जूही ने खिड़की के बाहर झाँकते हुए गहरी सांस ली। हल्की ठंडी हवा उसके चेहरे से टकराई, पर मन में उठते सवालों की गर्मी कम नहीं हुई। उसने मन ही मन सोचा—क्यों जन्मों की आस लगाए बैठे हैं हम? जब ये जीवन हमारे पास है, तो उसी में खुशियां क्यों न तलाशें?
संबंधों की चमक पर दिखावे की धूल
वह रसोई में चाय बना रही थी, तभी रितेश की आवाज़ आई—
“जूही, मम्मी की दवा कहां है?”
जूही ने चाय में अदरक कूटते हुए बिना सिर उठाए कहा, “ख़त्म हो गई होगी।”
रितेश झुंझलाकर बोला, “महीने भर पहले ही तो लाकर दी थी!”
मम्मी धीरे से बोलीं, “बृजेश की पोती को खाँसी हो गई थी, तो उसे दे आई थी।”
रितेश का चेहरा तमतमा गया, “मतलब मैं लाऊं और आप बांटते रहें? ये कौनसी बात हुई?”
जूही को ये सब अच्छा नहीं लगा। वह आगे कोई बहस न बढ़ाते हुए मम्मी को रसोई में ले आई, लौंग सेककर उन्हें दी और प्यार से बोली, “इसे चूस लीजिए, आराम मिलेगा।”
मम्मी धीमे-धीमे चलते हुए अपने कमरे में चली गईं। रितेश बिना कुछ कहे टिफिन उठाकर ऑफिस निकल गया।
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अंतहीन शिकायतों का अंत
तभी फोन बजा। स्क्रीन पर ‘अंजलि भाभी’ का नाम चमक रहा था।
“बोलो, मैडमजी, कैसे याद किया?” जूही ने हंसते हुए कहा।
अंजलि के शब्दों में थकान और मायूसी झलक रही थी, “भाभी, इस घर में ये सब कब तक चलेगा? मैंने सोचा था कि हम सब साथ मिलकर खुश रहेंगे, मस्ती करेंगे, लेकिन यहां तो हर कोई अपनी दुनिया में बंद है।”
जूही गहरी सांस लेकर बोली, “समझती हूं भाभी। मम्मीजी और मेरी कोई सुनता है क्या? इन्हें लगता है कि औरतों के पास दिमाग नहीं होता। आज ही मैंने सोचा कि अगला जन्म मिला तो भगवान मुझे इस घर की बहू मत बनाना।”
अंजलि ने ठहाका लगाया, “अगला जन्म किसने देखा है, भाभी? हमें यही ठीक करना पड़ेगा।”
“कैसे?”
“हम अपने बच्चों को एक-दूसरे के घर भेजते हैं। जब वो साथ रहेंगे, तो अपनापन खुद-ब-खुद पनपेगा।”
जूही को ये विचार पसंद आया। “ओके डन! लेकिन दादी को मनाना पड़ेगा।”
अंजलि हंस पड़ी, “दादी जिंदाबाद!”
बच्चों की मासूमियत में छिपा अपनापन
शाम होते-होते मारिया अपने चाचा ब्रजेश के घर पहुंच गई और अमूल्य अपने ताऊजी रितेश के पास।
रितेश ऑफिस से लौटा तो अमूल्य भागकर उससे लिपट गया, “ताऊजी, ताऊजी!”
रितेश चौंका, “अरे, ये यहां?”
जूही ने हाथ बांधकर कहा, “छुट्टियां बिताने के लिए और क्या जगह है बच्चों के पास? इसीलिए दादी ले आईं।”
रितेश ने कुछ नहीं कहा, पर अनजाने ही उसके होंठों पर मुस्कान आ गई।
उधर, ब्रजेश के घर में भी कुछ ऐसा ही हुआ। मारिया ने ज़िद पकड़ ली—”चाचा, मैं छुप जाऊं, आप ढूंढो!”
ब्रजेश ने पहले टालने की कोशिश की, लेकिन जब मारिया ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, तो अंजलि ने धीरे से कहा, “अगर ये तुम्हारी भतीजी होती, तो भी तुम यूं ही टालते?”
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ब्रजेश रुका, फिर मुस्कुराकर बोला, “अच्छा बाबा, खेलते हैं!”
मारिया टेबल के नीचे छिप गई। ब्रजेश ने देख लिया, लेकिन जानबूझकर ढूंढने का नाटक करने लगा। कुछ देर बाद मारिया खुद ही चिल्लाई, “अरे चाचा, टेबल के नीचे तो देखो!”
ब्रजेश हंस पड़ा और उसे गोद में उठा लिया।
छोटी खुशियों की बड़ी अहमियत
रात में अमूल्य ने ताऊजी से आइसक्रीम की ज़िद की। रितेश पहले टालने लगा, फिर उसकी मासूमियत देख खुद भी उसके साथ आइसक्रीम खाने चला गया। दोनों की खिलखिलाहट कैमरे में कैद हो गई।
उधर, मारिया ने भी ब्रजेश से पूछा, “चाचा, आप हमारे साथ क्यों नहीं रहते? पापा से नाराज़ हो?”
ब्रजेश के पास कोई जवाब नहीं था। उसने अंजलि को बुलाया और कहा, “चलो, घर चलते हैं।”
गाड़ी सीधी रितेश के घर के सामने रुकी।
रितेश अमूल्य के साथ कैरम खेल रहा था। ब्रजेश मारिया को गोद में उठाए खड़ा था।
“भैया…”
रितेश ने एक नजर उसे देखा और भीतर जाने लगा।
तभी मारिया भागकर उसके पास आई और कान में कुछ फुसफुसाई।
रितेश ठिठक गया, फिर धीरे से ब्रजेश की ओर मुड़ा।
ब्रजेश ने गहरी सांस ली, “भैया, मारिया ने मेरी आँखें खोल दीं। छोटी-छोटी खुशियों को छोड़कर हम बेकार ही दिखावे के पीछे भाग रहे थे। अगला जन्म किसने देखा? जो मिला है, उसी में खुश रहना सीखना होगा।”
रितेश की आँखें नम हो गईं। उसने ब्रजेश को गले लगा लिया।
पीछे खड़ी जूही और अंजलि तालियां बजाने लगीं।
तभी मम्मीजी भी आ गईं।
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दोनों भाइयों ने उनके पैर छुए।
मम्मीजी ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बच्चे पास रहें, खुश रहें, हमें और क्या चाहिए?”
जूही मुस्कुराई, “और साथ-साथ रहें, है ना मम्मीजी?”
मम्मी ने दोनों बच्चों को गले लगाया, “आज तुम दोनों की वजह से मेरा घर फिर से बस गया।”
अमूल्य चहक उठा, “दादी, ये सब मम्मी और चाची के कारण हुआ है!”
मम्मीजी ने दोनों बहुओं को ढेर सारा आशीर्वाद दिया और बोलीं, “हर जन्म में तुम जैसी बहुएं ही मिलें।”
जूही चहक उठी, “अबकी जन्म में बेटियां बनकर आएंगे, मम्मीजी!”
मम्मीजी ने सिर हिलाया, “नहीं रे, बेटियां पराई हो जाती हैं। बहुएं तो हमेशा के लिए अपनी होती हैं।”
अमूल्य ने फोन निकाला, “चलो, अब ग्रुप सेल्फी हो जाए!”
सभी ने खुशी-खुशी पोज दिया, और कैमरे की ‘चीज़’ वाली आवाज़ के साथ एक नई याद कैद हो गई—
स्नेह बंधन ही तो था कि fएक परिवार फिर से पूरा हो गया।
लेखिका : दीपा माथुर
स्नेह का बंधन