शॉप में साड़ियों का पेमेंट करके जैसे ही मैं पीछे मुड़ी सामने जाना पहचाना चेहरा देखकर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा ।
दमकता चेहरा उसकी खुशहाल ज़िंदगी की कहानी कह रहा था । सहसा वह बुझी-बुझी सी रहनेवाली अनुभा याद आ गई ।
“मनू ,कहाँ खो गई ?” अनुभा मुस्कुराते हुए बोली ।
“अरे, कहीं नहीं ।” कहकर मैंने उसका हाथ थाम लिया ।
अनुभा मेरी बचपन की सहेली थी । साथ-साथ स्कूल जाना, पढ़ाई करना, शरारतें करना, सब हमारी दिनचर्या में शामिल था । अनुभा की मम्मी, राधा आंटी भी एक स्नेहभरी महिला थी । अंकल जी फैक्ट्री में काम करते थे । सुबह 7 बजे निकलते थे तो शाम को 6.30 बजे ही वापिस आना होता । पापा बैंक में जॉब करते थे । अतः घर के सारे काम निबटाकर कुछ फुरसत का समय मम्मी और आंटी के पास होता था जिसे वे आँगन में साथ-साथ बैठकर गपशप करते हुए गुजरती थीं ।
उसी समय कभी अचार, बड़ी, पापड़, कुरड़ई बनते, कभी सब्जियाँ साफ की जातीं तो कभी रंगबिरंगे ऊन से स्वेटर बुने जाते ।
सबकुछ अच्छा चल रहा था ।
एक दिन सुबह अनुभा के घर से शोर आता सुन हम घबराकर दौड़े । आंटी ज़मीन पर पड़ी हुई थीं , अनुभा बेहद घबरा गई थी और अंकल बदहवास से डॉक्टर को फोन लगाने की कोशिश कर रहे थे ।
अंततः एम्बुलेंस से आंटी को अस्पताल पहुँचाया गया । लेकिन अस्पताल पहुँचने से पहले ही वे स्वर्ग सिधार चुकी थी । सीवियर हार्ट अटैक उनके लिए जानलेवा साबित हुआ ।
आंटी के जाने के बाद अनुभा और अंकल की ज़िंदगी ही बदल गई । तब हम 9 वीं में थे । वह घर के कामों में व्यस्त रहने लगी । हमारी मुलाकातें भी कम हो गईं । मैं भी मनचाहा सब्जेक्ट पाने की चाहत में अगले वर्ष के बोर्ड एक्ज़ाम की तैयारी में जुट गई थी ।
बोर्ड एक्ज़ाम के बाद अनुभा और अंकल उनके पैतृक गाँव गए । गए दो व्यक्ति थे, लेकिन वापसी में तीन हो चुके थे । घर की ज़िम्मेदारियों की चिंता में अंकल ने दूसरी शादी कर ली थी ।
“अब मुझे बिटिया की कोई चिंता नहीं । उसको सम्भालनेवाली माँ आ गई है ।” अंकल भोलेपन से पापा से बात कर रहे थे ।
लेकिन आशा जे विपरीत अनुभा की सौतेली माँ, वाकई सौतेली साबित हुई ।
“तूने आँगन नहीं झाड़ा अब तक ?
“नाश्ता कब बनाएगी ?”
“यूँ खींसे निपोरके बात करने में शरम नहीं आती तुझे? “
सवालों की बौछार, व्यंग्यबाणों और घर के कामों की जिम्मेदारियों से अनुभा सूखने लगी ।
उसे देखकर बहुत दुःख होता था । मैं उसका बचाव करना चाहती थी । लेकिन मम्मी-पापा ने हर बार रोक दिया ।
“हम उनके घर में दखलंदाज़ी नहीं कर सकते ।”
वे सही थे । सो मुझे भी उनकी बात माननी पड़ती ।
अगले ही वर्ष पापा का ट्रांसफर ग्वालियर में हो गया । हम वहाँ शिफ्ट हो गए ।
जाते-जाते भारी मन से अनुभा से विदा ली । नई आंटी खा जानेवाली नज़रों से हमें देखती रहीं ।
उन्हें अनुभा का किसी से मिलना जुलना नागवार गुज़रता था । अंकल बेबस थे ।
“सम्भालके मनू, क्या सोचने लगी फिर ?”
“कुछ नहीं, अभी बात करते हैं ।” मैंने जवाब दिया ।
हम दोनों सीढ़ी उतरकर कॉफ़ी हाउस की ओर चल दिए ।
उस दिन भीड़ कम थी । हमने कोने की टेबल ले ली । ऑर्डर करके मैं बोली, “और बता कैसी है तू?”
“बस तेरे सामने हूँ ।” वह ख़ुशी से बोली ।
“लेकिन ये सब कैसे ?” मेरा सवाल ।
“बस ये समझ ले कि अच्छे दिन सबकी किस्मत में होते हैं ।”
“हम्म” मैं …..
“तुम लोगों के जाने के बाद उस घर में नए किराएदार आए । तभी नमन से मुलाक़ात हुई ।”
मैं उत्सुकता से सुन रही थी ।
“एक दिन मैं अमरूद तोड़ रही थी तो अमरूद पड़ौस के आँगन में जा गिरा । नमन वहीं थे तो उन्होंने उठाकर दे दिया । ऐसे ही परिचय हुआ । आंटी की कोई बेटी नहीं थी तो वे मुझे घर बुला लेती थीं । उनका स्नेह देखकर मेरी आँखें भर आती । अंकल जी और उनका छोटा बेटा मुझे बहुत सम्मान देते थे । नमन की चाहत उनकी आँखों में झलकती थी । लेकिन वह समय अलग था । मैं भी अपने घर की परिस्थिति से वाकिफ़ थी । कोई भी दिवास्वप्न मुझे डरा देता था । कुछ समय बाद नमन की जॉब लग गई । वे ट्रेनिंग के लिए निकल गए ।”
एक दिन हमेशा की तरह अम्मा मुझे लताड़ रही थी । मेरी फाइनल एक्ज़ाम थी और मैं जल्दी साइकिल निकालकर कॉलेज चली जाना चाहती थी ।
“तू कहीं नहीं जाएगी ।” अम्मा आँखें तरेरकर बोली ।
“लेकिन मेरा पेपर है ।” मैं कातर स्वर में बोली ।
“भाड़ में जाय पेपर । कौनसा पढ़-लिखकर तुझे कलेक्टर बनना है ? जब से आयी हूँ तेरे चोंचले देख रही हूँ ।” अम्मा भड़क गई ।
आवाज़ सुनकर आंटी घर के बाहर निकली । सारा माजरा समझ गई और बिना देर किए गेट खोलकर हमारे आँगन में आ गईं ।
“भाभी आपको बीच में पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है ।” आंटी के आने से अम्मा और भड़क गई ।
“ज़रूरत है । तभी मुझे आना पड़ा । मैं भी आयी हूँ तब से देख रही हूँ कि इस बिन माँ की बच्ची पर क्या ज़ुल्म किए जा रहे हैं । शरम आनी चाहिए आपको । क्या सोचकर भाईसाहब ने आपसे ब्याह किया और आपने क्या सिला दिया ? और ज़्यादा बदतमीज़ी की तो मैं पुलिस को बुला लूँगी ।”
पुलिस का नाम सुनते ही अम्मा घबरा गई । सही मौका देखकर मैं कॉलेज चली गई ।
बाद में अम्मा और आंटी में कहासुनी हुई ।अम्मा बोली, “इतना ही प्यार उमड़ रहा है तो बहू बनाकर ले जाओ । सिर्फ खिलाने-पिलाने और बातें करने से क्या होता है ?”
“मनू, कहते हैं न कि दिन में एक बार हमारी ज़बान पे देवी सरस्वती विराजमान हो जाती हैं । हम जो कहें सच हो जाता है । कुछ ऐसा ही हुआ ।”
“मेरे ग्रैजुएशन पूरा होने से पहले ही अंकल आंटी ने नमन के लिए मेरा हाथ माँग लिया । मेरा अनदेख सपना पूरा हो गया ।” कहते-कहते अनुभा की आँखें नम ही गईं ।
डोसे का ऑर्डर आ चुका था ।
अब अनुभा कुछ उदास होकर बोली, “मेरी शादी के सालभर बाद ही पापा नहीं रहे । अम्मा सबकुछ बेचकर गाँव चली गई । मैं नमन की पोस्टिंग वाले शहर चली गई । शादी के बाद मुझे पूरा मानसम्मान और प्यार मिला । हमारा प्यारा सा बेटा 10 th में है । हम 2 माह पहले ही यहाँ आए हैं ।मनू, मैं अपनी लाईफ में बहुत खुश हूँ ।”
सखी की कथा का सुखद अंत जानकर आनंद से मेरा मन भर आया ।
बिल पे करके और फोन नंबर्स एक्सचेंज करके, हमने दुबारा जल्दी मिलने का वादा किया । आज का दिन बहुत सुहाना लग रहा था ।
स्मिता टोके “पारिजात”
यह कहानी मौलिक, स्वरचित एवं अप्रकाशित है ।