अनदेखा अनोखा अनमोल त्याग –  नीतिका गुप्ता 

निशा; बारात बस आने ही वाली होगी…. ले यह जीजी के कंगन….. जीजी हमेशा कहती थीं ,”यह कंगन तो बस मैं मेरी निशा को ही दूंगी”…ले संभाल जीजी की अमानत…. अपने लहंगे के दुपट्टे से वह अपनी आंखों के कोर को साफ कर रही थीं।

उफ मौसी; अगर तुमने यह रोना-धोना मचाया ना…. मैं नहीं जाऊंगी शादी करके… कह दो रोहन से वापस ले जाए अपनी बारात… मैं अपनी मौसी को छोड़कर नहीं जा रही…. मैंने अपनी प्यारी मौसी के गले में अपनी बाहों का हार डाला और हमेशा की तरह उनके कंधे पर सर रखकर अनोखा सुकून महसूस किया।

मौसी ससुराल और वहां के लोगों के लिए मुझे बहुत सारी हिदायतें देकर बारात के स्वागत की तैयारी करने चली गईं।

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मैं निशा … “मौसी” मेरी मां… दुनिया की नजरों में मेरी “सौतेली मां”।

मेरी सगी मां पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ी गणित विषय की अध्यापिका…. जिस समय लड़कियों को पढ़ाया लिखाया नहीं जाता था मेरी मां ने जिद करके अपनी पढ़ाई की और छात्रवृत्ति की सहायता से अपनी पढ़ाई पूरी करके गणित विषय की अध्यापिका बनीं और अपने सभी छोटे भाई बहनों की पढ़ाई का भी ध्यान खुद रखा।

पापा से शादी करके मां उनके गांव आ गयीं,, मेरी पढ़ी-लिखी मां ने गांव की रीति रिवाज और रहन-सहन के हिसाब से खुद को ढाला और एक सुघड़ बहू बन गईं। 2 सालों में मेरा भी जन्म हो गया और मेरे बड़े होने पर जब मुझे स्कूल में डालने की बात आई तो सभी ने एक सिरे से इनकार कर दिया।

वहां पर मेरा कोई भविष्य न पाकर मेरी मां मुझे लेकर अपने मायके वापस आ गई। यहां शुरू हुआ एक नया सफर..

मां ने अपनी पढ़ाई जारी रखी और एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका बन गई। मेरा भी स्कूल में दाखिला हो चुका था और इस सब के बीच मेरे भाई का जन्म हुआ। मेरी मां हर शनिवार की दोपहर को हम भाई-बहन को लेकर पापा के पास गांव चली जातीं और सोमवार की सुबह सुबह वहां से वापस आ जातीं, बस से पूरे 2 घंटे का सफर था।

मां चक्की के दो पाटों में पिस रही थीं। सप्ताहांत के 2 दिन ससुराल में एक बहू होने का हर कर्तव्य पूरा करतीं जबकि हर दिन वो एक मां और अध्यापिका के फर्ज निभातीं लेकिन फिर भी वो किसी को खुश नहीं कर पा रही थीं।



दादी बाबा घर के सभी लोग मां से ढेरों शिकायतें करते,,, मां को बुरा भला कहते और पापा भी उनसे नाराज ही रहते।

पहले अपनी पढ़ाई और सरकारी नौकरी के लिए जद्दोजहद और फिर भाई के आने के बाद मां का मुझ पर ध्यान बहुत कम हो गया था,,, मैं भी मां से रुठी ही रहती।

इस सबके बीच में कोई था तो वो थीं मेरी “मौसी” जो सबसे छोटी थीं। मां और उनके बीच 12 साल का अंतर था और इसी अंतर ने मुझे उनका दोस्त बना दिया।

बचपन से ही मैं मौसी की लाड़ली और फिर बड़ी होने पर उनकी सबसे प्यारी सहेली बन गई। मौसी 22 साल की हो चुकी थीं और मैं 12 की होने वाली थी। मौसी की शादी के लिए रिश्ते देखे जा रहे थे, लड़के की फोटो को सब से छुपा कर मैं मौसी को लाकर दिखाती और फिर हम दोनों मिलकर उस फोटो वाले लड़के की बहुत मजाक उड़ाते।

मौसी का बस एक ही सपना था उनको “सलमान खान” जैसा दूल्हा और “हम साथ साथ हैं” जैसा ससुराल चाहिए था..!!

हमारी जिंदगी तो मस्त चल रही थी लेकिन मां ससुराल,,, मायका,,,, अपनी जिंदगी,,, अपने बच्चे,,,, इन सबके बीच पिसती जा रही थीं।

मां ने अपनी नौकरी की शुरुआत से ही अपनी  सैलरी का बड़ा हिस्सा बचाना शुरू कर दिया था जिससे वह अपने और अपने बच्चों के लिए एक छोटा सा घर बना सकें।

नाना जी ने अपने छोटे से प्लॉट का टुकड़ा मां के नाम कर दिया था और 2 साल पहले मां ने अपनी बचत से घर बनाने की भी शुरुआत कर दी थी। धीरे-धीरे,,, रुकते चलते,,, हमारा घर लगभग तैयार हो चुका था और अगले महीने हम अपने नए घर में रहने जाने वाले थे।

पिछले 2 सालों में मां बस एक ही बार पापा के पास गई थीं और वहां पर बहुत ज्यादा झगड़ा हुआ था क्योंकि दादी बाबा नहीं चाहते थे कि मां यहां पर अपना मकान बनाएं। और यह पता लगने पर कि मां अपनी सैलरी बचाती आईं हैं ,, वहां पर सभी को एक जोर का झटका लगा था।

मैं आपको बताना भूल गई… मां हर सप्ताहांत में दादी के बताए अनुसार राशन दवाइयां और दूसरा सामान भी अपने पैसों से खरीद कर लाती थीं। एक एक पैसे को संभाल कर और हिसाब से खर्च करने वाली मेरी मां ने कभी स्वयं के लिए अपनी जरूरत के अलावा एक भी चीज नहीं खरीदी।

मां अपना घर बनवाने के काम में इतना व्यस्त हो गईं कि वह सबका कटु व्यवहार भूल गईं….

यह सिर्फ हमारी भूल थी…. मां तो अंदर ही अंदर टूट चुकी थीं और इतना ज्यादा कि एक रात जब वह मेरे छोटे भाई को कहानी सुना रही थीं तो बैठे ही बैठे सो गईं और ऐसा सोईं कि फिर कभी ना उठीं..!!

मां की तेरहवीं वाले दिन पापा हम दोनों बच्चों को अपने साथ ले गए। मां की याद में जैसे तैसे वक्त कट रहा था मैं अपने छोटे भाई का ध्यान रखने की पूरी कोशिश कर रही थी…. लेकिन एक दिन मालूम हुआ कि दादी पापा की शादी के लिए रिश्ते ढूंढ रही हैं।



सौतेली मां…. इस नाम से डरी घबराई मैं अपने छोटे भाई को लेकर नानी के घर पहुंची। मां के साथ हर सप्ताह आने के कारण बस और रास्ते की जानकारी थी मुझे….

जाकर मौसी को सब बताया उनसे लिपट कर बिलख बिलख कर रोई।

मां के जाने के बाद आज पहली बार पेट भर खाना खाकर सुकून की नींद सोई थी। अब मुझे कोई शिकायत नहीं थी मां से ….इतने दिनों में अच्छे से समझ गई थी कि मां ने पापा से अलग रहने का फैसला क्यों किया .??

सुबह हम जागे तो पापा को देखा… उन्होंने अपने साथ चलने की जिद की,, हमें बहुत डांटा भी … मेरे मना करने पर पापा भाई को अपने साथ ले जाने लगे… शायद पापा भाई को ही लेने आए थे लेकिन मां ने कहा था कभी भाई को अकेला मत छोड़ना… आज अपनी मां की आखिरी निशानी को उस घर में कैसे अकेला छोड़ दूं जहां से मेरी मां की मौत पर कोई दो आंसू बहाने भी ना आया।

मेरी तरसती सिसकती निगाहें बस मेरी मौसी पर टिकी थीं,, लेकिन वह भला क्या करतीं…??

नानू और नानी की मौत तो पहले ही हो चुकी थी और मम्मी को जमीन मिलने के कारण दोनों मामा मम्मी और नाना दोनों से नाराज थे…

हम बच्चों का अब कोई ना था … मैं वहीं जमीन पर बैठकर फूट-फूट कर रोने लगी कि अगले ही पल मौसी की आवाज ने हम सबको चौंका दिया….

“जीजा जी; क्या मैं आपसे शादी करके अपनी जीजी की अमानतों का ध्यान रख सकती हूं..!!”

मैं और भाई मौसी से लिपट गए… वहां पर एकत्रित सभी लोग मौसी को बुरा भला कहने लगे,,,, कोई उन पर तरस खा रहा था तो कोई उन्हें अपने फैसले पर पछताने के लिए कोस रहा था। पापा से कुछ कहते ना बन रहा था…

सभी बड़ों की रजामंदी से 2 दिन बाद मंदिर में मौसी और पापा की शादी कर दी गई। शादी की पिछली रात मौसी पूरी रात बस रोते ही रहीं…

एक 22 साल की लड़की जिसने शादी को लेकर इतने सारे ख्वाब देखे हों…. आज दो बच्चों के पिता,,, एक अधेड़ उम्र के आदमी से शादी करने जा रही थी। मैं अपनी उम्र से ज्यादा ही समझदार हो गई थी… रह रह कर खुद को कोस रही थी कि

“क्यों मैं घर से भाग कर यहां आई..?? क्यों मैंने अपनी मौसी को उनके सारे सपने छोड़ने पर मजबूर कर दिया..??”

मैं तो मौसी की हमराज थी और आज…..

मां हमेशा कहती थीं..”आशा तू देखना तुझे मैं अपने घर से दुल्हन बनाकर विदा करूंगी… ऐसा सुंदर और सुशील छोरा ढूंढ कर लाऊंगी तेरे लिए।”

मां की इच्छा अनुसार उनके बनवाए हुए घर से ही मौसी की विदाई हुई और मौसी हम बच्चों के हक की लड़ाई लड़ने के लिए हमारी सौतेली मां बनकर पापा के साथ उनके घर आ गईं।


सभी ने कहा कि अब हमें उन्हें मां बुलाना चाहिए लेकिन मौसी का कहना था कि “मैं बस अपनी दीदी के अधूरे फर्ज पूरे करने आई हैं… मां कहलाने का हक तो बस दीदी का था मैं तो उनकी परछाई मात्र हूं और मैं बच्चों की हमेशा ही मां जैसी हूं और मौसी ही रहूंगी।”

प्रत्येक स्त्री मां बनने की इच्छा रखती है,, कहते हैं एक बच्चे को जन्म देकर ही स्त्री संपूर्ण होती है मगर कुछ ऐसी स्त्रियां भी हैं जो अपनी मर्जी से अपने इस गौरव को त्याग कर किसी और के खून को अपनाती हैं और उनके लिए अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर देती हैं।

हर दिन मौसी एक नई परीक्षा से गुजरतीं… पापा के साथ अपने नए रिश्ते को लेकर जितना ज्यादा वह असहज थीं,उतना ही अपनी दीदी की ससुराल में खुद बहू बनकर परेशान भी….

“मौसी के लिए जीवन हर दिन एक नई जंग है”   लेकिन मेरी मौसी ने हार नहीं मानी और सब से लड़ कर मेरी पढ़ाई पूरी कराई और आज मैं “डॉक्टर आरती ” के नाम से जानी जाती हूं।

आज मेरी शादी मेरी पसंद के डॉक्टर रोहन से हो रही है।

मौसी बहुत खुश हैं… आज उनकी एक जिम्मेदारी पूरी हुई… वक्त ने पापा को भी सबक सिखा दिया,  वह मां की कभी कदर ना कर सके लेकिन मौसी के अधिकारों के लिए उन्होंने अपनी आवाज बुलंद की है।

“चल निशा तेरा दूल्हा आ गया तुझे लेने… मेरी बच्ची तू हमेशा खुश रहना और बिल्कुल मेरी दीदी अपनी मां की तरह निडर और साहसी बनना ,, कभी किसी को खुद के साथ अन्याय मत करने देना और बाकी तो तेरी मौसी है हम मिलकर सब को देख लेंगे..!!”

मौसी की खिलखिलाहट हमेशा ऐसे ही बरकरार रहे मौसी के गले लगकर मैं बस ईश्वर से यही प्रार्थना कर रही हूं। सच कहूं तो मां का एहसास मैंने अपनी मौसी से ही पाया है,मेरी मौसी से ही प्रेरणा लेकर आज मैं एक अनाथालय से जुड़ी हुई हूं जहां अनाथ बच्चों का फ्री में इलाज करती हूं।

मौसी ने तो अपना जीवन कुर्बान कर के हम बच्चों को संभाल लिया लेकिन आज भी बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो अपनी मां के असमय चले जाने से भरे पूरे परिवार में भी अनाथों जैसा जीवन बिताते हैं।

मेरी यह कहानी किसी के वास्तविक जीवन से प्रेरित है। 

#त्याग

  स्वरचित एवं मौलिक रचना

    नीतिका गुप्ता  

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