प्रभा जी ने कमर में खोंसी हुई.. चाबी का गुच्छा निकाला… भंडार घर खोलकर… श्वेता को आवाज़ लगाई…” लो जी कहां है बर्तन… किस में डालूं चावल… ऐसा नहीं होता कि बर्तन लेकर आए… फरमाइश चला दी.. की अम्मा दाल चावल निकाल दीजिए… सर पर निकालूं क्या…!”
तभी श्वेता भागती हुई… दो बर्तन लेकर… भंडार के दरवाजे पर खड़ी हो गई… प्रभा जी ने दोनों बर्तनों में.. एक नापने वाले गिलास से नाप कर… चावल और दाल डाल दिया… और हिदायत देते हुए बोली.. “देख.. रीमा के ससुराल से दो लोग इधर आएंगे.. उनके खाने का प्रबंध भी करना है… इसलिए एक गिलास चावल अधिक निकाले हैं… देखना बर्बाद ना होने पाए….!”
श्वेता.. “जी..!” कहकर बर्तन लेकर वहां से निकल गई…!
दस वर्ष हो गए थे… श्वेता के ब्याह को… लेकिन अभी तक उसकी हैसियत… घर में सभी कामों को.. समय पर निपटाने की जिम्मेदारी पाने वाले… एक बिना पगार के नौकर… से अधिक की नहीं थी….!
प्रभा जी के विवाह के चौथे साल में ही… उनके पति का स्वर्गवास हो गया था….।
दो साल की रीमा… और गोद में पड़े अक्षत… को अकेले संभालना.. किसी जंग लड़ने से कम नहीं था..! उनके पति एक सरकारी मुलाजिम थे.. जिसका फायदा यह हुआ कि.. पति की मृत्यु के बाद.. उनकी नौकरी पत्नी को.. यानी प्रभा जी को मिल गई… पूरे 25 सालों तक उन्होंने.. घर.. नौकरी.. बच्चे.. सब की जिम्मेदारी.. अपने कंधे पर उठाई थी..!
इन जिम्मेदारियां ने.. उनके कंधों के साथ-साथ.. उनके मन को भी.. काफी कठोर बना दिया था…।
सख्त अनुशासन.. और कठोर नियमों के ताने-बाने से बुना यह परिवार… श्वेता के लिए कठोर जेल की तरह साबित हुआ… इस जेल की जेलर थीं… प्रभा जी…!
प्रभा जी का यह मानना था.. कि उनसे बेहतर घर की बागडोर.. कोई दूसरा नहीं संभाल सकता…!
अपनी बेटी रीमा की शादी… उसकी पढ़ाई पूरी होने से पहले ही… एक योग्य लड़का.. और कुशल परिवार देखकर.. उन्होंने निपटा लिया था…!
साथ ही अक्षत जब पच्चीस साल का हुआ… तो उसे पिता की नौकरी… जो इतने दिनों से मां संभाले आ रही थी… विरासत में मिल गई… तो उसे भी नौकरी के मातहत… कोई मेहनत… किसी भाग दौड़ से नहीं गुजरना पड़ा….!
इधर अक्षत ने.. पिताजी की नौकरी हासिल की… उधर एक शरीफ खानदान ढूंढ कर… दस जगह से पता लगाकर… की लड़की तो गौ है गौ…. प्रभा जी ने श्वेता को… अपने खूंटे से बांध लिया…!
श्वेता एक बेजुबान परिंदे की तरह… दिन रात.. प्रभा जी के बातों का.. समय नियमावली का.. पालन करने की कोशिश में… लगी रहती… और प्रभा जी उन कोशिशों में कमी निकालने में…!
बेचारी श्वेता करती भी तो क्या करती… एक तो सास इतनी कठोर… ऊपर से.. पति तो दिन-रात मां के ही नाम की माला जपते… और जपते भी क्यूं ना… मां ने इतना संघर्ष जो किया था… उन्हें पालने में…!
वैसे संघर्ष तो सभी माता-पिता करते हैं… लेकिन प्रभा जी का संघर्ष तो… उनके खानदान की मिसाल बन गया था… कितने अनुशासित तरीके से… सब कुछ संभाल कर… दोनों बच्चों को सेटल कर ली…!
इसलिए श्वेता भी… उनका बहुत सम्मान करती थी…।
घर में अगर किसी की अहमियत थी… तो वह थी प्रभा जी की… उनकी इच्छा के बगैर.. उनका पोता तक खेलने ना जाता… चार बार पूछता…” दादी खेलने जाऊं… दादी जाऊं… दादी जाऊं….!”
जब तक दादी पलट कर ना बोले…” हां जा…!” वह घर से ना निकलता…!
इसी के जन्म के समय तो.. श्वेता के घर वालों से नेग लाने में… कुछ कमी हो गई.. तो आज तक श्वेता मायके ना जा पाई थी…!
शादी के दस सालों में.. दो पोते.. और एक पोती से.. प्रभा जी का आंगन.. खुशियों से भर गया था… वे खुद भी भीतर से बहुत खुश थीं… अपना कुशल नेतृत्व और खिलखिलाता घर आंगन देखकर…!
पर इस कुशलता के पीछे… इस नेतृत्व का मान रखनेवाली… श्वेता की अहमियत… उनकी नजरों में आज भी वही थी… जो दस साल पहले थी… उसका त्याग… बलिदान… चुप रहकर.. सास के ताने सुनना.. मायके का आंगन छोड़ देना… इसका मतलब उन्हें केवल यही लगता था.. कि यह मेरे रुतबे का असर है…!
घर में क्या बनेगा… कितना बनेगा… कौन आएगा… कौन जाएगा… सबका अधिकार और निर्णय केवल प्रभा जी ही करती थीं…!
यहां तक की… भंडार घर में हर वक्त ताला लगा रहता… वहां से जो निकालना हो वह प्रभा जी ही निकाल सकती थीं…!
हद तो तब हो जाती… जब मेहमान आए… और खाना खत्म हो जाए… तो बेचारी श्वेता.. जो बचा खुचा हो.. वही खाकर काम में लग जाती… लेकिन दोबारा खाना नहीं बनता…!
इतना शासन… इतनी कठोरता… आखिर कब तक बर्दाश्त की जाती…!
आखिर एक दिन गूंगी गुड़िया बोल पड़ी… अब उसे काहे का डर था… बच्चे बड़े हो गए थे… एक मां को सबसे ज्यादा डर… अपने बच्चों के भविष्य का होता है… वह सबसे पहले यह सोचती है.. कि बच्चों पर क्या असर पड़ेगा.. उसके किसी गलत कदम का…!
अपनी स्थिति सुधरने का इंतजार करते-करते.. एक दिन उसके सब्र का बांध टूट गया….!
मेहमान आए.. खाना बना…. दो के बदले चार लोग आ गए… सभी लोग.. उसके… उसके बच्चों का हिस्सा… खा पीकर चलते बने….!
वह खुद तो कई बार… इस तरह भूखी रह चुकी थी.. पर बच्चों का भूखा रहना… बर्दाश्त ना कर पाई….!
सीधे प्रभा जी के पास चली गई और बोली..” अम्मा खाना खत्म हो गया… चावल दाल दीजिए…!
प्रभा जी खा पी कर… आराम कर रही थीं… उंघते उंघते बोलीं… अभी मुझे उठा ना जाएगा… जब उठूंगी तो निकाल दूंगी….!
श्वेता से रहा ना गया… बोली..” अम्मा बच्चों ने भी कुछ ना खाया है…!”
बच्चों का नाम सुन… दादी उठ खड़ी हुई… भंडार में गई… नाप कर चावल दाल निकाले… तो श्वेता ने कहा…” अम्मा और दे दो… इतने से नहीं होगा…!
अम्मा चिल्ला पड़ी… “नहीं होगा… नहीं होगा से क्या मतलब है… पूरे भंडार में.. पानी डालकर.. चूल्हे पर चढ़ाएगी क्या…!”
श्वेता से रहा ना गया.. बोल पड़ी..” मुझे बहुत जोर की भूख लगी है.. अम्मा और दे दो ना चावल…!” प्रभा जी आंखें तरेर कर.. एक मुट्ठी चावल और डालकर… बोली..” जा ले जा…!”
पता नहीं उस दिन श्वेता का सोया अहम कहां से जाग उठा.. बोली..” अम्मा और कितने दिन चावल दाल नापेंगी…. इतने दिनों से आप ही से तो सीखा है… मैं कोई ज्यादा थोड़े ना बना दूंगी… दरवाजा खुला रहने दीजिए… जब जरूरत होगी.. निकाल लूंगी… आपको भी परेशानी नहीं होगी….!”
प्रभा जी ताला लगा… कमर में चाबी खोंसते हुए बोलीं…” देख यही अंतर है… तेरे सोच में… यह परेशानी नहीं… यह मेरी अहमियत है… तू ना समझेगी…!”
बात श्वेता को छू गई…. वह रसोई तो गई… बच्चों को खाना खिला दिया… पर खुद भूखे ही रह गई… चावल बचाकर रख दिया… उसे कौन देखने वाला था… दूसरे दिन भी… इसी तरह.. सबको खिलाकर.. अपने हिस्से का चावल बचा कर रख दी… तीसरे दिन भी यही किया… और चौथे दिन चावल मांगने ही ना गई….!
प्रभा जी इंतजार करती रहीं… खाने का समय हो गया.. पर श्वेता चावल ना ले गई… क्या हुआ… उठकर गई तो देखा खाना तैयार है… अपनी चाबी का गुच्छा टटोला… तो वह भी जगह पर था… वह पूछ बैठी… “क्यों री… चावल कहां से आए…?”
श्वेता कुछ ना बोली…!
सास गुर्राई..” बोल चावल कहां से आए…!”
श्वेता हल्की आवाज में बोली…” मेरे पास रखे थे… मैंने बना दिए… तेरे पास कहां से आए….?”
तो छोटी बिट्टो बोल पड़ी…” दादी मां ने तीन दिनों से भात नहीं खाया…!
प्रभा जी बोली..” ये क्या बात हुई… तूने अपना खाना क्यों नहीं खाया…! तुझे खाने से कौन रोक रहा है… पाप लगा रही है मुझे….!”
श्वेता बोली…” जिस घर में मेरी अहमियत नहीं है… वहां खाना क्या खाना…!
प्रभा जी चुप…..!
थोड़ी देर बाद बोली….” अरे श्वेता… पागल ना बन… बीमार पड़ जाएगी… खाना खा ले…!”
पर श्वेता अड़ी रही…!
अब तो बेचारी सासू मां को कुछ समझ ना आए… करें तो क्या करें… पहले तो खूब चिल्लाई… डांटा.. तेवर दिखाये… पर बहू चुपचाप… अनशन पर डटी रही… तो उनके तेवर ठंडे पड़ गए….
रात हो गई… आज घर में किसी ने खाना न खाया…
अब जाकर प्रभा जी को एहसास हुआ… कि उनका रुतबा और शासन नहीं था… जो गृहस्थी की गाड़ी आराम से चल रही थी… इसके पीछे… उनकी बहू की समझदारी.. सहनशीलता.. और सहयोग ही था… जो इतने दिनों तक उनका रौब और मालिकानापन चलता रहा….!
दूसरे दिन सुबह… प्रभा जी ने भंडार का ताला खोल दिया… चाबी का गुच्छा.. कमर से निकाल कर संदूक में डालकर… आज कई सालों के बाद रसोई में घुसी.. कुछ बनाने को.. वरना श्वेता के आने के बाद से तो.. उन्होंने रसोई का रास्ता ही छोड़ दिया था…!
खुद से खीर बनाई… और श्वेता के कमरे में जाकर देखा… तीन दिनों के उपवास में उसका शरीर पीला पड़ गया था… एकदम कमजोर लग रही थी… उन्होंने प्यार से उसके सर पर हाथ रखा… और बोलीं…. “आज मुझे एहसास हो गया… मेरी बच्ची.. इस घर में तेरी क्या अहमियत है…! ऐसा कठिन व्रत करना पड़ा तुझे… अपनी अम्मा को समझाने के लिए… मुझे माफ कर दे…. चल खीर खा ले… और संभाल अपनी गृहस्थी….! घर में घर के हर सदस्य की अहमियत अपनी जगह होती है… कोई उसकी जगह नहीं ले सकता… तू इस घर की गृह लक्ष्मी है… अगर तू बीमार पड़ गई…. घर को ना संभाला.. तो यह घर तो बिखर ही जाएगा.. चल संभाल अपना घर… अपना भंडार… अपनी रसोई… और अपनी सास को भी… श्वेता की आंखों से भड़भड़ा कर आंसू बह निकले… प्रभा जी ने उसे गले से लगा लिया…..!
यह कहानी तो हैप्पी एंडिंग हो गई… लेकिन असल जिंदगी में ऐसा नहीं होता… जिन घरों में ऐसी सासू मां होती है… वहां बहू केवल दिन गिनती है… सासू मां के अच्छे से बुड्ढे होने का… उन्हें सबक सिखाने का…” अपना टाइम आएगा” की तर्ज पर… आपको क्या लगता है… जरूर बताइएगा….!
स्वलिखित मौलिक अप्रकाशित
रश्मि झा मिश्रा
very true story 80 se 90 ke dashak ki adhiktar badi bahu is dour se gujri h