Moral Stories in Hindi : ‘‘ अरे वृंदा बहन आपकी माँ आजकल दिखाई नहीं दे रही, वो ठीक तो है ना? ‘‘ पड़ोस में रहने वाली सुमन ने पूछा
‘‘ हाँ माँ बिल्कुल ठीक है,अभी छोटे भाई के पास है वो आकर उसको अपने साथ ले गया है।‘‘ वृंदा जी ने कहा जो घर के बाहर गमलों में पानी दे रही थी
पानी देने के बाद वो अंदर आ कर आँखे बंद करके वही सोफे पर लेट गई। तभी उनकी बहू नैना आई और बोली,‘‘ क्या हुआ मम्मी जी आपकी तबियत ठीक तो है ना? अभी तो आप बाहर गमलों में पानी दे रही थी फिर अचानक ऐसा क्या हुआ जो आप चुपचाप आ कर लेट गई है? “
“ कुछ नही बहू, बस वो सुमन ने माँ के लिए पूछा तो दिल भर आया…।’’वृंदा गहरी सांस लेकर बोली
“आपने उनसे सब कुछ कह दिया क्या?????’’ नैना घबराकर सास को देख कर पूछने लगी
“ अरे नहीं बहू…कौन सी अच्छी बात हो गई जो सब को बताती रहूँगी ।”वृंदा जी के बुझे चेहरे से उदासी का स्वर सुन बहू नैना उनका हाथ थाम कर बोली,”आप इतना क्यों सोच रही है मम्मी जी…आपने अपनी तरफ से कोई कोर कसर बाकी नहीं की उनकी सेवा करने में… ना ही चिंतन ने कभी आपको उनकी सेवा करने से मना किया, ना ही मैंने…हम सबने नानी जी के लिए जितना हो सकता था कर दिया अब वो मामा जी की जिम्मेदारी है …आप सोच सोच कर अपनी तबियत बिगाड़ लेंगी।”
’बहू के इतने प्यार से कहने पर वृंदा जी बस इतना ही बोली,”काश मेरी माँ की किस्मत में भी मेरे जैसे बेटा बहू लिखा होता।”
नैना अपनी सास को समझाकर अपना काम करने चली गई।
वृंदा जी फिर से अपनी माँ के बारे में सोचने लगी।
उनकी माँ बहुत मिलनसार स्वभाव की घरेलू महिला थी। संयुक्त परिवार की जिम्मेदारी निभाते हुए पति के लिए एक पैर पर खड़ी रहने वाली ममतामयी माँ को वृन्दा जी से कुछ खास ही लगाव था। पिता के देहांत के बाद वो कभी कभी अपनी माँ को अपने पास ले आती थी। बेटा बहू भी नानी की सेवा तन-मन से करते थे। वृंदा जी के दो छोटे भाई थे। दोनों की शादी हो गई थी पर दोनों अलग अलग शहरों में अपने में ही मस्त रहते थे। जिस शहर में वृंदा जी रहती थी उसी शहर में उनकी माँ भी बड़े बेटे के साथ रहती थी। बेटा बहू माँ का ध्यान ठीक से नही रखते थे।
हमेशा कम आमदनी का रोना धोना करते रहते। छोटा बेटा बहुत कम अपनी माँ को लेकर जाता था। वो भी कभी-कभी इसलिए कि उनके पड़ोसी ये कहते कि माँ को कभी कभी यहाँ भी लाया कीजिए।उसकी बीबी भी सास का ध्यान नही रखती थी। बेचारी सीधी और भोली माँ जो रूखा सूखा मिलता खा कर चुपचाप एक कमरे में पड़ी रहती थी। किसी से मिलने नहीं दिया जाता था, ऐसे में वृंदा जी की माँ का मन वहां नहीं लगता था।
वो अधिकतर अपने बड़े बेटे के साथ रहती थी इसकी मुख्य वजह यह थी कि वो घर वृंदा जी की माँ के नाम था जहां वो शान से रहती थी ये सोच कर की ये मेरा घर है। गांव के जमीन से कुछ उपज के पैसे आ जाते थे और यहां घर का एक कमरा किराए पर देकर उनके पास पैसे हो जाते थे , इसलिए वो यहां से कही जाना नही चाहती थी। जब उनका मन नहीं लगता तो वृंदा जी अपने पास ले आती थी।
सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था। जैसे तैसे जिन्दगी कट ही रही थी कि अचानक से एक दिन वृंदा जी की माँ गिर गई। कमर और टांग टूट गई, वो निसहाय हो गई। बेटा बहू ज्यादा खर्च करना नही चाहते थे सोचते थे कि जितनी जल्दी मर जाए तो ये बोझ खत्म हो और घर के दो हिस्से कर अपने अपने नाम से घर करवा ले। डॉक्टर ने ऑपरेशन करने के लिए बोल दिया था।पर उनके किसी बेटे को उनके ठीक होने की नही पड़ी थी।
ये बात जब वृंदा जी को पता चली तो उनसे रहा नहीं गया।
उन्होंने अपने भाईयों से कहा,‘‘ तुम लोगों से माँ का इलाज नही हो रहा तो बता देते.. ऐसे बिस्तर पर छोड़ कर मरने का इंतजार क्यों कर रहें हों…मैं इसका ऑपरेशन करवा दूंगी।”वृंदा जी माँ को अस्पताल ले कर गई और ऑपरेशन करवा दी।
पता नहीं क्या सोच कर उनके दोनों भाई बारी बारी से अस्पताल आते और माँ की देखभाल करने लगे या फिर समाज का सोचकर सब कर रहे थे पर ये देख वृन्दा जी को लगा चलो इसी बहाने शायद दोनों सुधर जाए।
दस दिन बाद वृंदा जी की माँ को अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी पर अभी भी वो खुद से कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं थी।मतलब नित्य क्रिया के लिए भी अब वो किसी पर आश्रित हो गई थी
वृंदा जी के बेटे ने कहा,‘‘ नानी को मामा जी लेकर जाएंगे ही ना.. जब अस्पताल आ ही रहे थे तो कुछ जिम्मेदारियां उनको भी उठाने दीजिए…आपने ऑपरेशन करवा दिया और बहुत सेवा कर दी उनकी…आपको भी आराम की ज़रूरत है तो अब आप आराम कीजिए और कुछ दिन उनको भी नानी की सेवा करने दीजिएगा।’’ पर ये क्या अस्पताल से डिस्चार्ज के बाद उनका वो भाई भाभी जो उसी शहर में रहते थे अस्पताल आए ही नहीं।
अंततः वृंदा जी बेटे बहू से बात कर के माँ को अपने साथ ले आई।अब तो एक बच्चे की तरह वृंदा जी माँ की सेवा करने लगी। बेटा बहू भी मदद करते थे पर एक बेटी की जिम्मेदारी वो बखूबी निभा रही थी।
पचपन साल की वृंदा जी अस्सी साल की माँ की सेवा करने लगी। भाईयों ने पलट कर पूछना भी मुनासिब ना समझा।
वृन्दा जी की माँ को रहते महीना होने को हो गया।
अब वो भी वृंदा जी से कहने लगी,‘‘ बेटी कब तक तुझपर बोझ बन कर रहूंगी….तेरे घर में भी छोटे पोते पोती है, तेरी बहू उनके साथ तेरा ध्यान रखती थी अब एक मैं भी यही पड़ी हूं…तू ऐसा कर मुझे अपने घर छोड़ दे….मेरा घर है मरना होगा तो वही मरूंगी….तेरे पास मुझे कुछ हो गया तो जिन्दगी भर तू ताने सुनेगी।तेरे भाई तेरे पैर के नाखून बराबर भी नहीं व्यवहार में …बेकार मेरा बोझ लिए बैठी है….वहां पहुँचा दे मुझे…सामने रहूंगी तो किसी तरह भी सेवा तो करेंगे ही।”
पर वृंदा जी के बेटे ने आगे बढ़ कर मना कर दिया और बोला,”मम्मी आप खुद से नानी को वहां पहुँचाने नही जाइएगा…पता नहीं मामा मामी उनका ध्यान रखें और नही….अभी तो यहाँ आराम से हम सब उनका ध्यान रख रहे हैं….नानी अच्छे से खा पी रही है… पता नहीं वो लोग वहाँ क्या ही करें।’’
तभी नैना ने कहा,” हाँ मम्मी जी नानी जी कह रही थी इतना अच्छा खाना वहाँ कहाँ तुम्हारी मामी बना कर खिलाती है….मुझे तो बस उबला हुआ खाना दे देती हैं कितने दिन तो एक बार ही खाना देती है…सुन कर बहुत दुख हुआ था…इसलिए उनकी पसंद का बना कर खिला देती हूँ … वैसे भी वो खाती ही कितना है …डरती रहती है …बिस्तर पर ही पेशाब पैखाना होता है जो उनको भी ठीक नहीं लगता।”
इस तरह कुछ दिन और निकल गए।
एक दिन बड़े भाई की पत्नी ने वृंदा जी को फोन किया और बोली,,”दीदी, माँ को हम घर लाने का सोच रहे हैं। आज हम आकर उनको ले आएंगे।”
वृन्दा जी कुछ ना बोली।
शाम में वृंदा जी के भाई भाभी माँ को लेने आ गए। दोनों माँ के कमरे में गए और कुछ बातें करने लगे।कमरे से फुसफुसाहट आ रही थी पर क्बासी बातें हो रही थी वो समझ में नही आ रही थी।
जब वृन्दा जी कमरे में गई तो उनके कानो में बस माँ की आवाज सुनाई दी, “वो कागज मेरे पास नही है, और जीते जी मैं ऐसा नहीं करूंगी।’’
भाई ने कहा,‘‘ तुम बहुत गलत कर रही हो माँ!! इतने दिनों से हम तुमको रखे हुए है फिर हमारे बारे में सोचो.. दो बेटियाँ हैं हमारी उनके भविष्य के लिए सोचना है…छोटे का क्या है उसका तो व्यवसाय चल ही रहा है …उसका गुजारा अच्छे से चल जाता…हमारे पास अच्छी नौकरी भी नहीं है….तनख्वाह भी इतनी नहीं कि पाँच लोगों का पेट पाल सकें फिर जितना होता है करते ही हैं।’’ वृन्दा जी सुनकर अंदर आ गई और बोली,‘‘ तुम लोग माँ को लेकर जा रहे हो तो अच्छे से ख्याल भी रखना…उसकी दवाईयां और हार्लिक्स मैं भिजवा दिया करूँगी पर इसके खाने पीने का ध्यान तुम लोग रखना।’’
तभी उनकी भाभी तपाक से बोली,”हम आप लोगों जैसा पकवान बना कर नहीं खा सकते…इतना पैसा नहीं हमारे पास….जितना होता है करते ही हैं।’’
वृंदा जी का मन किया बोल दे अपने खाने पीने में तो कटौती नहीं होता पर माँ को दूध तक नही दे सकती…..पर सामने से कुछ ना बोल सकी…वो चाहती तो बहुत थी माँ को अपने पास ही रखे पर माँ के मन का सोचकर वो मजबूर हो रही थी
( क्या वृंदा जी की माँ का सही से ध्यान रखा गया या धर ले जाने के पीछे मंशा कुछ और थी पढ़ते है अगले भाग में)
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