अनकहे जवाब – संध्या त्रिपाठी : short story with moral

Moral Stories in Hindi : बाप रे ठंडी में इतनी सुबह-सुबह ….पालक , बैगन , टमाटर …ले लो ….मैं अभी बिस्तर से उठी भी नहीं हूँ और वह दूर गाँव से आकर सब्जी भी बेचने लगी…!

बिस्तर पर लेटे-लेटे तेजस्वी के कानों में सब्जी बेचने वाली की आवाज सुनाई दी …चलो उठ ही गई हूँ …तो ताजा ताजा पालक खरीद लेती हूं …आज दाल में पालक डालकर बनाऊंगी..! जब भी पालक वाली दाल बनाती हूं सासू मां की बहुत याद आती है ….. वो हमेशा कहतीं …देखो घी में लहसुन मिर्च अच्छे से डालना और लहसुन को भूरा होने तक पका लेना… तब दाल में छौंका लगाना ….मां जी आपकी छोटी-छोटी हिदायतें … सच में दाल को बहुत स्वादिष्ट बना देती थी …धीमी आंच पर सब्जी बनाना , मसाले अच्छी तरह भूना है या नहीं …सच में माँ जी आप ना कमाल की थीं… आज तो हमारे एक हाथ में मोबाइल एक हाथ में कलछी …आप देखतीं ना ..तो पक्का बहुत गुस्सा होतीं….।

अरे , मैं किन ख्यालों में खो गई , कहीं वो सब्जी बेचने वाली आगे निकल ना गई हो ….थैंक्सगॉड..सामने वाले घर में वो सब्जी बेचने के लिए रुकी है….

बाई पालक कैसे दिए…? चालीस रुपये किलो …! चालीस रूपये किलो …?? आदतन तेजस्वी ने उसी के जवाब को प्रश्न के रूप में बदल दिया …इतना महंगा..? तीस रूपये किलो लगा… नहीं मेमसाहब ..पैंतीस लगा दूंगी… अच्छा चल एक किलो तौल दे…. वो अभी पालक अपनी डलिया से निकाल ही रही थी , तब तक तेजस्वी ने कहा …कीड़े तो नहीं लगे हैं ना ..और खुद ही बंडल में बंधे पालक छाँटने लगी..। नहीं मेमसाहब, एकदम ताजा है फिर सब्जी बेचने वाली ने छंटे हुए पालक तराजू में तौल कर तेजस्वी द्वारा लाए टोकरी में डाल ही रही थी ..इसी बीच तेजस्वी ने फिर कहा अच्छे से तौलना सोने के समान मत तौलना…।

सब्जी बेचने वाली ने एक बार तराजू की तरफ और एक बार तेजस्वी की तरफ ऐसे देखा …जैसे कह रही हो आप भी तो मिट्टी के भाव खरीदना चाह रही हैं मेमसाहब ।

आज तेजस्वी के क्रियाकलापों और हाव-भाव को सब्जी बेचने वाली ने “अनकहे जवाब ” दे दिया था ।

तेजस्वी ने बीस – बीस के दो नोट दिए …उसके पास ₹5 का छुट्टा नहीं था …वो इधर-उधर बगले तांकने लगी ..।

चूँकि तराजू के जिस पलड़े पर पालक था ..वह झुका हुआ था… मतलब उसने तौलने में कंजूसी नहीं की थी… इसलिए तेजस्वी ने एहसान करते हुए कहा ….चल रख ले …उसने तुरंत , खुद्दारी व स्वाभिमान से कहा… मेमसाहब ” ऐसे नहीं…”

उसने तुरंत अपने डलिया में से एक मुट्ठी पालक और डालते हुए एहसान लेने से इनकार किया । आज पहली बार तेजस्वी सोचने पर मजबूर हो गई… इससे पहले ऐसी छोटी-मोटी चीजें खरीद कर , मोलभाव कर ..दो पैसे बचा कर कितनी खुश होती थी वो…. पर आज अचानक बीती यादें उसे … जिस पर वह खुश होती थी वो ही झेंप महसूस करा रहीं थी…।

आज न जाने क्यों तेजस्वी के दिमाग में दिनभर वो सब्जी वाली का चेहरा सामने आ रहा था …उसकी खुद्दारी ,उसकी मेहनत ,उसकी ईमानदारी …के आगे तेजस्वी खुद को बौना महसूस कर रही थी ..।

पढ़ी-लिखी तेजस्वी को एक अनपढ़ महिला ने आज वो पाठ पढ़ा दिया जो शायद कुछ डिग्रियां भी ना सीखा सकी थीं..।

वाह ..आज पालक वाली दाल बहुत अच्छी बनी है …मम्मी की याद आ गई….. हां ओजस …और तेजस्वी ने ओजस को पूरा वाक्या सुनाया…! चलो आज के बाद जब भी पालक वाली दाल बनेगी मम्मी के साथ उस अनजान सब्जी बेचने वाली महिला की भी याद आएगी ….जिसने जीवन में.. कब , कहां कैसे ..पैसे खर्च करना है या कहां पर पैसे बचाना चाहिए… अच्छे से सिखा दिया ।

साथ ही साथ स्वाभिमान ,खुद्दारी मेहनत, ईमानदारी के अध्याय का लाभ तो ब्याज के रूप में हमें मिला ही… वो अलग…. और दोनों पति-पत्नी मुस्कुराते हुए स्वादिष्ट दाल का आनंद लेने लगे ।

( स्वरचित मौलिक अप्रकाशित और सर्वाधिकार सुरक्षित रचना )

श्रीमती संध्या त्रिपाठी

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