रोज-रोज अपने आत्म सम्मान पर चोट सहन करती उर्मिला अपने मन में सोच रही थी कि आख़िर क्यों वह अपने आत्म
सम्मान को प्रतिदिन तार-तार होने देती है? क्यों बात-बात पर ताने सुनती है? क्या इस परिवार के लोगों को सम्मान
देना सिर्फ़ उसका कर्तव्य है? क्या उनका कर्तव्य कुछ नहीं जो उसे उसके परिवार से दूर अपने घर ले आए हैं?
तभी ज़ोर से उसके कानों में आवाज़ आई, उर्मिला ज़रा एक गिलास पानी तो पिलाओ।
वह चौंक गई, जैसे सपनों से जागी हो। हड़बड़ा कर बोली, “जी अभी लाती हूँ।
पानी का गिलास लेकर वह अपने पति नीरज के पास गई और उसने पूछा, आप कब आए? मुझे पता ही नहीं चला।
नीरज ने व्यंग्य से कहा, हाँ, तुम तो आराम कर रही होगी। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि थका-हारा पति घर आए, और
बिना माँगे उसे पानी मिल जाए?
मैं बेडरूम में काम कर रही थी नीरज। आपकी अलमारी पूरी बिखरी पड़ी थी, वही ठीक से जमा रही थी। आप ऐसा क्यों
बोल रहे हो? क्या मैं आपके सारे काम नहीं करती? इतना कह कर वह रसोई में चाय बनाने चली गई।
तभी उसे सासु माँ सुशीला की आवाज़ आई जो नीरज से कह रही थीं, देखा कैसा मुँह चलता है इसका। लगता है माँ
संस्कार देना ही भूल गई। पहले पता होता तो यह शादी …, कहते-कहते सुशीला उर्मिला को आते देख चुप हो गई और
वहाँ से चली गई।
उर्मिला चाहती थी कि इस विषय में वह नीरज से बात करे क्योंकि नीरज की मम्मी का व्यवहार उसके साथ हमेशा से
ऐसा ही था। वह उसका अपमान करने का एक भी मौका जाने नहीं देती थी। आए दिन अपनी सास के द्वारा अपमानित
होते रहना उसे अच्छा नहीं लगता था। लेकिन वह शिकायत करे भी तो किससे? नीरज ख़ुद भी उसका आदर कहाँ करता
था। वह सोचती जब पति ही इज़्ज़त नहीं करता तो फिर दूसरों से क्या आशा रखूँ।
एक दिन वह अपनी सहेली नलिनी से मिली और उसे अपनी तकलीफ बताते हुए कहा, नलिनी चाहे कितना भी दुःख हो,
तकलीफ़ हो, अपमान हो, फिर भी सब कुछ सहन करके हमें चुप ही रहना पड़ेगा वरना हम आदर्श नारी नहीं कहलाएंगे,
आख़िर क्यों? क्या सिर्फ़ मुझे ही इस परिवार की ज़रूरत है उन्हें नहीं? आख़िर कब तक हम अपना तिरस्कार सहन करते
रहेंगे।
सब कुछ सुनने के बाद नलिनी ने कहा, उर्मिला तुझे एक बार नीरज से यह बात अवश्य करना चाहिए। यदि हम अपना
कर्तव्य पूरा करते हैं तो अधिकार मांगने में संकोच कैसा?
नलिनी से बात करने के बाद उर्मिला ने मन बना लिया कि वह नीरज से ज़रूर बात करेगी।
रात को जब वह बिस्तर पर लेटी उसका मन अशांत था। कभी माँ के दिए संस्कार उसे याद आते। कभी वह बात याद आती
कि पिता के घर से डोली उठती है और पति के घर से अर्थी। यही सच है! पर क्या सच में यही सच है?
कई दिनों तक चिंतन और मनन करने के उपरांत आख़िर उर्मिला ने हिम्मत जुटा ही ली और उसने नीरज से कहा, नीरज
मैं आपके परिवार को अपना परिवार बनाने आई हूँ। इस परिवार के प्रति निष्ठावान हूँ। सब का आदर करती हूँ, मान-
मर्यादा का ख़्याल भी रखती हूँ। जीवन पर्यंत हर सुख-दुख में तुम्हारे क़दम से क़दम मिलाकर चलने के लिए भी तैयार हूँ।
नहीं चाहिए मुझे कुछ ज़्यादा, थोड़े में ही खुशियाँ बटोरने को भी तैयार हूँ किंतु मैं अपने आत्म सम्मान के साथ समझौता
करने के लिए हरगिज़ तैयार नहीं। मैं अपना शोषण करवाने के लिए इस परिवार में नहीं आई हूँ नीरज। जितना आदर मैं
आप सभी को देती हूँ, उतने की ही मैं भी हकदार हूँ। क्या आप इस तिरस्कार के बदले मुझे वह दे सकते हैं?
यह क्या बोल रही हो उर्मिला? तिरस्कार …? कौन कर रहा है तुम्हारा तिरस्कार? क्या हो गया है तुम्हें? तुम तो मुझे
भाषण ही देने लगीं यार।
ठीक है नीरज भाषण ही समझ लो, तुम कहाँ समझोगे मेरे मन की पीड़ा। तुम्हें केवल मैं चलती-फिरती मशीन लगती हूँ
ना, जिसकी बटन तुम्हारे हाथ में है, जब जैसा चाहो वैसा नचा सकते हो।
उर्मिला तुम हद से आगे बढ़ रही हो अब।
क्या है मेरी हद नीरज, क्या जीवन भर तुम ही तय करते रहोगे?
आख़िर तुम्हें चाहिए क्या? क्या चाहती हो तुम? थोड़ा बहुत कहना सुनना तो हर परिवार में होता है। माँ और मैं यदि
तुम्हें कुछ कह देते हैं तो तुम उसे अपना अपमान समझ कर मन मैला क्यों करती हो?
वाह नीरज, वाह जब देखो तब मुझे, यहाँ तक कि मेरी माँ को भी ताने मारने से पीछे नहीं हटते तुम लोग। वह तो बुज़ुर्ग
हैं, मेरी माँ हैं, मैं कैसे उनकी बुराई सुन लूँ? अगर मैं आपकी मम्मी के लिए कुछ कहूँ तो आपको कैसा लगेगा? एक भी
मौका नहीं छोड़तीं वह मेरा अपमान करने का। मैं चाहूँ तो मैं भी उन्हें पलट कर जवाब दे सकती हूँ।
उर्मिला…, गुस्से में तिलमिलाते हुए नीरज चिल्लाया।
उर्मिला ने कहा,लगा ना तुम्हें भी बुरा, जबकि अभी तो मैंने कुछ कहा भी नहीं था। मुझे भी ऐसा ही गुस्सा आता है, ऐसा
ही दर्द होता है नीरज जब मुझे और मेरे परिवार पर कोई अपमान जनक शब्दों से प्रहार करता है। आज मैं आपसे मांग
रही हूँ, मेरा और मेरे परिवार का आत्म सम्मान, क्या आप दे सकते हैं? बोलो नीरज यदि हाँ तब तो ठीक है वरना।
वरना क्या करोगी उर्मिला?
वरना मैं अपमान का कड़वा घूंट पीकर, अपना तिरस्कार सहन कर पूरा जीवन आपके घर में नहीं रह सकती। मेरी माँ को
मेरी नानी ने यह संस्कार दिए थे कि पिता के घर से डोली और पति के घर से अर्थी उठती है। नारी के जीवन की कहानी
इसी के बीच चलती रहती है किंतु मेरी माँ ने अपने जीवन के कटु अनुभव के बाद मुझे यह सिखा कर भेजा है कि अन्याय
सहना और अन्याय करना दोनों ही ग़लत है। तुम इतनी सक्षम हो कि अपने आत्म सम्मान की रक्षा कर सकती हो और वह
तुम्हें करनी ही चाहिए। अपने कर्तव्यों को अवश्य निभाओ साथ ही अपने अधिकार भी जताओ।
आज उर्मिला का यह रूप और कड़वी मगर सच्ची बातों ने नीरज के बंद पड़े कान के पर्दे खोल दिए। उसे यह एहसास करा
दिया कि यदि सुखी दाम्पत्य जीवन और परिवार में शांति चाहिए तो मर्द होने का घमंड छोड़ कर एक नेक जीवन साथी
बनना होगा ना कि बॉस। परिवार का मान-सम्मान चाहने के साथ ही साथ पत्नी के परिवार का मान-सम्मान भी करना
होगा। पत्नी को अपने से कम आंकने की ग़लती से बचना होगा क्योंकि सच में उर्मिला किसी भी बात में उससे कम नहीं है।
अपनी ग़लती स्वीकार करते हुए नीरज ने कहा, उर्मिला मुझे माफ़ कर दो। मैं शर्मिंदा हूँ, अच्छा हुआ तुमने मेरी आँखें
खोल दीं।
नीरज का बदला हुआ व्यवहार देखकर सासु माँ सुशीला को भी अपना व्यवहार बदलना ही पड़ा। अब उन्हें भी यह समझ
आ गया था कि यदि परिवार को चलाने वाली गृह लक्ष्मी का अपमान होगा तो एक ना एक दिन परिवार टूट जाएगा।
सिर्फ़ साथ में रहने से ही नहीं बल्कि प्यार और एक दूसरे के सम्मान के साथ रहने में ही परिवार की भलाई है। यही सच्चे
और सुखी जीवन का आधार है।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)