दलवीर सिंह बाहर के कमरे में निढाल लेटे थे। रसोई में बर्तनों के टकराने की आवाज़ बता रही थी कि दलवीर सिंह की पत्नी रसोई में मौजूद है। जिस घर मे दिन भर धूम – धड़ाका मचा रहता हो, वहां आज निस्तब्धता बेचैनी पैदा कर रहा थी।तभी रसोई से माँ की अंदर कमरे में आने की आहट सुनाई दी। अचेतन मन से लेटी हुई शैली सतर्क होकर बिस्तर पर बैठ गयी। उसने माँ को बैठने के लिए भी नहीं कहा लेकिन माँ ने साड़ी के आँचल से अपने माथे का पसीना पोछते हुए कहा।- पूरी रात, तुम्हारे पिताजी सोए नहीं। रात भर करवटें बदलते रहे। तुमने उनके प्रेम और सीधेपन का नाजायज़ फायदा उठाया है। कितना भरोसा करते थे, तुम पर…???
“कम से कम, तुमसे तो ये उम्मीद नहीं थी।”
माँ एक पल को रुकी, उसने एक गहरी सी साँस लेते हुए कहा।
– अब आखिर तुम्हारी समझ को क्या हो गया? सारी दुनिया में यही एक लड़का मिला था, क्या?
बोलो …बोलो न…??? ऐसे चुप क्यों बैठी हो।
शैली के एक बार तो मन में आया कि कह दे।
– “क्यों, दुनिया मे कोई दूसरा लड़का मिल जाता तो उससे कर देतीं क्या?”
– कोई सोच समझ कर प्रेम करता है, क्या???
परन्त उसने मौन रहना ही उचित समझा। जब किसी को कुछ समझना ही नही। सुनना ही नहीं। …तो क्यों अपना मुँह खोले। जुबान चलाना उसने बचपन से ही नहीं सीखा था। लेकिन दूर कहीं बिजली सी ज़रूर कड़की और अंदर का तूफ़ान, तेज़ बारिश के साथ आँखों से बरस पड़ा। लेकिन माँ को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने फिर प्रश्न किया।
– तुम्हारे मौन को क्या समझूँ?
उसकी ओर से कोई जवाब न पाकर माँ, पास ही पलंग पर बैठ गई और अपनी ममता का आँचल उसके सर पर रख कर आहिस्ता से बोली।
– वो तुम्हारे लायक है, ही नहीं, बेटी। न, अपनी जात – बिरादरी का..। । …नौकरी भी खासी बड़ी नही.है। पता नहीं, क्या देखा तुमने??
शैली उसके बारे में एक शब्द भी बुरा सुनना नहीं चाहती थी। उसका मन एक बार फिर विचलित हुआ। चीख़ – चीख़ कर कहना चाहती थी।
– “जो तुम लोगों की खुली आँखें न देख सकीं, वह मैंने देखा है। उसकी सच्चाई, उसकी ईमानदारी, उसका धीरज और कुछ कर गुज़र जाने की चाह।
क्या सब कुछ रुपया पैसा ही होता है?”
तुम्हीं लोग तो कहते थे न, कि लड़कियों की जात – पात नही होती। तो अब जात – पात, बीच में कहाँ से आ गई? मैं बगावत भी सकती हूँ, पर पिता का भरोसा कैसे तोड़ूँ? बस यही सोचकर वह कमज़ोर पड़ गई।
वह जड़वत पलंग पर बैठी रही।
जब माँ को अंदाज़ा हो गया कि वह पूरी तरह से टूट चुकी है तो उसने, उसकी आँखों से आँखें मिलाकर, उसकी तरफ प्यार से देखकर कहा।
– “क्या कह दूं तेरे पापा से…???”
अबकी बार माँ की आँखें भी नम थीं।
– “कुछ भी…जैसा चाहो…!!!”
माँ की तो जैसे मन की मुराद पूरी हो गई थी। ममता एक बार फिर जीत गई थी।
श्रद्धा निगम
बाँदा उप्र