क्या देख रही हो अरुणा? अफसोस हो रहा है? यह सोच कर के काश मैं अपनी हठ छोड़ दी होती तो आज हम शर्मा जी के जैसे ही सपरिवार दिवाली मना रहे होते! सच बताओ उन्हें ही देख रही हो ना तुम? अशोक जी ने अपनी पत्नी अरुणा से कहा
अरुण जी: कैसा अफसोस? कोई अफसोस नहीं हो रहा मुझे! मैं तो बस इधर बालकनी में दिए रखना आई थी, तो मेरी नजर उन पर गई, आखिर हमारी बालकनी से उनकी बालकनी है भी कितनी दूर? आप तो बस! सुनिए, छत पर जाकर यह दिए रख आइए, मुझे सीढ़ियां चढ़ी नहीं जाती।
अशोक जी: अरुणा, चाहे तुम कुछ भी कह लो, मैं क्या नहीं जानता तुम्हारे दिल की हालत? रवि को हल्का सा बुखार भी आ जाता था, तो तुम सारा काम छोड़कर उसकी सेवा में लग जाती थी, उस वक्त उसकी खुशी के लिए तो भगवान से भी लड़ जाती थी, पर आज तुम जरा सा झुक नहीं पाई? जिसकी वजह से आज हमारी दिवाली ऐसे बीत रही है।
अरुणा जी: आपको भी ऐसा लगता है कि गलती मेरी ही थी? मैंने तो उससे नहीं कहा था कि हमें छोड़कर चले जाए?
आखिर दोनों पति-पत्नी ऐसी बातें क्यों कर रहे थे? यह जानने के लिए चलते हैं थोड़ा पीछे, आज अरुणा जी के पांव जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे, क्योंकि आज उनके इकलौते बेटे रवि की शादी थी। रवि अपने माता-पिता की आंखों का तारा, बड़ा ही शांत सुशील लड़का था। शादी अरुणा जी की पसंद की हुई लड़की गरिमा के साथ ही हो रही थी।
सब कुछ साधारण सच चल रहा था और बड़े ही धूमधाम से रवि की शादी हो जाती है। गरिमा भी स्वभाव से सरल और शांत थी। सारा कुछ देखकर ऐसा लग रहा था मानो इतना खुशहाल परिवार और कहां होगा? पर शायद इस परिवार की खुशहाली को किसी की नजर लग गई। हुआ यूं कि हमेशा से ही घर में बस अरुणा जी की ही चली, तो जाहिर सी बात है बहू के आने के बाद भी ऐसा ही होगा। पर घर परिवार को अरुणा जी ने जैसे पहले संभाला था, उसे थोड़ा अलग हो गया।
गरिमा की पहली रसोई थी तो अरुणा जी ने कहा, बहू! सबसे पहले खीर बना लो, उसके बाद दोपहर में क्या बनेगा? बताऊंगी और दोनों साथ बना लेंगे।
गरिमा ने हां मैं सर हिलाया, इधर अरुण जी उसके सामने सारा सामान रखकर रसोई से चली गई। गरिमा ने सोचा खीर तो मैं बना ही रही हूं, साथ में पुरियां भी बना लेती हूं, मम्मी जी को फिर एक सब्जी ही बनानी रह जाएगी। वह भी मैं पूछ कर बना दूंगी, वैसे मैंने सुना है इन्हें खीर पूरी काफी पसंद है, गरिमा यह सब कह कर फटाफट काम में लग गई और जब अरुणा जी वापस रसोई में आई तो, उन्होंने गरिमा को पुरिया तलते देखा, वह एकदम से हैरान हो जाती है और बस गरिमा को फटे मुंह देखने लगती है, फिर उन्होंने कहा बहू यह सब क्या है?
गरिमा: मम्मी जी! मैंनें पुरिया भी बनाई है, बस एक सब्जी बना दूंगी तो दोपहर का खाना हो जाएगा। आप मुझे बता दीजिए कौन सी सब्जी बनेगी? उसके बाद आप आराम कीजिए, बेचारी गरिमा ने तो अपने सास के आराम के बारे में सोचा, पर यहां अरुणा जी ने तो कुछ अलग ही सोच लिया। वह एकदम से भड़ककर कहती है, बहू किसने कहा, तुमसे पूरी बनाने के लिए? मैंने तुमसे बस खीर बनाने के लिए कहा था, दोपहर में पूरी कौन खाता है?
तुम्हें क्या लगता है यह सब करके तुम मेरी जगह ले लोगी? देखो बहू, तुम अभी-अभी इस घर में आई हो, तो एक बात तुम्हें साफ-साफ बता दूं, इस घर में मेरे कहे मुताबिक ही सब चलते हैं, यहां तक की रवि भी, तो तुम यह मत सोचना कि यह सब कुछ बदलेगा, जैसा कहती हूं बस उतना ही करो।
गरिमा ने तो इतना सोचा ही नहीं था। उसने तो सोचा था कि अकेली वह और उसकी साल दोनों सास बहू कम सहेलियों की तरह रहेगी। पर यहां तो अरुण जी सास भी बन जाए काफी है, यह तो तानाशाह है, जो बस अपना शासन और राज चलाना चाहती है। खैर फिर गरिमा ने सोचा, चलो धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। इतने सालों जिस घर को संभाला है तो उसमें बदलाव नहीं करना चाहती। पर जल्दी ही गरिमा की गलतफहमी दूर होने वाली थी।
घर पर हवन का आयोजन किया गया था। उसके लिए गरिमा को कौन-कौन से काम करने हैं यह अरुणा जी ने पहले ही कह दिया था। और कहा था जब तक हवन की तैयारिया संपन्न ना हो जाए उसे मौन रहना है। गरिमा कर भी रही थी चुपचाप सारे काम, पर जमीन पर घी गिरे होने के कारण अचानक उसका पैर फिसल गया और वह एकदम से चीख पड़ी, जिससे उसका मौन टूट गया। पहले पहल तो सब चिंतित हो गए, अरुणा जी भी।
फिर जैसे ही गरिमा ने कहा कि वह बिल्कुल ठीक है, अरुणा जी भड़क गई और कहने लगी एक काम ढंग से नहीं कर सकती? तोड़ दिया ना मौन? बर्बाद कर दी ना हवन? हो गया अपशगुन? और भी बहुत कुछ वह कहने लगी, जिस पर गरिमा रोने लगी और हमेशा अपनी मां की बात मानने वाला रवि भी बोल पड़ा, मां यह सब क्या है? वह क्या जानबूझकर ऐसा करेगी? आप तो बस उसके पीछे ही पड़ी रहती हो, जितना वह सहती है उतना आप उसे सताती हो। जब आपको उससे इतनी ही दिक्कत है तो अब हमें अलग ही रहना चाहिए, यह रोज-रोज के किचकिच से दूर रहने की शांति भली।
रवि के इस बात पर अशोक जी कहते हैं, यह क्या कह रहा है बेटा? तेरी मां को तो तू जानता ही है वह तुझे कितना प्यार करती है, बस इसलिए यह सब कह जाती है, मैं समझा दूंगा उसे, पर घर छोड़ने की बात मत कर ।
रवि: पापा मैं भी मां से उतना ही प्यार करता हूं, जितना कि वह। मैं तो हर समय गरिमा से भी यही कहता रहता हूं की, मां जैसी बनो, उनसे सीखो, पर पापा मां गरिमा को अपनाना ही नहीं चाहती। अब यह भी अच्छा नहीं लगता ना? आखिर गरिमा को मेरे लिए तो उन्होंने ही पसंद किया था ना?
मां को लगता है गरिमा मुझे मां से दूर कर देगी, जो की बिल्कुल गलत है। मां की जगह अलग है और पत्नी की जगह अलग। काफी बहस छिड़ गई वहां, पर ताज्जुब की बात यह थी कि अरुणा जी बिल्कुल खामोश खड़ी थी। आखिर में रवि और गरिमा अलग रहने चले गए और आज अशोक जी अरुणा जी में इसी की बात चल रही थी। जहां अशोक जी कहते हैं, अरुणा, क्या हम उन्हें मना नहीं सकते? गलती तुम्हारी ही थी यह बात तुम भी जानती हो, तो क्या इसे स्वीकार लेने में तुम्हारे अहंकार को ठेस पहुंचेगी?
अरुणा जी: आप गलत समझ रहे हैं मुझे, चाहती तो थी, कभी किसी को यह बात ना बताऊं, पर आप भी मुझे गलत समझे यह मैं नहीं चाहती। आपने सही कहा कि हमारे बेटे बहु काफी अच्छे हैं और मैंने भी हमेशा इस घर को अपनी मर्जी से चलाया है और शायद उसी का असर है मेरा बेटा राम जी के जैसा बेटा तो बन गया पर राम जी सिर्फ अच्छे बेटे ही नहीं थे, अच्छे पति भी थे और शायद इस घर में रहते हुए, हमारे साथ रहते हुए वह राम जी का एक ही किरदार निभा पाएगा।
अशोक जी हैरान होकर: तुम कहना क्या चाह रही हो? साफ-साफ बताओ ना, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा हैं।
अरुणा जी: जानते हैं मैंने कई बार रवि को गरिमा और मेरी तुलना करते हुए देखा है। बेचारी कितना भी कुछ कर ले उसे हमेशा यही सुनने को मिलता, के मां के जैसा नहीं है, तुम उनसे सीखो, तुम मां जैसा बन नहीं सकती, इसमें कुछ बुराई नहीं है, पर जब हर वक्त इसी तरह से रवि तुलना करता ही रहेगा, गरिमा के मन में वह उसके प्रति प्यार और लगन को घटाता जाएगा।
एक बार तो हद ही हो गई गरिमा ने शादी का महीना पूरा होने की खुशी में, उसके लिए कमरे में साज सजावट की, खुद तैयार हुई, रवि ने तो उसकी तारीफ छोड़िए, पता है क्या कहा उसने? कहा यह सब नाटक इस घर में नहीं होता, कैसा लगेगा मां पापा को? तुम आजकल की लड़कियां पता नहीं इतना ढकोसला कर कैसे लेती हो?
मैंने उस वक्त गरिमा का चेहरा देखा और तभी तय कर लिया, इसे राम जी के जैसा पति भी बनाना होगा, जो कि इस घर में रहकर संभव नहीं था। इसलिए हवन के दिन मैंने यह तमाशा किया, ताकि रवि ऐसा ही कोई निर्णय ले। हां यह बात भी सच है कि मैं भी शुरू-शुरू में रवि को खोने के डर से गरिमा से रूखा व्यवहार करने लगी थी। पर रवि का रूखा व्यवहार मुझे सच्चाई दिखा गया। पता है हम औरतें भी बड़ी अजीब होती है,
मां बनने के बाद हमारी दुनिया हमारे बच्चों तक ही सीमित हो जाती है, और जब 25 से 30 साल बाद कोई एकदम से हमारे बच्चों के जीवन में आ जाता हैं, उनका ध्यान और परवाह करने लगता हैं, हम उसे तुरंत स्वीकार नहीं पाते, पर हम यह भूल जाते हैं यही जीवन का चक्र है। हम आज हैं पर कल नहीं रहेंगे, तब तो यही एक दूसरे का सहारा होंगे, तो उसकी नींव का निर्माण तो अभी से ही होगा ना। बस जिस दिन सारी औरतें यह समझ लेगी सारा क्लेश ही खत्म हो जाएगा।
आज भले ही रवि और गरिमा हमसे दूर है, पर वहां तो रवि को हमारी चिंता नहीं होगी ना? तो जाहिर है वह तुलना करना भी बंद कर देगा। पर मां वह तो आप मुझसे कह भी सकती थी ना? मुझे दूर करके ही समझाना जरूरी था? पीछे से अंदर आते हुए रवि ने कहा
जब अशोक जी और अरुणा जी पीछे मुड़े तो वह हैरान ही हो गए, नए कपड़े पहने रवि और गरिमा दरवाजे पर खड़े थे और उन्होंने सारी बातें सुन ली थी। वह दिवाली साथ मनाने आए थे। फिर गरिमा कहती है, मैंने तो हमेशा बेटे बहु को लड़वाने वाली सास देखा है, पर यह कौन है जो बेटे को राम जैसा पति बनाने के लिए खुद कौशल्या बनकर जुदाई सहने को भी तैयार हो गई? सच में आज दिवाली तो असली में हमारी मनी। मैं कितनी खुशकिस्मत हूं। पता नहीं सीता जी के समान कभी मैं बन सकूंगी या नहीं? पर मेरी नज़र में आप हमेशा कौशल्या माता ही रहेंगी और राम पर सबसे पहला हक आपका ही होगा।
वहां मौजूद सभी के आंखों में आंसू थे और दिवाली की रौनक सिर्फ बाहर ही नहीं, अंदर भी थी।।
धन्यवाद
#अफसोस
रोनिता कुंडु