“हमारे मोहित को तो मीना कुमारी ही चाहिए। उसे और कुछ नहीं चाहिए। बस उसकी भावी पत्नी पढ़ी लिखी, समझदार और मीना कुमारी जैसी सुंदर होनी चाहिए।”
मदनमोहन जी बड़ी शान से अपने योग्य पुत्र का बखान कर रहे थे। वे लोग श्यामसुंदर जी की बेटी निशि को देखने आए हुए थे। तभी मोहित की माताजी बोल पड़ीं,”आपकी निशि को देख कर उसकी तलाश पूरी हो गई हैं।”
निशि के माता पिता और सभी घर के लोग फूले नहीं समा रहे थे। इतनी कन्याओं को नापसंद करने के बाद उस सुदर्शन मोहित ने उनकी बेटी पर रजामंदी की मुहर लगा दी थी। सबकी सहमति से उन दोनों को परस्पर बातचीत के लिए एकांत में छोड़ दिया गया।
“आपको कैसा लगा रहा है? हमने आपको पसंद कर लिया है। आप तो साक्षात् मीना कुमारी का अवतार ही तो हैं। पाकीज़ा तो आपने देखी ही होगी।”
मोहित ने इतरा कर पूछा था।
“जी, बहुत अच्छी सुखद अनुभूति हो रही है। आप भी तो देवानंद जी से कम नहीं हैं।”
वो फूल कर चौड़ा हो गया और पूछ बैठा,
“आप खाना तो बनाती ही होंगी। क्या क्या बना लेती हैं?”
इस बार निशि ऐसे चौंकी मानो मधुमक्खियों के छत्ते पर हाथ डाल दिया हो… झल्ला कर बोली,
“आप अपनी मीना कुमारी को किचन में घुसाएंगे। छी छी ,असली मीनाजी तो शायद ये सब कभी नहीं करती। पाकीज़ा में नायक उनके सुंदर पैरों को जमीन पर भी नहीं रखने की सलाह देते हैं।”
वो भी चिढ़ कर कह बैठा,” तो आप स्वयं को असली मीना कुमारी ही समझने लगीं?”
तुरंत उत्तर मिला,
“जी हाॅं! आपको भी मैं असली देवानंद ही समझ रही हूॅं। सुनिए, मुझे आपकी मीना कुमारी नहीं बनना। मैं साधारण सी लड़की निशि हूॅं और अपना यही अवतार मुझे पसंद है। जाइए, अपनी तलाश जारी रखिए।”
नीरजा कृष्णा
पटना