Moral stories in hindi : राधिका मेरी कक्षा में थी। बहुत होशियार और शालीन लड़की थी।राधिका की पढ़ाई दो लोग करते थे,एक ख़ुद राधिका और दूसरी उसकी मां शशि। देखते-देखते साल गुज़र गए ,पर शशि जी का अपनी बेटी की पढ़ाई पर से ध्यान क्षण भर के लिए भी नहीं हटा।
विद्यालय की प्रत्येक गतिविधि में व्यक्तिगत रूप से आती थीं मिलने,ताकि राधिका को अवसर दिया जाए।लेखन,वादन,गायन,कुकिंग किसी भी प्रतियोगिता में राधिका को पुरस्कार मिलता ही था।
अधिकतर शिक्षक उनको आता देखकर चिढ़ जाते और कहते”लो फिर आ गईं राधिका की मम्मी,अपनी बेटी को हीरोइन बनाकर ही छोड़ेगी।”मुझे पता नहीं क्यों उनकी बातें अच्छी नहीं लगतीं थी।
मैं राधिका की मां को नहीं ,शशि के रूप में एक अल्हड़ सी लड़की से मिलती थी।उनकी आंखों में जाने कितने सपने जुगनुओं की तरह उड़ते थे, जादुई चमक थी उनकी आंखों में।हरदम सहज,सरल,और निश्छल लगीं वो मुझे।राधिका का किसी कार्यक्रम में शामिल होना उनके लिए स्वर्ग के सुख से कम नहीं था।
एक दिन मैंने पूछ ही लिया राधिका से,”राधिका , तुम्हारी मां कितनी स्मार्ट है, सर्वगुण संपन्न हैं।तुम बहुत किस्मत वाली हो जो तुम्हें इतना सपोर्ट करने वाली मां मिली।”
राधिका मेरी बात सुनकर चुप हो जाती,दुखी होकर।एकबार पूछने पर बताया उसने”मैम ,मेरी मां की शादी बहुत कम उम्र में कर दी गई थी।
ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हैं न,घर में सभी इनकी उपेक्षा करतें हैं।घर के किसी महत्वपूर्ण विषय पर इनकी राय तक नहीं ली जाती।पापा भी इन्हें अनपढ़ और गंवार कहते रहतें हैं।ये कभी पलटकर जवाब नहीं देती।घर में इनके मुंह से एक भी आवाज नहीं निकलती।पता नहीं क्यों आपके पास आकर वह बहुत खुश हो जातीं हैं।
“राधिका ,तुम्हारी मां के चेहरे में विवशता का विषाद भी है ,साथ ही सपने पूरे होने का आल्हाद भी है।मैं एक दिन आऊंगी उनसे मिलने।”
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“तो फिर आप संडे को आ जाइये ना मैम”राधिका ने जोर दिया।नियत समय पर रविवार को राधिका के घर पहुंची।बड़े करीने से सजाया हुआ था ड्राइंग रूम।राधिका के दादा -दादी ने अभिवादन किया।मैंने जब शशि को बुलाया तो वह स्कूल वाली लगी ही नहीं।
मेरे स्पर्श की गर्मी पाते ही,मन में दबे हुए बीस सालों के ज़ख्म रिसने लगे,आंखों से। गृहस्थी चलाने के लिए कम उम्र में ब्याही शशि को झूठे सपने दिखाए थे ,मायके वालों ने भी,और ससुराल वालों ने भी।
आगे की पढ़ाई करने के लिए आतुर शशि को काम के बोझ से ऐसा दबाया गया कि पांच मिनट का समय नहीं बचता था।गायन, नर्तन,पेंटिंग,कुकिंग,मेंहदी ,रंगोली,हर विद्या में शशि निपुण थीं।शशि के गुणों को ग्रहण बताकर ,एक कमरे में टूटे बक्से में उसके सारे प्रमाणपत्र,रिजल्ट रख दिए गए।
शशि के पति ने भी अपने माता-पिता के खिलाफ जाकर शशि की सहायता नहीं की।सुबह पांच बजे से उठकर,सभी सदस्यों की जिम्मेदारी पूरी करती थी शशि,और बदले में क्या मिला उसे-उपेक्षा।किसी ने भी कभी उसके शौक,आदतों के बारे में जानना ज़रूरी नहीं समझा।
इस उपेक्षा के दंश से कब शशि के लहू में विष का संचार होने लगा।पुरानी संदूक खोलकर जब उन्होंने अपनी बेजोड़ कला के नमूने दिखा रही थी मैडम को।उन्हें देखकर लगा ,मानो संदूक में शशि का बचपना रखा गया था।
“अरे फिर इन कबाड़ो को लेकर बैठ गई ,शशि बेटा।इन्हें किसी प्रदर्शनी में लगवा दो।तुमसे एक काम तो ठीक से होता नहीं।सपनों में ही जिए जा रही है।कब इसका बचपना छूटेगा??
शशि ने आंखें पोंछते हुए जल्दी से चाय बनाई।अपनी गहरी आंखों से मेरी ओर देखकर बोलीं वह”मैम ,मैं तो जीवन में कुछ नहीं बन पाई,तभी तो चाहतीं हूं रागिनी हर विद्या सीखे।मैं अपने लिए तो आवाज नहीं उठा पाई ,पर बेटी के भविष्य की नींव को कलुषित नहीं होने देगी वह।”
शशि जी के चेहरे की चमक में उनके प्रति की गई परिवार की उपेक्षा धूमिल हो गई थी।
मुझसे आज एक मां नहीं,एक बेटी नहीं अपितु एक गुड़िया सी भोली लड़की बात कर रही थी।मैंने भी उन्हें दिया हुआ अपना वादा निभाया।उनकी कला के नमूनों को अपने ही विद्यालय में मैनेजमेंट को दिखाया।
प्रिंसिपल ने नियुक्ति पत्र तुरंत हाथमें दिया मेरे।आज मुझे कितनी खुशी हुई,बता नहीं सकती।एक मां,बेटी,बहन और पत्नी के रूप में सदा उपेक्षित ही होती रही,आज उसके सपनों की चमक ने सारे अंधेरे मिटा दिए।
शुभ्रा बैनर्जी
#उपेक्षा