महेश कुमार जी को अपनी पत्नी के देहांत के बाद अपने बेटे बासु के साथ शहर आना पड़ा क्योंकि पत्नी के जाने के बाद वे एकदम अकेले हो गए थे.
अब बेटा ही था जिसके वो साथ रह सकते थे,और उनकी इस उम्र में सही से देखभाल हो सकती थी . उनके बेटे ने शहर आकर महेश जी को उनका कमरा और बालकनी दिखाई और कहा “पापा आप कुछ समय यहां बालकनी में सूकून के साथ बैठ सकते हैं, अखबार पढ़ सकते हैं, आपका मन लगा रहेगा और देखो पापा मन तो आपको लगाना ही पड़ेगा”.
महेश जी भी अपना मन लगाने की पूरी कोशिश करते लेकिन बुढ़ापे का एकांकीपन उन्हें खाए जाता था . आस-पास कोई बोलने वाला भी नहीं था. बेटा और बहू अपने काम में लगे रहते,उनकी किसी खास काम के लिए उनके पास वक्त नहीं होता. हालांकि उनकी खाने पीने की तो समुचित व्यवस्था थी,लेकिन बुढ़ापे के वृक्ष में खाने पीने से ज्यादा स्नेह और प्रेम की खाद की जरूरत होती है.
उनकी प्रेम की भूखी आंखें हमेशा अपने लिए उस प्रेम की तलाश में रहती, जो बिन कहे उनकी व्यथा को समझ सके, उनका दर्द समझ सके, वे एक ऐसा रिश्ता चाहते, जो उन्हें वो निश्चल प्रेम और सम्मान दे सके जो बचपन में एक मां देती है और शादी के बाद जीवन भर जीवनसंगिनी.चूकिं इस उम्र और इन परिस्थितियों में दोनों ही बातें संभव नहीं थी, इसलिए वे हमेशा खिस्याये हुए और बुझे बुझे से रहते .
कभी कभार पोते के साथ मन बहला लिया करते ,लेकिन वह भी अक्सर स्कूल की पढ़ाई में लगा रहता , और एक छोटे बच्चे के साथ आखिर वह कितना वक्त बिता सकते थे, आजकल के बच्चों को तो वैसे भी स्कूल के काम और फोन से फुर्सत ही नहीं है.
दिन में या रात में जब सब घर में आराम कर रहे होते तो अक्सर उनकी आंखें दिल के बोझ से बोझिल हो जाती, दिल का दर्द आंखों से आंसू बनकर निकलता और गालो तक अपनी राह बना कर निकल जाता . इस तरह से उनके दिन और रातें कट रहे थे. वैसे भी बुढ़ापे की सबसे बड़ी समस्या नींद का कम हो जाना होता है.
उनकी बालकनी के सामने वाले फ्लैट में भी शायद कोई नहीं रहता था, क्योंकि अक्सर वो बन्द ही रहती .
कुछ समय बाद उनके सामने वाली बालकनी में कोई रहने आ गया . उसमें एक सभ्य व संभ्रांत महिला दिखाई दी जो लगभग उन्हीं की उम्र की थी .
उन संभ्रांत महिला ने अपनी कामवाली को कुछ समझाया ,कुछ पौधे लगवाए कपड़ों के सुखाने के लिए रस्सी बधंवाई और एक आराम चेयर और एक छोटा सी मेज लगवा दी . इस तरह वो वीरान सी दिखने वाली बालकनी अब संजीव हो उठी. किसी के होने का एहसास देने लगी.
महेश जी और उन संभ्रांत महिला का आपस में गर्दन के इशारे से अभिवादन हुआ, क्योंकि दोनों बालकनी में दूरी ज्यादा थी, इसलिए इशारे से ही बातें हो सकती थी, और यूं भी तेज बोलकर बातें यहां शहरों में कहां हो पाती है. यहां तो हर इंसान अपने आप में मग्न है, आसपास की किसी को कोई खबर ही नहीं है.
अब तो महेश जी को अपनी बालकनी अच्छी लगने लगी,वे अब आराम से बैठ अखबार पढ़ते.
सामने वाली बालकनी मे छाई हुई वीरानी अब बसंत का रूप ले चुकी थी, तुलसी का पौधा उनकी ईश्वर के प्रति आस्था को दर्शाता तो मनी प्लांट की वेल व छोटे फूलों के पौधे जिन्दगी की सजीवता को दिखाते.वह संभ्रांत
वैसे भी स्त्रीयों को ईश्वर का वरदान प्राप्त है कि वे चाहे जहां घर बसा सकती है, उसे स्वर्ग का द्वार बना सकती हैं, बसन्त ला सकती हैं , वीरानियां को बदलकर बगिया खिला सकती है.
स्त्रीयां घर के आस पास एक सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करती है. वह संभ्रांत महिला जब कभी पौधों को पानी देते समय भजन गुनगुनाती तो उसकी आवाज तो महेश जी तक नहीं आती, लेकिन उस भजन का एहसास उन्हे कुछ भीतर तक होता, धीरे-धीरे वो अपना एकांकीपन भूलने लगे,रातों को भी उन्हें अब थोड़ी चैन की नींद आने लगी,क्योंकि उन्हें एहसास होता कि कोई है जो सुबह उन्हें मिलेगा , किसी से अभिवादन होगा और एक खुशनुमा सुबह उनका भी इंतजार कर रही है.
बस इस तरह उन दोनो का रोज आंखों से व गर्दन के इशारे से आपस में अभिवादन होने लगा. संवाद कभी न होता. महेश जी अब फिर से जिंदगी को जीने लगे थे.
वे उन महिला को कभी वहां सब्जी साफ करते देखते,कभी पौधों में पानी देते हुए देखते , कभी अचार सुखाते तो कभी स्वेटर बुनते, दोनो का आपस में कभी संवाद नहीं होता बस एक एहसास होता है कि उनके आसपास भी कोई है…….
उन महिला की एक प्यारी सी पोती भी थी जिससे वो कभी कभी इशारों में ही महेश जी को नमस्ते करवाती.जिससे उन्हें और अपनापन महसूस होता.
बस इस तरह दोनो में एक प्यारा सा “अनकहा रिश्ता” बन गया.
यूं ही धीरे धीरे दो वर्ष गुजर गए, एक दिन महेश जी ने देखा कि उन महिला ने ना ही उस दिन दीप जलाया ना ही पौधौ को पानी दिया. बस आकर आराम कुर्सी पर ऐसे ही बैठ गई ,महेश जी को लगा शायद तबीयत खराब है, उन्होंने इशारों से पूछा “क्या हुआ “
उन्होंने भी इशारे से जवाब दिया “सब ठीक है”,लेकिन दो-चार दिन में उन महिला का बालकनी में आना भी कम होता गया.
कुछ दिन पश्चात ,अब कई दिनों से वो महिला महेश जी को दिखाई नही दे रही थी, उन्हें लगा शायद कहीं बाहर गई होंगी, लेकिन जब कई दिन हुए वे नहीं दिखाई दी ,और उनके लगाये पौधे सूखने लगे ,उनकी लगाई मनीप्लांट की बेल सूखने लगी तो वे चिंतित हो उठे ,उनका मन बैचेन हो उठा.
लेकिन पूछें तो किससे पूछें ? महेश जी को बहुत चिंता हुई ,उनका अब मन किसी भी काम में नहीं लगता.
फिर एक दिन वही काम वाली बालकनी में दिखाई दी, जो पहले दिन उन महिला के साथ आई थी ,वह आई और बालकनी की सफाई करने लगी महेश जी से रहा नहीं गया तो उन्होंने इशारो से पूछा कि “वे कहां है “?
उसने भी इशारों से हाथ ऊपर करके जवाब दिया कि “वे अब नहीं रही “.
महेश जी का दिल धक से रह गया ,उन्होंने उस अकेली पड़ी आराम कुर्सी की तरफ देखा और फिर एक बार वो अपने आप को अकेला महसूस करने लगे.
उनका वो प्यारा सा “अनकहा रिश्ता” अनकहा ही रह गया….
अपनी कलम से
ऋतु गुप्ता
खुर्जा बुलंदशहर
उत्तर प्रदेश