संस्मरण 20 बर्ष पुराना है।बुजुर्ग अम्मा को दया पिछले कई सालों से मोहल्ले में घूमते हुए देखती थी । कई बार वह जिस मकान में कोई बड़ा गेट नहीं होता था सीधे अंदर चली जाती थी और वहाँ पर कहीं पर भी सीढ़ियों में बैठ जाती। मकान में रहने वालों को कभी कभी पता भी नही चलता था। उस समय लोगों के हाथो में मोबाइल नही थे इसलिए न तो किसी का आना अवांछित लगता था न बातचीत करने में कोई परहेज।। उनके पहनावे व बातचीत से वह किसी अच्छे परिवार से लगती थी।
हालांकि मोहल्ले के लोग उनसे परिचित थे। उनसे अम्मा का संबोधन से बातचीत करते थे परंतु उनके बारे में अधिक नही जानते थे। वह भी सभी से आत्मीयता से मिलती थी परंतु अपने बारे में कम ही बताती थी। पूछने पर इतना ही पता चला कि उनके दो बेटे अगल बगल रहते हैं किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते हैं। उनका किराये का घर है।वह बारी बारी से दोनों के साथ रहती है। कॉलोनी का उन्होंने नाम बताया वह हमारे घर से काफी दूरी पर था। पड़ोसी बताते थे
कि अम्मा का आने का समय या तो ग्यारह बजे या शाम के पाँच बजे के आसपास होता था।। किसी की समझ में नही आता था कि वह अपने घर से इतनी दूर बतियाने क्यों आती थी।दया की नौकरी के कारण वह पूरा दिन घर से बाहर ही रहती थी इसलिए उनसे ज्यादा संपर्क नही था। उसका उनसे केवल अभिवादन का रिश्ता था। एक रविवार छुट्टी के दिन दया का बाजार जाना हुआ। वापसी में जिस रिक्शे में बैठी अम्मा भी उसी में अपने 12 बर्षीय पोती के साथ बैठी थी।
उसने उन्हें नमस्ते बोलकर हालचाल पूछा। उन्होंने किसी के यहाँ नामकरण से लौटने की बात बताई।पहले तो वह मुस्कुराकर दया के बारे में पूछने लगी जब उसने उन्हें बताया कि मै घर से दूर नौकरी करती हूँ अचानक उनकी आँखों मे चमक आ गई।
कहने लगी-‘ इसीलिए तुम्हारे घर का गेट बंद ही रहता है! दया ने कहा!-‘अम्मा बच्चे स्कूल जाते हैं हम लोग ऑफिस घर में कोई नही रहता इसलिए गेट बंद रखना पड़ता है। ‘घर में कब रहती हो? अम्मा ने पूछा। रविवार या किसी सरकारी छुट्टी के दिन उसने जवाब दिया। कहने लगी कभी छुट्टी के दिन तुमसे मिलने आऊँगी। दया ने स्वीकृति में सर हिलाया। इस बात को हफ्ता भर ही बीता था कि रविवार को अम्मा लगभग 11 बजे दया के घर आ पहुंची। छुट्टी के दिन साफ सफाई कपड़े धोने का काम फैला था।
उन्हें अंदर बैठाकर पानी पिलाया। चाय नाश्ते का पूछा। कहने लगी घर से रोटी खाकर आई हूँ चाय थोड़ी देर में पियूँगी। दया अपना काम धाम छोड़कर अम्मा के पास, बैठ गई। उनके बारे में पूछने पर उसका मन द्रविद हो गया। अम्मा अवसाद से भरी हुई थी। पहाड़ों से पलायन की उस समय शुरुआत ही हुई थी। उनका गाँव उत्तराखंड के एक जिले में ही था। गॉव के लोग बेहतर रोजगार की तलाश में धीरे धीरे अपना पुश्तैनी घर छोड़ने लगे थे। कुछ परिवार बचे थे।
गॉव में अधिकांश पूर्व सैनिकों का परिवार था जो रिटायर होते ही तराई भावर या बड़े शहरों में बस गए थे। अम्मा का भरापुरा परिवार था। पति व बेटे किसानी करते थे। पशुधन पर्याप्त होने के कारण दूध दही घी की भरमार थी। अन्न के भंडार भकार् भरे रहते थे। ताजी साग सब्जियां थी। अचानक बेटों के मन में भी बाहर जाकर रुपये कमाने की सूझी। इस निर्णय में बहुओं की भूमिका भी काफी रही। माता पिता दोनों ने ही उन्हें समझाया। बेटों के पास कोई डिग्री, डिप्लोमा या अन्य सर्टिफिकेट नही था।
पिता चाहते थे कि बेटे यहीँ रहकर खेती-बाड़ी और अन्य छोटे काम करें दूध दही साग सब्जी से अच्छी खासी आमदनी हो रही थी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे थे परंतु बेटे बहुओं को यह सब रास नही आया.बाहर की चकाचौंध ने उनकी आँखों में पट्टी बांध दी थी। इन सब्जबागों से वह अपने को नहीं बचा पाए मां बाप के साथ साथ सब कुछ भगवान् भरोसे छोड़कर वह शहर आ गये।गाँव में माँ बाप रह गए। बूढ़े हाथ थोड़ी बहुत खेती व गौपालन करने लगे ।
शुरू शुरू में बेटे बहु त्योहार या गर्मी में मिलने आते गाँव की सौगात अनाज सब्जियां लेकर वापस आते। धीरे धीरे उनका आना भी बन्द हो गया.परंतु बूढ़ा शरीर कब तक साथ देता कालांतर में पति नही रहे। अम्मा अकेली रह गई धीरे धीरे गाँव के अन्य लोग भी पलायन करने लगे। अब बचे खुचे लोग अम्मा को बच्चों के पास जाने की सलाह देते। मजबुरन अम्मा को गाँव छोड़ना पड़ा यहाँ आकर बेटों का रहन सहन देखा। एक किसी फैक्ट्री और एक दुकान में काम कर रहा है
नाम मात्र का वेतन है दो दो बच्चों की पढ़ाई, किराया, खाने पीने का खर्च बचत नाम मात्र की नहीं। तंगहाली देखकर कलेजा मुँह में आता है मुझे भी पेंशन नही मिलती अब तो मुझे भी बोझ ही समझते हैं दोनों के घर में तनाव, चिड़चिड़ापन और अभावों का साम्राज्य है। मुझसे कोई बात नही करता बस खाने को रूखी सूखी मिल जाती है । घर में मुझसे कोई बात नही करता है। अपने गाँव की खुशहाली याद आती है अम्मा की बातें सुनकर दया को बहुत दुख हुआ
कभी कभी इंसान खुद, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है एक बात उसकी समझ में नही आई कि अम्मा सबको क्या ये सब बताती हैं पूछने पर उनका जवाब था -‘बेटी तुम सारे दिन बाहर नौकरी करती हो इसलिए इन बातों को इधर उधर करने का तुम्हें समय नही मिलेगा मेरा मान भी बना रहेगा। सबसे इस तरह की बातें करके में बेटों की आलोचना नही कर सकती। इसमें लोग कुछ नहीं कर सकते तुमसे कहकर मन हल्का हो गया। वरना मेरी कॉलोनी के पड़ोसी भी मुझसे बात नही करते।
अम्मा का दर्द समझकर दया ग्लानि से भर गई कि उनके लिए कुछ नही कर पा रही अम्मा को कुछ पैसे देने की पेशकश की जिसे उन्होंने लेने से इंकार कर दिया दया ने उनसे वादा लिया कि वह हर छुट्टी के दिन उसके घर आएगी उनके साथ नाश्ता या खाना खायेंगी कभी इलाज या दवा की जरूरत पड़ेगी तो बेटी समझकर निसंकोच बतायेंगी. जरूरत पड़ने पर उनके बहु बेटे से मिलकर बात करेंगी अम्मा को अपना दुख दर्द सुनने का साथी मिल गया।वह खुशी खुशी अपने घर लौट गई फिर आने का वादा लेकर।
दोस्तो कभी कभी हम केवल दूसरे का दुःख दर्द सुनकर उनके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए आत्मीयता रखें तो सामने वाले की आधी परेशानी दूर हो जाती है आपको ये कहानी कैसी लगी कमेंट में जरूर बताएं धन्यवाद.
चम्पा कोठारी