कृष्णा ,ओ कृष्णा ,रुक जाना ।तेज -तेज दौड़ते हुए सुरभि हाँफने लगी थी। नाजुक सुरभि छोटे-छोटे कदमों को तेजी से भागने के चक्कर में घायल कर रही थी। पर कृष्णा ….उसे तो मजा आ रहा था ।वह सुरभि को और ज्यादा थकाना चाहता था ।बात तो सिर्फ एक खिलौने की ही थी। सुरभि की प्यारी गुड़िया जो उसने पापा से जिद करके ली थी ।वही गुड़िया लेकर कृष्णा भाग रहा था।
सुरभि
भी उसके पीछे-पीछे…
तभी अचानक कृष्णा को ठोकर लगी ।सुरभि ने देखा तो चिल्ला पड़ी….. कृष्णा । हाँफते हुए जाकर कृष्णा को उठाने लगी ।उसने यह भी नहीं देखा कि उसकी गुड़िया छिटक कर कहाँ गई? उसका तो पूरा ध्यान उसके सखा कृष्णा में ही था ।अपनी फ्रॉक से कृष्णा की खरौंच साफ करके सुरभि ने कहा ….”बस ,अब मैं और नहीं भाग सकती ।लाओ मेरी गुड़िया “।कृष्णा ने इधर-उधर देखा तो गुड़िया दूर कहीं गिरी पड़ी थी ।कृष्णा एक झटके में उठा ।तभी सुरभि भी उठी और लपक कर अपनी गुड़िया ले उसे जीभ निकालकर चिढ़ाने लगी ।तभी किशन की आँखें खुल गयी।देखा तो हकीकत में कुछ नहीं। सिर्फ वह और उसकी तन्हाई ।उन यादों की तरह उसकी तन्हाई भी उसकी सच्ची साथी थी। वह धीरे से उठा ।एक गिलास पानी पिया ।तभी उसे सुरभि की बात याद आई…..” कृष्णा मम्मी कहती है बैठ कर धीरे-धीरे पानी पीना चाहिए “।वह हौले से मुस्कुरा उठा। कहने लगा…. ओह सुरभि, तुम ना जाने कहाँ हो?पर मेरे लिए तो हर पल तुम मेरे साथ –साथ ही हो। क्यों नहीं भुला पाता मैं तुम्हें? तुमसे आखिरी मुलाकात याद है मुझे ।वह सोलह सिंगार में दमदम करता तुम्हारा मासूम चेहरा। सच, किसी देवी की तरह दिख रही थी तुम ।मेरे पास आकर ,सबके सामने, मेरा हाथ हाथों में लेकर तुमने कहा …..”अच्छा कृष्णा, अब मैं जा रही हूँ ।लो मेरी यह गुड़िया तुम रख लो अपने पास और हाँ इसका और अपना तुम पूरा ध्यान रखना”। मैं कुछ ना कह सका ।बचपन से अपनी शरारतों से तुम्हें सताने वाले कृष्णा को तुमने इतनी बड़ी सजा क्यों दे दी सुरभि ?क्या तुम नहीं जानती थी कि तुम्हारा कृष्णा तुम्हारे बिना रह नहीं पाएगा ?क्या प्यार की अभिव्यक्ति इतनी जरूरी हो गई थी हमारे बीच ?ऐसे कितने ही सवाल किशन के जेहन में जब तब उभरते रहते थे। जिनका जवाब उसकी दुनिया की ही तरह शून्य ही था ।इतने में तेज हवा से खिड़कियाँ खुलने बंद होने लगी ।उसने तुरँत ही उन्हें बँद किया ।अचानक जैसे सुरभि फिर बोल पड़ी…..” हवा का तेजी से आना और खिड़कियों को छूना, कितनी अच्छी क्रिया है”। किशन ने खिड़कियाँ खोल दी और कुछ ही देर में बारिश की बूँदें उसके मन को भिगोने लगी। उसे याद आने लगा ऐसी ही एक बारिश में सुरभि उसके यहाँ आयी थी भीगते हुए ।….”अरे इतनी तेज बारिश में तुम क्यों चली आयी”? “….
कृष्णा मैं कोई आइसक्रीम नहीं हूँ जो पिघल जाऊँगी। जब तक मैं नहीं आती तुम खाना नहीं खाते ना “।कह कर मेरे लिए खाना परोसने लगी थी। बारिश बाहर बरस रही थी और अँदर मैं सुरभि की यादों में भीग रहा था। मेरे भीतर की सुरभि मुझ में इस कदर समा गई थी जैसे मेरी साँसे ।एक पल को भी जुदा नहीं हो पाती थी वह मुझसे ।वह मेरी हमसफर तो नहीं थी फिर भी मेरे साथ साथ सफर करती रही। कभी भी,कहीं भी किसी और से मिलने पर बस ऊपरी तौर पर सामान्य हँसी मजाक कर लेता था। पर असली दुनिया तो मेरी तनहाई ही थी,जिसमें मैं सुरभि के साथ हर पल जी रहा होता ।बेपनाह लम्हों में ।बेपनाह यादें उसकी मेरी बेपनाह तन्हाई के साथ लड़ते झगड़ते रहती थी कि …पहले मुझे जाने दो ।उन्हें नहीं पता हर तरफ तो वहीं बिखरी है। मैं उन्हें समेटना भी नहीं चाहता था क्योंकि वही तो मेरी अमूल्य धरोहर है। हूँ क्या मैं सुरभि की यादों से बिछड़ कर?कुछ भी तो नहीं ।काश कभी मिल पाता ।पता है कभी नहीं मिल पाऊँगा क्योंकि तुम्हारी राहें और निगाहें दोनों ही बदल गई ।ढूँढता भी तो कहाँ उन्हें?होती तो ढूँढता। तुम्हारी आखिरी कही बात भी याद है मुझे कि ….”मुझे कहीं भी मत ढूँढना। सिर्फ अपने दिल के टुकड़ों में ढूँढना ।उन्हीं में बस नजर आ जाऊँगी क्योंकि उसका एक टुकड़ा मैंने भी चुरा रखा है, जिसे मैं लौटा नहीं सकती ।माफ कर देना मुझे “।आसान नहीं था सुरभि तुम्हारे लिए भी यह सब कहना ।काश …..मैंने कुछ कह दिया होता। काश …..एक बार तुम से लिपट कर रो पाता ।अनकही बातों का दर्द आँखों में उतरकर बहने लगता है। प्रेम सात फेरों का नहीं ,साथ देने का नाम है और तुम्हारी यादें यह बखूबी कर रही हैं । बिना कहे तुम्हारा मुझे दिया अधिकार मुझसे कोई नहीं छीन सकता। फिर भी एक अनुत्तरित सवाल मुझे परेशान करता है कि आखिर क्यों?
कौन किसके करीब होता है ।
अपना अपना नसीब होता है।
लेकिन जब याद आता है कोई चाहने वाला ।
तब दर्द दिल के करीब होता है।
विजया डालमिया