अनकहा दर्द – सुनीता मुखर्जी “श्रुति”: Moral Stories in Hindi

अम्मा! ओ अम्मा! दरवाजा खोलो!….खोलो न अम्मा!  बस तुम्हें एक नजर देखना चाहती हूं!!! सुरभि घर का गेट पकड़ कर लगातार बोलकर रोये जा रही थी। शायद वह भूल गई कि गेट में एक मोटा सा ताला लगा हुआ है। 

संजय जी एवं सुकन्या के तीन बेटे एवं एक बेटी थी। तीन बेटों के बाद इकलौती एवं छोटी होने के कारण सुरभि सभी की बहुत ही लाडली थी। संजय जी पोस्ट आफिस में पोस्ट मास्टर थे। कुछ महीने पहले ही वह रिटायर हुए। सभी बेटों के विवाह हो चुके थे उनके छोटे-छोटे बच्चों से पूरा घर गुलजार रहता। सुरभि भतीजा, भतीजी के साथ उछलती कूदती चहकती रहती। 

कुछ दिनों के बाद सुरभि का विवाह अर्जुन के साथ हो गया। वह एक बैंक मैनेजर थे।  सुरभि अपने ससुराल जाकर सुखी और खुशहाल जिंदगी व्यतीत करने लगी। धीरे-धीरे सुरभि दो बच्चों की मां बन गई। सारा दिन व्यस्त अपनी गृहस्ती में रमी रहती। 

संजय जी और सुकन्या अपने खुशहाल उपवन से बहुत खुश एवं संतुष्ट थे। बेटों के अपने – अपने बिजनेस दूसरे शहरों तक फैले हुए थे इस कारण तीनों बेटा अलग-अलग शहरों में रहने लगे।

एक दिन अम्मा रात को सोई फिर उठी नहीं। खबर सुनकर भाई-बहन दौड़े- दौड़े आए। “यही तो परिवार होता है कोई कहीं भी रहे, लेकिन सुख-दुख में सब एक साथ होते हैं।” अम्मा के जाने का गम सभी को था लेकिन सुरभि अपने आप को संभाल नहीं पा रही थी। नियत समय पर सब क्रिया कर्म पूर्ण करने के पश्चात सभी लोग अपने-अपने घर वापस चले गए। संजय जी छोटे बेटे के साथ रहने लगे। इस आलीशान बिल्डिंग में एक ताला लग गया और सुरक्षा के लिए चारों तरफ सीसीटीवी कैमरे।

सुरभि वापस लौटकर अपने घर आयी लेकिन उसका मन कहीं नहीं लगता था। दिन रात मम्मी की यादें उसके आसपास संगी बनकर रहने लगी। अर्जुन ने सुरभि को बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन…. सुरभि पर कोई असर नहीं हुआ, हमेशा गुमसुम सी रहने लगी। अम्मा के चले जाने के बाद भाइयों ने सुरभि को अपने पास कई बार बुलाया लेकिन सुरभि को कहीं जाने का मन ही नहीं करता था। उसकी जड़ें तो उस घर से जुड़ी थी जिसकी बुनियाद अम्मा ने रखी थी। वह घर और उसमें बिताए हुए दिन उसे भुलाये नहीं भूलते। 

उसे अभी भी याद है कि जब अम्मा मामा के घर जाती थी तो सुरभि पीछे लग लेती। तीनों भाइयों की पढ़ाई के कारण पापा जाने नहीं देते थे, बेचारे तीनों मन मारकर कर रह जाते। लेकिन सुरभि की जिद के आगे किसी की एक न चलती, अम्मा हारकर सुरभि को साथ लेकर जाती।

अर्जुन ऑफिस चले जाते, बच्चे स्कूल… इसके बाद वह अपना वक्त, बीते हुए समय को याद करने में गुजार देती। लोगों से मिलना-जुलना, हंसना- बोलना उसे बहुत पसंद था..लेकिन अब वह किसी से मिलना- जुलना, बात करना बिल्कुल पसंद नहीं करती थी। ऐसा लगता है कि अम्मा के साथ ही उसका वह खिला हुआ चेहरा भी चला गया। उसने गंभीरता की ऐसी चादर ओढ़ ली, जिससे वह चाह कर भी बाहर नहीं निकल पा रही थी।

अर्जुन से सुरभि की यह हालत देखी नहीं जा रही थी उसे डर था कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। एक दिन वह सुरभि से बोला … मेरी बात ध्यान से सुनो! इस दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है जो नष्ट नहीं होगी। चाहे वह कोई वस्तु हो, या मनुष्य!! जो इस दुनिया में आया है उसे जाना ही पड़ेगा यही प्रकृति का नियम है। क्या हुआ अम्मा चली गई?? तुम्हारे भैया, भाभी और पापा तो है ?? तुम्हारा जब दिल करे उनसे मिलने चली जाओ,  लेकिन सुरभि के ऊपर तनिक भी असर नहीं हुआ।

“एक दिन सुरभि अर्जुन से बोली कि मैं अपने घर जाना चाहती हूंँ।” तुम दोनों बच्चों को संभाल लेना, जल्दी वापिस आ जाऊंगी। लेकिन घर पर तो कोई नहीं है अकेले तुम वहां जाकर क्या करोगी अर्जुन ने कहा?

सुरभि कुछ नहीं बोली दूसरे दिन वह अपने घर जाने के लिए निकल गई। उसे पता था कि उस घर में अब कोई नहीं रहता फिर भी उसके कदम घर देखने के लिए निकल पड़े। 

पहले वह जब भी घर आती अम्मा चौराहे पर आकर बेटी के आने का इंतज़ार करती थी। सुरभि वहीं गाड़ी से उतरकर मां के गले लग जाती और खुशी से बुदबुदाते हुए कहती घर ही तो आ रही थी?? फिर तुम यहां तक चलकर क्यों आई? अम्मा ममतामई मुस्कान बिखरते हुए कहती बिटिया तुम्हें देखने की ललक यहां ले आती है। घर में सब्र नहीं हो रहा था लगता कब तुझे देखूं??  

आज वही चौराहा निकल गया जहां चारों तरफ उसकी निगाहें कुछ तलाश कर रही थी। ऑटो रिक्शा उसके घर के सामने आकर रुका। वह एक ट्रॉली बैग लेकर नीचे उतरी और ऑटो वाले को पैसा देकर छोड़ दिया।  ट्रॉली बैग वहीं रोड पर रख घर के गेट को लगातार हिलाए जा रही थी। रोते-रोते अम्मा दरवाजा खोलो…खोलो न अम्मा !! काफी देर तक गेट पकड़ कर हिलाती रही। थोड़ी देर बाद अम्मा की दो-तीन सहेलियां दौड़ती हुई आई, और बोली- बेटा!! तुम्हारे घर में तो ताला बंद है। चलो बेटा! तुम मेरे साथ मेरे घर चलो। सुरभि बोली नहीं मैं अपने घर जाना चाहती हूंँ वह गेट को हिलाती रही और अम्मा! अम्मा! चिल्लाती रही। उसे ऐसा करते देख आसपास खड़ी महिलाओं के आंखों में भी आंसू आ गए।

एक आंटी जोर जबरदस्ती अपने घर ले गई और उसे चुप कराने लगी…. “बेटा तुम्हारी मम्मी नहीं है तो क्या हुआ हम सब तो तुम्हारी मम्मी की सहेली है।” तुम जब तक चाहो इस घर में रहो। सुरभि थोड़ा चुप हुई और बाहर निकल गई। अपने घर के बाहर नीम के पेड़ के नीचे आकर बैठ गई। हल्की- हल्की हवा चल रही थी। लग रहा था कि उन हवा के झोंको के साथ अम्मा गले लगकर मुझसे लिपट रही थी। सोचने लगी कि सब कुछ तो वैसा ही है सिर्फ अम्मा नहीं हैं। सभी अपने-अपने कामकाज में व्यस्त है। वक्त किसके लिए रुकता है??

थोड़ी देर में उसने अपने कंधों पर हल्का सा दबाव महसूस किया, पलट कर देखा आंटी खड़ी थी। चलो बेटा! हाथ मुंह धो लो खाना तैयार हो गया है उनके शब्दों में अम्मा की वाणी लग रही थी। 

उस दिन वह यादों के पालने में झूलते- झूलते थककर आंटी के साथ सो गई। उसे महसूस हो रहा था जैसे वह अपनी अम्मा के साथ सोई है उस दिन उसे बहुत सुकून की नींद आई। सुबह उठकर वह बालकनी में गई जहां से उसका घर स्पष्ट दिखाई देता है। उसने देखा दो गाड़ियां उसके घर के बाहर खड़ी है और तीसरी गाड़ी आकर रुकी जिसमें छोटे भैया, भाभी,भतीजा, भतीजी और सुरभि के बच्चे नीचे उतर रहे हैं। उससे रहा नहीं गया वह दौड़कर नीचे गई और छोटे भैया के गले लगकर जोर-जोर से रोने लगी। बाहर का कोलाहल सुनकर पापा दोनों बड़े भैया भाभी अंदर से निकलकर बाहर आ गये। सुरभि पापा के गले लगकर बहुत सुखद अनुभव कर रही थी।

भैया आप लोगों को कैसे पता चला कि मैं यहां आई हूंँ? तुम्हारे निकलने के बाद अर्जुन का फोन आया था उनसे ही तुम्हारे बारे में पता चलता रहता है, और मेरे प्यारे बहनोई जी ने ही बताया कि तुम घर आयी हो। सुरभि तुम हमारी छोटी बहन के साथ-साथ सबकी बहुत ही चहेती हो हम सब को तुम्हारी बहुत फिक्र रहती है, भला तुम्हें अकेले कैसे छोड़ देते? 

मां के जाने का गम हम सबको है, फिर भी हम लोग अपने कामकाज में व्यस्त हो गए हैं। तुम भी अपनी पुरानी यादों से निकलकर बाहर आओ।

पापा को देखो वह एक पल भी अम्मा से दूर नहीं रहे लेकिन अब वह  रह तो रहे हैं ना!! हमें आपस में मिलकर एक दूसरे को संभालना है और अपने दर्द  को एक दूसरे से बांटना है। हमारी छुटकी बहन खुश रहेगी तो हम सब लोगों को भी बहुत खुशी होगी।

चलो बेटा! घर के अन्दर चलो! पापा ने बहुत आत्मीयता से कहा। घर घुसने के बाद सुरभि हर चीज को बहुत ध्यान से देख रही थी और हाथ लगाकर सामान को सहला रही थी। उसे लग रहा था जैसे उसमें अम्मा का स्पर्श बसा हो। घर की हर चीज में उसे अम्मा के होने का एहसास होता। 

तीनों भाभियों ने सुरभि को बिठाकर समझाया तुम इस घर की प्यारी बेटी रही हो और हमेशा रहोगी। हम सब तुम्हारे अपने हैं। कभी अपने आप को अकेला मत

समझो । तुम अम्मा के लिए जितना परेशान रहोगी अम्मा की आत्मा भी उतना ही तड़पेगी, इसलिए तुम अपने आप को संभालो। 

छोटे भतीजा, भतीजी सब बुआ को पकड़कर खींचने लगे चलो बुआ!!  हम लोगों के साथ खेलों। जैसे पहले खेलती थी वैसे ही। सुरभि ने बच्चों का दिल दुखाना उचित न समझा और उनके साथ खेलने लगी। खेल-खेल में सुरभि बहुत जोर ठहाका मारकर हंसी, उसकी हंसी देखकर उसके दोनों बच्चे अपनी मम्मी से आकर लिपट गये। आज बहुत महीने के बाद बच्चों एवं घर वालों ने सुरभि को हंसते हुए देखा था। घरवाले बेटी को हंसता हुआ देखकर बहुत खुश हुए।

बच्चे अर्जुन को फोन कर बता रहे थे  पापा आज मम्मी खूब जोर से हंसी है। अर्जुन ने राहत की सांस ली। कुछ दिन घरवालों के साथ रहने के पश्चात  सुरभि थोड़ा नॉर्मल हुई और अब पहले जैसी हंसने मुस्कुराने लगी।

–  सुनीता मुखर्जी “श्रुति”

स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

हल्दिया, पूर्व मेदिनीपुर पश्चिम बंगाल

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