मेरे लिए रूचि को संभालना बहुत मुश्किल हो रहा था…एक तो जो चल रहा था उसकी चिंता और घबराहट दूसरी “रूचि” और उसकी उटपटांग हरकतें। मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं क्या नहीं।कभी रोने का मन करता तो कभी चिल्लाने का।कभी मानवीयता हावी होती तो कभी खिजलाहट।
दरअसल मैं हाॅस्टल में थी जो मुझे फोन आया घर से कि पापा को मैसिव हार्टअटैक आया है भाभी के साथ अगल- बगल के एक आध लोग हास्पिटल जा रहे हैं मैं जल्दी से घर आ जाऊं।वैसे भी घर में होता ही कौन था उस समय पापा भाभी और रूचि..भैया ऑफिस से ही हास्पिटल के लिए निकल गए थे..रूचि को भाभी ने पड़ोसी के घर छोड़ दिया था..पर कितनी देर कोई उसे रख सकता था..मात्र छह साल की वो बच्ची स्पेशल चाइल्ड थी तो उसे संभालना भी कोई आसान काम तो था नहीं।तो भाभी ने हाॅस्पिटल से ही मुझे ज्यादा ना बताते हुए घर पहुंचकर रूचि को संभाल लेने के लिए फोन कर दिया था।
एक ही शहर में होते हुए भी मेरे हाॅस्टल में रहकर पढ़ाई करने की वजह भी रूचि ही थी।मां को कम उम्र में ही खोने के बाद पापा ने शादी ना कर अकेले हम दोनों भाई बहनों को पाला था तो आने वाली भाभी शुचि से मेरी बहुत उम्मीदें थीं और उस उम्मीद को उन्होंने पूरा भी किया।भाभी के पांव भारी होते ही हमारी खुशहाल परिवार की खुशियां और चरम पर पहुंच गई थी पर शायद उन खुशियों को किसी की नजर लग गई तभी तो “रूचि”आ गई हमारे जीवन में।
शुरूआत में जरूरत से ज्यादा रोती रहने वाली रूचि हमें अन्य बच्चों की ही तरह लगी थी पर जब साल दो साल की होने के बाद भी रोने के सिवाय हर गतिविधि में उसकी असक्रियता सबको चिंतित करने लगी तो हम उसे डाॅक्टर के पास लेकर गए तो पता चला कि वो स्पेशल है।फिर दवा दुआ और थेरेपी का दौर चलने लगा..पता नहीं क्यों ये जानने के बाद कि “रूचि” स्पेशल है मेरा उसके प्रति प्यार और जुड़ाव…बजाय बढ़ने और उसके प्रति संवेदनशील होने के गुस्से और घृणा में बदलने लगा। पहले उसके जिस रोने पर मैं चिंतित होकर उसे चुप कराने दौड़ती थी उसी रूलाई पर मुझे खीज होती और…वो भावनाएं आती मन में जो नहीं आनी चाहिए। इन्हीं से परेशान होकर मैं पढ़ाई के बहाने हाॅस्टल में शिफ्ट हो गई।
दो साल से ऊपर हो गए थे छुट्टियों में अपने ही घर आना मुझे पीड़ा से भर देता..पापा भैया और भाभी के प्यार का पलड़ा उस छोटी बच्ची के प्रति पल रही ग्रंथि पर हावी हो जाता। घर की एक बेटी के कारण दूसरी बेटी दूरी बना रही है घरवाले समझकर भी अनजान बने रहते थे क्योंकि और उपाय भी क्या था उनके पास या मेरे पास??पर मेरे पास रूचि से भागने का विकल्प तो था ना!!
पर आज.. परिस्थिति मुझे वहीं खड़ा कर गई थी जहां मैं कभी नहीं होना चाहती थी।पर पहले और अब की परिस्थितियों में एक बड़ा फर्क ये आया था कि बचपन में जरूरत से ज्यादा रोने वाली वो बच्ची अब अत्यधिक शांत हो चुकी थी बहरहाल जो था उसे झेलना ही था।
रूचि ये ले खा ले–किचन से मैगी बना मैंने लाकर उसके सामने रख दिया।
खुद में खोई रहने वाली उस बच्ची को तो शायद भूख प्यास की भी खबर नहीं थी तभी तो एक घंटे तक उसने मैगी को छुआ तक नहीं।
मोबाइल लेकर दूसरे कमरे में जाकर बैठी थी मैं जब रूचि के धीरे धीरे कराहने की आवाज आई।
टेबल पर चढ़कर दीवार पर टंगी गिटार उतारने की कोशिश कर रही रूचि गिर पड़ी थी और उसका पूरा टखना छिल गया था और खून निकल रहा था।
जाहिल कहीं की..गिटार उतारकर क्या करना था–उसके चोट पर फर्स्ट एड करते करते मेरी नज़र मैगी के प्लेट पर गई जो जस की तस रखी थी तो मन क्षण भर के लिए कचोट उठा..उस छोटी सी पराश्रित बच्ची की बिसात ही कितनी है.. प्यार ना मिले तो कितनी देर चल पाए वो!
जबरदस्ती उसके हाथ में चम्मच पकड़ा तो दिया पर उसके हाथ चम्मच को लेकर बजाय मुंह के हर जगह जा रहे थे उसकी दशा देखकर मेरे अंदर कुछ जोर से चटका शायद नफरत का वो हिम…!
फिर ना चाहते हुए भी प्लेट उठाकर चम्मच से मैं मैगी उसके मुंह में घुसेड़ने लगी पर खाते खाते उसने अपनी पूरी ड्रेस खराब कर ली।
इससे तो अच्छा भाभी मुझे हाॅस्पिटल बुला लेती और इस मुसीबत के साथ खुद रहती–कपड़े बदलाते बदलाते मै बुदबुदा उठी।
मैं फिर मोबाइल से जी बहलाने लगी तभी पीछे से रूचि ने मेरा बाल खींचा।
अब क्या है?मारूंगी तुझे अब मैं–मैंने पीछे मुड़ते हुए कहा पर उसके चेहरे पर नजर पड़ते ही उतने उखड़े मूड में भी मेरी हंसी निकल आई जिस तरह से उसने अपनी मां के सिंदूर और काजल से अपना श्रृंगार कर रखा था।
मेरे मुंह पर हंसी देख वो “बुआ” बोलकर मुझे लिपट गई तो मेरे अंदर का बर्फ थोड़ा और पिघल गया।
लगभग चार पांच घंटे बाद ही भाभी आई पापा की कुशलता जानकर मैं थोड़ी सी संतुष्ट हुई।फिर तो भाभी ने घर और रूचि को संभाला और बाहर के सारे काम मैंने।
पता नहीं क्यों एक लंबे समय के बाद चंद घंटे लगातार रूचि के साथ अकेले बीता लेने के बाद वो मुझे वो अपनी सी क्यों लगने लगी थी।
तुझे पता है बिट्टू..तेरा पापा आज रूचि की वजह से जिंदा बच गया–पापा ने सामान्य होते ही मुझसे सबसे पहले यही बात कही तो मैं चौंक पड़ी।
कैसे??
“तेरी भाभी बाथरूम में थी..रूचि मेरे पास बैठी थी।मेरे सीने में जब जोर से दर्द उठा तो जाने कैसे वो खुद में मगन रहने वाली हमेशा शांत रहने वाली बच्ची अनहोनी भांपकर जोर जोर से चिल्लाने लगी जिसे सुन शुचि भी निकल आई और बाहर के लोग भी इकट्ठे हो गए और मुझे समय से अस्पताल पहुंचा दिया गया..और तेरे पापा की जान बच गई”
‘अच्छा!!..मुझे भी इस बार उसे संभालते संभालते ये एहसास हो गया पापा कि वो प्यार की पात्र है मैं ही गलत थी..पूरी तरह। दरअसल मुझे लगने लगा था मेरे ही परिवार के साथ भगवान का ये अन्याय क्यों…एक अन्याय तो उस फूल सी जान पर ऊपर वाले ने करके भेजा है दूसरा अन्याय मैं कर रही थी उसे ना अपनाकर..पर वो कहते हैं ना ऊपरवाला जिम्मेदारी उन्हीं पर डालता है जो उसे निभा सकें और खूबसूरती से संभाल सकें..
रूचि से प्यार हो गया ना तुझे.. मैं कहता था तू उसके साथ रहकर तो देख उसका साथ उतना भी बुरा नहीं है जैसा तू सोच बैठी है..अपने घर वापस कब आ रही है बिट्टू??
आपके घर की दूसरी बेटी अब अच्छी लगने लगी है.. धउम्मीद है जल्द ही प्यार कर बैठूं उससे। जल्दी ही आ जाऊंगी पापा…बुआ का प्यार भी तो चाहिए उसे उसका हक छीन रही थी शायद तभी ये सबक दिया हो मुझे ऊपर वाले ने…!!
कल हाॅस्टल से घर शिफ्ट हो जाऊंगी। बहुत रह ली अपनों से दूर..रूचि से दूर।समझ में आ गया है “बोझ” वहीं जिम्मेदारियां लगती है जिन्हें हम अपना मानकर स्वीकार नहीं करते अपनों के प्यार की जितनी हकदार मैं हूं उतनी ही तो रूचि भी है ना चाहे वो जो भी है जैसी भी है..आज मेरा मन हल्का है क्योंकि मैंने मन से रूचि को अपने घर की दूसरी बेटी मान लिया है।
#अन्याय
मीनू झा