जवाब दे गयी । मै धम से सोफे पर बैठ गयी और अपनी आँखे बन्द कर ली।

रोहित मेरा इकलौता बेटा था। जब वह तीन साल का था एक एक्सीडेंट में 

उसके पिता चल बसे थे।स्कूल में अध्यापिका थी मै। टयूशन के बहुत बैच लगाती थी।उसको किसी लायक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।आज वो अमेरिका में पत्नी ,दो बच्चों  सहित बहुत सुखद जीवन बिता रहा है। 

पिछले साल मै रिटायर हुई तब से दोनों ने मुझे वहां ले जाने का बहुत प्रयत्न किया था ।पर  मैं किसी तरह तैयार नहीं हुई।      

उन्हीं दिनों मै पत्रिकाओं में कहानियाँ भेजने लगी। मेरा पुराना शौक था यह। इसी दौरान रचनाओं के माध्यम से मेरा परिचय कुमार से हुआ । फिर अक्सर फोन पर बात होने लगी । बहुत अच्छा लिखते थे । उनकी रचनाएं पढना बहुत अच्छा लगता था।   

 प्रशासनिक अधिकारी  के पद से सेवानिवृत्त हो चुके थे । पत्नी का स्वर्गवास हो गया था । अकेले थे लिखने पढने में रूचि रखते थे ।               रोज उनसे बात होती थी  । कितनी कविताए भेजते थे। मिलें बिना ही लगने लगा था जैसे कितनी पुरानी पहचान है ।         



एक बार जब मैने कहा,”आप बहुत अच्छा लिखते हैं ।आपकी बहुत बडी प्रशंसक हूँ मै।’ उन्होंने कहा,”यही तो मुश्किल है सब मुझसे लेखक समझ कर ही बात करते है मै व्यक्ति भी तो हू।”         पता नहीं क्यों उस दिन मेरे मन को उनकी बात छू गई । मेरे मुंह  से  निकला  ,” चलिए मै आप से लेखक  समझ कर नहीं, व्यक्ति समझ कर बात करती हूँ ।” 

फिर वो इतना ख़ुश हुये और उनहोंने अपने मन की जो 

भावनाए प्रकट की , मै उनसे प्रभावित हो गयी पता ही नहीं चला कैसे मन को छूने वाली उनकी कविताओं ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया ।                   मेरे साथ तस्वीरों का आदान-प्रदान करते। मेरी पुरानी फोटो मँगाई। बोले,”तुम कितनी सुन्दर हो ।कहाँ थी? मुझे क्यों नहीं मिली ।”          बस ऐसे ही कल्पनाओ की दुनिया में समय गुजर रहा था।

रोहित एक हफ्ते के लिए  अमेरिका से आया था ।दो दिन के लिए काम से दिल्ली गया था ।आज लौटा कुमार के साथ ! 

रोहित ने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा,”क्या बात है माँ? तबियत तो ठीक है ।” मै कुछ नहीं बोली ।  

    ,”  देखो माँ  बरसों  से तुमने अनगिनत दुख उठाये हैं । क्या तुम्हे खुशी पाने का अधिकार नहीं है? अब तुम कुछ नहीं बोलोगी।मैंने सब कुछ सोच लिया है। यह मेरा निर्णय है ,तुम्हे मानना ही होगा ।”    

और फिर मै कुछ समझ पाती इससे पहले मेरा सामान कुमार की कार में  रखा जा चुका था । चलते समय मुस्कुरा कर बोले कुमार,” चिन्तित मत हो इस अनाम रिश्ते को हम नाम  दे देंगे आज ही घर पहुँच कर ।”     

मेरा मन अपने बेटे रोहित के लिए स्नेह से भीग गया।      

#अपने_तो_अपने_होते_हैं     

मौलिक स्वरचित     सुधा शर्मा

 

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