विजय बाबू से समय काटे नहीं कट रहा था। अभी अभी उनकी फ्लाइट दिल्ली पहुँची है। अभी भी सुजाता तक पहुँचने में एक घंटा तो लगेगा ही। कल ही तो बिटिया रेखा ने सुजाता… उनकी जीवनसंगिनी और अपनी माँ के हार्टअटैक के बारे में बताते हुए कहा था,
“माँ को मैसिव हार्टअटैक आया था। डा. ग्रोवर के अस्पताल से अब वो ठीक होकर कल घर भी आ गई हैं। “
वो बेतरह घबड़ा कर पूछने लगे थे,
“अरे तो अब मुझे खबर कर रही हो। और तुमने सबकुछ अकेले कैसे किया?”
वो चहकी थी,”ओह नो पापा! मैं अकेली नहीं थी। बुआ का पूरा परिवार लगा हुआ था। बुआ तो अभी भी हैं। उन्होंने ही आपको परेशान नहीं करने के लिए कहा था।”
“पर बेटा….।”
“आप बहुत परेशान हो जाते और फिर इतनी दूर अमेरिका से अपना मिशन छोड़ कर आना पड़ता ना।”
किसी तरह राम राम जपते वो घर पहुँचे। दौड़ कर अंदर सुजाता के कमरे में पहुँचे थे। देख कर काँप ही गए… कितनी कमज़ोर सी लग रही थीं। दीदी उन्हें सहारा देकर बैठाने की चेष्टा कर रही थीं। वो लपक कर उनके पास जाकर सूप पिलाने लगे। रेखा ने चुहल करी,
“ओह मम्मा, आँखें खोलो। देखो, आज तो पापा तुम्हें सूप पिला रहे हैं।”
वो क्षीण मुस्कान डाल कर फिर निढाल सी हो गईं। दीदी स्नेहपूर्वक बोलने लगीं,”हमारी सुजाता जीवनभर सबके लिए त्याग ही तो करती रही है। दो घड़ी अपने पति के साहचर्य के लिए तरसती रही है। अब तो तुम उसका ख्याल रखोगे ना।”
विजय बाबू अश्रुपूरित नेत्रों से उनको निहारते हुए बोले,”सच्ची दीदी, वो तो मोम का पुतला ही बन गई थी…सबके लिए जलती रही…पिघलती रही। अब तुम सिर्फ़ मेरे लिए जिओगी। बहुत हुआ…अब सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिए।”
दीदी खिसिया गईं,”अभी भी वो अफ़सरी वाली ठसक नहीं गई। आखिर हो तो मर्द ही। अरे, तुम्हारे मुँह से ये क्यों नहीं निकल पाता… अब तुम अपने लिए भी जिओ…सबके लिए तो बहुत जी चुकीं।”
सुजाता जी ने एक मीठी मुस्कान के साथ बचा हुआ सूप भी पी लिया।
नीरजा कृष्णा
पटना