वह दिन याद आता है जब पुष्पा मामी नई नवेली दुल्हन बनाकर वीरू मामा के जीवन में आई थीं. पच्चीस बरस की मामी और चालीस बरस के मामा..
नाना जी के चल बसने के बाद घर की पहाड़ सी जिम्मेदारियां मामा के कोमल कंधों पर ही तो आ गई थीं. इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर उन्हें नाना के जमाए हुए कारोबार को सँभालना पड़ा.तीन-तीन बहनें कुंवारी पड़ी थीं..
उनके विवाह के चक्कर में मामा के विवाह का सही समय निकल गया. नानी का बड़ा अरमान था बहू लाने का लेकिन यह भी तो है कि सही समय पर अगर समय हाथ से छूट जाए तो मनचाही चीज अक्सर नहीं मिलती. उनकी बहू के बनाए मानकों पर कहाँ खरी उतरतीं थीं
पुष्पा मामी..मामा से उम्र में बहुत छोटी थीं, पढ़ी-लिखी भी समझो ना के बराबर हीं बारहवीं भी पास नहीं, माँ बचपन में ही मर गई थी, पिता ने दूसरी शादी कर ली थी, सो सौतेली माँ के अत्याचारों का भार भी उनके चेहरे पर दिखता था. चाचा चाची ने बड़ा सहारा दिया था उन्हें,तो लगाव भी उन्हीं से अधिक था.
कुल मिलाकर कोई बहुत गुणवान भी ना थीं वह, हाँ मगर सुंदर बहुत थीं. चाँद सा सलोना चेहरा था उनका, याद है वह क्षण,जब विवाह के बाद कुलदेवी के मंदिर जाते समय लाल चुनरी और माथे पर लाल बिंदी, माँग में पीला सिंदूर…साक्षात सती का स्वरूप लग रहीं थीं..
पर हाय रे विधाता उस रूप को,उस श्रृंगार को, उस चंद्रमा को, दुर्भाग्य के काले बादलों ने ऐसा ढँका कि वह सुहागन से अभागन बन गईं. शादी के बस दस बरस हीं तो बीते थे. काम के ही सिलसिले में बाहर गए थे मामा और फिर कभी घर लौटकर नहीं आए.सड़क दुर्घटना में एक ट्रक वाले की टक्कर से उनकी मोटरसाइकिल पलट गई
और वही उसी स्थान पर उनकी मौत हो गई, जिसने भी सुना नाते रिश्तेदार,अड़ोसी पड़ोसी, जानने, न जानने वाले.. सब के सब रो पड़े. हृदय चीत्कार उठा.
नानी तो जाने कैसे जीवित रहीं इस घटना के बाद भी, पर मामी…मामी तो जीते जी मर गईं..
दो दो बेटों के साथ इस क्रूर दुनिया में अकेला छोड़ गए मामा उन्हें. रात दिन बस इसी सोच में बीतता की आगे का पहाड़ सा जीवन कैसे बीतेगा.
सभी ने उनकी हर संभव मदद की जब भी जरूरत पड़ी, लेकिन अपने जीवन में आने वाले तमाम छोटी-छोटी परेशानियों का सामना उन्हें खुद ही करना था,
जीवन जीने के लिए पैसा सब कुछ तो नहीं होता मगर बहुत कुछ होता है. उस बहुत कुछ का इंतजाम मामा ने काफी हद तक कर रखा था.
पैसा बहुत कमाया था,कई सारे जीवन बीमा की पॉलिसी और बहुत इधर-उधर की गई सेविंग्स थीं.
मामी के सामने पैसा एक समस्या फिर भी था क्योंकि रखा हुआ धन आखिर कोई कब तक ही खायेगा. बच्चों की पढ़ाई लिखाई का खर्च, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति..यही सब सोचकर मम्मी वक्त से पहले ही बूढी हो गईं, उन्हें कोई काम भी तो नहीं आता था
कि उसी से कुछ पैसे पैदा कर सकें. मगर कहते हैं ना कि अगर ईश्वर हमसे कुछ छीनता है तो हमें उसकी क्षतिपूर्ति में कुछ देता भी है.मामी को ईश्वर ने हिम्मत और साहस दिया था. चरित्र दिया था.बहू होने की मर्यादा उन्होंने सदा ही निभाई..न जाने कैसे मगर दिन बीतते गए,काम चलता रहा,,
बच्चे पढ लिख गए. कुछ वर्षों तक नानी ने साथ दिया फिर उनका भी स्वर्गवास हो गया.
बूढी नानी भी आखिर कब तक जीवन की डोर थामे रहतीं. एक दिन वह भी चल बसीं. उस दिन मामी पूरी तरह से अकेली हो गई थीं… जीवन की लड़ाई में.
हाँ, मगर बच्चे बड़े हो गए थे.. छोटू और दीपू.दीपू बड़ा था उसे तो बाहर भेज कर नहीं पढा पाईं मगर छोटू की ज़िद और उसके पढ़ाई में होशियार होने के कारण उसे बाहर भेजकर पढाने का साहस किया उन्होंने, जितने मुँह, उतनी बातें भी सुनीं.
कुछ लोगों ने उनकी आलोचना भी की कि पढाने के लिए पैसा कहाँ से लाएँगीं वह,मगर उस अभागन स्त्री के लिए तब उसकी संतान ही एकमात्र उम्मीद की आखिरी किरण होती है जिसका पति छिन चुका हो.
बहुत सारे दाँव खेल कर भी वह अपने बच्चों को काबिल बनाना चाहती है. विवाहोपरांत स्त्री पति और संतान..दो ही रिश्तों की ओर उम्मीद से देखती है. पति तो उनका रहा नहीं था,पुत्र ने हीं आस बधाई थी..
और आज सचमुच उनके पूरे जीवन की साधना का फल मिल गया, छोटू ने बी टेक की पढ़ाई पूरी कर ली और उसका प्लेसमेंट भी हो गया एक अच्छी कंपनी में.सैलरी भी अच्छी ही है, कम से कम शुरुआत तो हुई है,आगे ईश्वर चाहेगा तो वह और तरक्की करेगा,
मामी की भी खुशी का कोई ठिकाना न था. एक-एक दिन बड़े भारी थे उन पर, जीवनसाथी के बिना गृहस्थी की गाड़ी खींचना उतना ही मुश्किल है जितना कि एक पैर से चलना.
मामी तो बचपन से ही अभागन रहीं. माँ का प्यार नहीं मिला, शादी हुई तो पति ने तो बहुत प्यार दिया मगर उसकी आयु भी कितनी थी.
भविष्य तो अनिश्चित है ही, उसे किसने देखा है मगर आज इतने वर्षों बाद मामी अपने बेटे की नौकरी की खबर सुनकर अपने अच्छे दिनों के लौट आने की आस फिर से बाँधने लगीं हैं.. ईश्वर अब और दुख ना देना, उन्हें.
श्वेता सोनी
#अभागन