*अबूझा रिश्ता* – सरला मेहता

यशोधराराजे ने एक  समारोह में जब से स्वर्णिमा को देखा, उसको भुला नहीं पा रही है। हिरनी सी आँखे, सुती हुई नासिका और कमर से नीचे झूलते केश। कंचन काया किसी जेवर की भी मोहताज़ नहीं। उसके सहज सरल स्वभाव की तारीफ़ करते पति से मन की बात कह डाली, ” शौर्यवीर की जीवनसंगिनी मुझे मिल गई है। बस आप कैसे भी यह रिश्ता जमाओ।” और  सचमुच ख़ुदा ने  मानो यह खूबसूरत जोड़ी पहले ही तय कर दी थी।

बाबासा की लाड़ली के आँखों के सामने चलचित्र की तरह दृश्य गुज़रने लगे,,, माँसा को वह फूटी आँखों नहीं सुहाती, वह माँ के प्यार के लिए तरसती रहती। एक दिन उसने सुन ही लिया माँ को कहते,” अपने पाप को आप ही सम्भालो। वह तो गनीमत मैंने इस मनहूस के साथ इतने साल बिताए।” बाबासा हाथ जोड़ते बोले थे, “अब तुम खुश हो जाओ।  यह अभागन भी अपने घर चली जाएगी।” स्वर्णिमा ससुराल का सोचकर भी डर जाती है। पता नहीं वहॉं उसे किन परिस्थितियों का सामना करना पड़े।

फ़िर भी हवेली निवासिनी स्वर्णिमा दुल्हन बन महल में आ गई। राजकुमारी तो वह थी ही अब रानी जी बन गई। सासूमाँ सा व दाताहुजूर ऐसी प्यारी बहुरानी पाकर निहाल हो गए। 

पुलिस सुप्रिण्डेन्ट शौर्यवीर साहब को मानो स्वर्ग का खज़ाना ही मिल गया। इस खूबसूरत जोड़े को देख, किसी को भी  शौर्यवीर की किस्मत से ईर्ष्या हो सकती। माँ यशोधरा इतवार बुधवार आया नहीं कि बेटे बहु की नज़र उतारना नहीं भूलती। स्वर्णिमा को बस सज संवर कर बैठना है या पीछे बाग में जा फ़ूलों को निहारना और झूला झूलना। अंग्रेजी साहित्य में पी जी किया है। यूँ भी बड़ी विदुषी है व पढ़ना लिखने की शौकीन है। बस फ़िर क्या था पति महाशय ने एक कमरे में लायब्रेरी ही बनवा दी। सास ससुर का लाड़ दुलार इतना कि शौर्य की ही क्लास लग जाती, “बहु को अपना जयपुर घुमाओ, मूव्ही दिखाओ, शॉपिंग कराओ। बस कमरे में ही बातें करते रहोगे क्या ? “

स्वर्णिमा को ननद हेमकुंवर के रूप में एक सखी भी मिल गई। उसके साथ कहानी किस्सों में कब दिन निकल जाता पता नहीं चलता।

शौर्य भी कोई अवसर नहीं छोड़ता अपनी प्रिया को घुमाने का। साहब के साथ मेम साहिबा भी टूर पर, मिया जी अपना काम करते और बीबी जी अपनी साहित्य साधना। 

बीच बीच में स्वर्णिमा को अपने माँ बाबा से मिलाने ले जाते। लेकिन एक शर्त पर कि जब तक वे पीहर में रहेंगी जँवाई राजा भी अपने ससुराल में डटे रहेंगे। ऐसे में माँसा भी चुटकी लेने से नहीं चूकती,” कभी तो मेरी बहुरानी का पल्लू छोड़ दिया कर। ” शौर्य भी कहाँ पीछे रहने वाला, “दाताहुजूर के नक्शे कदम पर ही चल रहा हूँ।” किन्तु शौर्य समझ नहीं पाते कि बीबी जी मायके जाने में क्यों कतराती है।




एक दिन तो खुशियाँ और भी खिलखिलाने लगी। डॉ साहिबा ने स्वर्णिमा के पैर भारी होने की खबर क्या दी माँसा के पैर जमीन पर नहीं टिक रहे हैं। मिठाइयों का भंडारा ही खुल गया। स्वर्णिमा रानी के लिए हिदायतों के लम्बी फ़ेहरिस्त तैयार हो गई। शौर्य साहब की भी कान खिंचाई होने लगी, “बहु को क्या गोद में ही उठा लोगे। अब तुम उससे ज़रा दूर ही रहा करो वरना आगे से तुम्हारी बीबी अपनी माँसा के कमरे में शिफ्ट हो जाएगी, समझे बच्चू।”

        शौर्य साहब के लिए आदेश मिला , “आपको सीक्रेट मिशन पर  दिल्ली जाना है। ” स्वर्णिमा की जान ही निकल गई। उसके लिए भी एक खास मिशन ही चल रहा था। ऐसे में पति के साथ जाना सम्भव नहीं था। किंतु माँसा ने सोचा, ” बहु की ऐसी हालत में शौर्य का दूर रहना ही ठीक है। ” 

शौर्य के जाने के बाद ननद भौजाई की गुटरगूँ चलती रहती। बातों बातों में पता चलता है कि हेम का किसी विजातीय बन्दे से चक्कर चल रहा है। इसीलिए वह शादी के रिश्तों को नकारती रहती है। स्वर्णिमा उसे हर तरह से समझाती है कि ऐसे खुद तय किए रिश्ते सफ़ल नहीं होते। वह कुछ किस्से सुना ग़लत राह पर जाने के अंजाम बताती है। आख़िर हेम भी मान जाती है और एक अच्छे खानदान का रिश्ता स्वीकार कर लेती है।

शरद पूर्णिमा को एक राजकुमारी का आगमन होता है। शौर्य ने नाम भी रख दिया चाँदनी। है भी माँ की प्रतिछाया। और पापाहुजूर की कद काठी ने चार चाँद लगा दिए।

         दिल्ली से लौटने के बाद स्वर्णिमा को अपने सरकार कुछ बदले बदले से लगने लगे। चाँदनी को खिलाते खिलाते यकायक खामोशी ओढ़ लेते। स्वर्णिमा याद दिलाती,     “किन सोचों में गुम हो जाते हो चाँदनी के पापा जी। ” प्रति माह दो तीन घन्टों के लिए पता नहीं कौनसा सरकारी काम आ जाता है। घर आकर थकान का कह कर बिना खाए पीए  बिस्तर पर निढाल पड़े रहते।

इसी बीच हेमकुंअर के ब्याह की तैयारियों जोर शोर से हो रही है। शौर्य कहते, ” भई मैं तो अपनी बेटी को सम्भालूँगा, आप लोग जाइए बाज़ार वगैरह।” स्वर्णिमा, पति की बेरुखी को समझ नहीं पाती। धूमधाम से शादी हो जाती है और हेम खुशी खुशी विदा हो जाती है।




एक दिन आलमारी जमाते स्वर्णिमा के हाथ किसी निशा के नाम का चेक लग जाता है। आशा आशंका के बीच झूलती स्वर्णिमा बैंक से पता प्राप्त कर सीधे वहाँ पहुँच जाती है। एक बीमार सी महिला  दरवाज़ा खोल आदर से कहती है, “आप स्वर्णिमा जी,,,मैं निशा हूँ, शौर्य जी के स्व दोस्त की पत्नी। मैं भी आपसे मिलकर अपनी आपबीती सुनाना चाहती थी। ” कांपते ओठों से स्वर्णिमा पूछती है, ” जी, जो भी बात है, आप निसंकोच कहिए। मैं भी अपनी पहेली सुलझाना चाहती हूँ। “

निशा पानी का ग्लास देकर कहना प्रारम्भ करती है, ” जब शौर्य दिल्ली में थे सरहद से मेरे पति कुणाल के शहादत की ख़बर आई। कोई रिश्तेदार मदद के लिए नहीं पहुँचा। शौर्य नहीं होते तो मैं तभी मर गई होती। शौर्य ने ही मुझे सम्भाला। एक रात किसी ने उन्हें जूस में शराब मिलाकर पिला दी। ऐसी हालत में वो मेरे घर आ गए। मेरा विश्वास करिए मैंने उन्हें बहुत सम्भालने की कोशिश की। किन्तु मैं उन्हें मना नहीं सकी।  वे बार बार आपका नाम ले रहे थे। “

तभी एक प्यारा सा बच्चा मम्मा मम्मा कहते अंदर से आकर नमस्ते करता है। निशा बताती है, ” यह  अमनवीर है, शौर्य का बेटा। मुझे कैंसर है, आख़री स्टेज़ पर। आप इसे अपना लीजिए इसकी माँ बनकर। ” 

उस नन्हें अमन में स्वर्णिमा को शौर्य की झलक  दिखती है। वह निशा की पीठ पर हाथ रख कहती है, ” अब मैं चलती हूँ।”

घर आकर अपने आँसू रोक बेटी को खूब प्यार करती है। वह नहीं चाहती कि किसी बच्चे को उसके जैसे दिन देखने पड़े। जैसे ही शौर्य ऑफिस से आए आदेश देती है, ” चलिए जल्दी से शॉपिंग करनी है।” बहुत सारा सजावट का सामान सोने की राखियां व खूब सारी मिठाइयां लेती है। 

कुछ लड़के के कपड़े भी खरीदती है। शौर्य आश्चर्य से पूछते हैं, ” इस बार चाँदनी अनाथालय में सोने की राखी बांधेगी क्या ? स्वर्णिमा चुप रहने का इशारा करते ख़ुद कार चला सीधे निशा के यहाँ पहुँच जाती है , “निशा जल्दी से अमन को तैयार कर दो। राखी के दिन बहन के होते भाई की कलाई सूनी कैसे रहेगी भला। “

यह सब देख शौर्य के पास कहने को शब्द ही नहीं थे। और खुशी के मारे निशा अपने आँसू रोक नहीं पा रही थी।

स्वर्णिमा अमन को लिए कार स्टार्ट कर चुकी थी।

सरला मेहता

इंदौर

स्वरचित

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