” देख छोटी, तू अंश के सामने अपनी मनहूस सकल लेकर मत आ जाना।पूरे दो बरस बाद मेरा लाल आ रहा है, तेरा क्या भरोसा, कहीं टोटका-मंतर कर…” जेठानी सुमित्रा के तीखे शब्द और आग उगलने वाली नज़रें जानकी अब बर्दाश्त नहीं कर पाई और अपने कमरे के सूनी पलंग पर जाकर फूट-फूटकर रोने लगी। बरसों पहले जानकी जब इस घर में सुमित्रा जी के देवर हरीश की पत्नी बनकर आई थी तो बहुत खुश थी।सुमित्रा जी उसे जेठानी कम बड़ी बहन की तरह लाड़ किया करती थीं।सास की सेवा करने की उसे बड़ी इच्छा थी,लेकिन उसे वह मौका नहीं मिला।उसके यहाँ कदम रखने से छह माह पूर्व ही वे स्वर्ग-सिधार गईं थीं।वह तो अपनी जेठानी में ही सास के दर्शन कर लेती थी।हरीश अक्सर उसे बताते थें कि जब कभी माँ या बाबूजी मुझे डाँटते थें तो भाभी आकर मुझे बचा लेती थीं।भैया से छुपाकर अक्सर ही मुझे जेबखर्च भी दे दिया करतीं थीं।यही नहीं, मिठाई के शौकीन हरीश को उसकी भाभी अपने हिस्से की जलेबियाँ भी उसके प्लेट में डाल देती थीं। जानकी के ससुर की शहर के बीच बाज़ार में एक कपड़े की दुकान थी जो बहुत अच्छी चलती थी और ग्राहकों की भीड़ भी हरदम वहाँ लगी रहती थी।वे अपने बड़े बेटे दिनेश के साथ उस दुकान को संभालते थें।
स्वास्थ्य में गिरावट आ जाने पर उन्होंने जाना कम कर दिया, तब दुकान का पूरा भार दिनेश के कंधों पर आ पड़ा था।बीए करने के दो वर्षों बाद तक भी जब हरीश को कोई नौकरी नहीं मिली तब उसने भी दुकान जाना शुरु कर दिया और भाई का हाथ बँटाने लगा।जानकी के कदम इस घर में पड़ते ही दोनों भाइयों ने पास ही में एक और दुकान खोल ली थी। सुमित्रा जी का सात बरस का एक बेटा था जो अपनी चाची से बहुत हिलामिला था।चाची से कहानी सुने बिना तो उसे नींद ही नहीं आती थी।जानकी भी उसे बहुत चाहती थी।फिर उसके भी पैर भारी हुए और वह भी एक बच्चे की माँ बन गई।सुमित्रा जी ने जच्चा-बच्चा का बहुत ख्याल रखा था।
अब दोनों भाई दुकान जाते, पत्नियाँ घर संभालती और बच्चों का आपस में खेलते हुए दिन मजे से गुजरने लगे। एक दिन सुमित्रा जी का बेटा अंकित और जानकी का बेटा अंश स्कूल से वापस आ रहें थें।अंश रुककर सू-सू करने लगा और अंकित सड़क पर खेलने लगा।वह खेलने में इतना मगन था कि पीछे आती हुई ट्रक का हार्न सुनाई नहीं दिया।अंश जब तक भइया कहकर पुकारता, तब तक में तो ट्रक उस नन्हें-से बालक को रौंदकर चला गया। सुमित्रा जी गोद सूनी हो गई।अंकित के कपड़े,खिलौने और किताबें देखकर तो उनके आँसू थमते ही न थें।उनका रुदन देखकर तो सभी का कलेजा फटा जा रहा था।उस पुत्र-विहीन माँ को कोई कैसे सांत्वना देता।उनके दर्द, उनकी पीड़ा का कोई विकल्प था ही नहीं। वे जब-जब अंश को देखती तो अपने बेटे अंकित को याद कर पछाड़े खाकर गिर पड़ती थीं।उनकी स्थिति देखकर घर के तीनों पुरुष चिंतित थें कि सुमित्रा जी कहीं अपना मानसिक संतुलन न खो बैठे।जानकी उनके साथ-साथ रहती, अंश को भी कहती तू बड़ी माँ के साथ खेलाकर।
अंश के साथ सुमित्रा जी खुश रहती,लेकिन उसके जाने के बाद फिर से वे अंकित-अंकित कहकर बेहोश हो जाती थीं। एक दिन डाॅक्टर ने बताया कि सुमित्रा जी स्थिति नाजुक है तब दिनेश ने जानकी से कहा कि क्यों न हम अंश को भाभी की गोद में हमेशा के लिए डाल दें।पति की बात सुनकर जानकी क्षण भर के लिए तो मूर्तिवत हो गई।अपने जिगर के टुकड़े को…।”नहीं-नहीं ” कहकर वह पति की तरफ़ पीठ करके बैठ गई।हरीश उसे समझाने लगे, तुम्हारा अंश कहीं जा तो रहा है नहीं।यहीं,इसी घर में सदैव तुम्हारी आँखों के सामने ही तो रहेगा।क्या तुम नहीं चाहती कि भाभी फिर से, पहले की तरह हँसने-बोलने लग जाएँ। ” चाहती हूँ लेकिन अपने बेटे को कैसे…” कहते हुए जानकी की आँखें भर आई। ” कैसे क्या जानकी? भइया- भाभी कोई पराए तो नहीं।और फिर क्या पता,भगवान हमारी गोद में एक और अंश दे दे।” इसी तरह से पति-पत्नी में बहुत देर तक बातें चलती रही और फिर दोनों ने एक निर्णय ले लिया। अगले दिन अंश को लेकर जानकी सुमित्रा जी के पास गई और बोली कि दीदी, आज से अंश आपके पास ही रहेगा।
” मेरे पास ” उन्होंने आश्चर्य से पूछा तो जानकी बोली, ” हाँ दीदी, मुझसे अब ये नहीं सँभलता है।” कहकर उसने जी भर के अपने बेटे को देखा और उसके सिर पर हाथ फेरकर अपनी आँसुओं को छिपाते हुए वहाँ से चली गई।कुछ दिनों में कागज़ी कार्रवाई भी पूरी हो गई और अंश के माता- पिता का नाम सुमित्रा और दिनेश हो गया। कुछ महीनों बाद जानकी फिर से गर्भवती हुई।उसके आँगन में फिर से किलकारी गूँजेगी,यह कल्पना ही उसके लिए बहुत सुखद था।सुमित्रा जी भी बहुत खुश थीं,अंश से कहती कि तेरे साथ खेलने के लिए एक बहन आने वाली है।वे जानकी का बहुत ख्याल रख रहीं थी।उसे अधिक से अधिक आराम करने को कहती थीं पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन न जाने कैसे जानकी का पैर फिसल गया और उसका सात माह का गर्भ कोख में ही खत्म हो गया।अभी वह इस दुख से उभरी भी न थी कि डाॅक्टर ने ‘ जानकी अब कभी माँ नहीं बन सकती ‘ कहकर उसपर एक और गाज गिरा दिया।उसकी ममता घुटकर रह गई थी।शरीर का ज़ख्म तो वह दिखा सकती थी
लेकिन मन के घाव जो रह-रहकर उसे टीस दे रहें थें, उसे वह कैसे दिखाती।सांत्वना देने वाले तो कह जाते, होनी को कौन टाल सकता है ‘ लेकिन वह अपने मन को कैसे समझाए।बस, अंश को हँसते-खेलते देख अपना कलेजा ठंडा कर लेती थी। जानकी के साथ हुए इस हादसे के बाद से न जाने क्यों, सुमित्रा जी खुद को असुरक्षित महसूस करने लगी,उन्हें लगा कि कहीं जानकी अंश को उससे छीन न ले और इसी वजह से जानकी के प्रति उनका रवैया चिड़चिड़ा हो गया।बात-बात पर जानकी को टोकना और उसकी कमियाँ निकालना उनकी आदत बन गई थी।जानकी को तब बहुत दुख होता जब वो अंश को उसके साथ खेलने के लिए मना कर देती।अपनी कोख के जाये को गोद में उठाने के लिये मन मसोसकर रह जाने का दर्द जानकी के सिवा और कोई नहीं समझ सकता था। सुमित्रा जी के बदले व्यवहार से दिनेश, हरीश के साथ उनके ससुर भी अचंभित थें।दिनेश ने कई बार पत्नी को समझाने का प्रयास भी किया पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ।जानकी के ससुर घर की अशांति बर्दाश्त न कर सके और एक दिन सोये-सोये ही इस संसार से हमेशा के लिए चले गये।
अब तो सुमित्रा जी का अपने शब्दों पर कोई नियंत्रण ही नहीं रहा।गाहे-बेगाहे जानकी को ताना कस ही देती थी और जानकी अपने अंश के लिए वो दर्द भी सह जाती थी। दसवीं की परीक्षा में अंश जब पूरे जिले में प्रथम आया था,तब वह अपनी बड़ी माँ की नजरें बचाकर अपनी माँ से आशीर्वाद लेने आया था।और तब वह अपने बेटे को सीने से लगाकर बहुत रोई थी।उसका जी चाह रहा था कि समय रुक जाए, बेटा उसके सामने बैठा रहे और वह उसे निहारती रहे। काॅलेज की पढ़ाई के लिए जब अंश दिल्ली जा रहा था तब जानकी अंश को स्वयं विदा करना चाहती थी लेकिन घर में कलह होने के डर से हरीश ने उसे मना कर दिया था।
खिड़की की ओट से ही उसे अपने लाल को देखकर संतोष करना पड़ा।पुत्र-विहीन माँ की ममता, पीड़ा और अनकहे दर्द को हरीश बहुत अच्छी तरह से समझते थें।बेटे का वियोग तो उन्हें भी बहुत तकलीफ़ देता था जिससे उनकी भी सेहत बिगड़ने लगी और एक दिन वे भी जानकी को अकेला छोड़कर इस दुनिया से चले गये।तब एक दिन के लिए अंश आया था,अपनी माँ की हालत देखकर उसका कलेजा मुँह को आ गया था,बड़ी मुश्किल से उसने अपने मन पर काबू किया था।
आज जब अंश अपनी पढ़ाई पूरी करके पूरे दो बरस बाद घर आ रहा है तो क्या जानकी का मन अपने बेटे को देखने का नहीं करेगा? बरसों से अपने बेटे के बिछोह का दर्द सह रही थी,कभी उफ्फ़ तक नहीं किया उसने, फिर भी आज सुमित्रा जी ने कड़वी बात कहकर उसके दिल को दुखा दिया था।उसने तो अपनी बहन जैसी जेठानी के दर्द को दूर करने के लिए अपनी गोद खाली कर ली थी और उन्होंने ही उसे….।वह रो-रोकर अपने आँसुओं से तकिये भिगो रही थी तभी उसने अपने कंधे पर एक जाना-पहचाना स्पर्श महसूस किया।उसने तुरंत अपने आँसू पोंछे और बोली, ” कौन? अंश!।” ” हाँ माँ, मैं हूँ तुम्हारा अंश।” कहकर वह जानकी के सीने से लगा तो जानकी के हृदय में बरसों से दबा हुआ बेटे से बिछोह का दर्द आँसू बनकर बहने लगा।माँ-बेटे का यह मिलन अद्भुत था।दोनों के नेत्र सजल थें लेकिन होंठों पर मुस्कान थी। उसके दर्द का मरहम, उसका अंश उसके पास आ गया था। — विभा गुप्ता # दर्द एक माँ के लिए संतान से बिछोह होने की पीड़ा असहनीय होती है।माँ के लिए उसका बच्चा ही हर दर्द की दवा होता है।जैसे कि अंश के आ जाने से जानकी का दर्द छू-मंतर हो गया था।
विभा गुप्ता
# दर्द