“आत्मसम्मान की ठेस” – डा० विजय लक्ष्मी : Moral Stories in Hindi

“कब तक इसे झेलती रहोगी, राधा ?”
कितना तुमसे कहा था पर तुमने सुना नहीं और करो अपने मन की देखो तुम्हारी बहन गीता कितने राजसी ठाठ बाट से रह रही है ।  कितना पैसा जेवर ,कपड़े, कोठी कार किस चीज की कमी है?

राधा को हेय नजरों से देखते हुए बोलीं मानो वह उनकी बेटी नहीं बस विवेक की पत्नी है।

राधा अच्छे से विवेक को जानती थी वह कितना स्वाभिमानी और कर्मठ है । ऐसा भी नहीं कि उसको नौकरी की कमी है बस वह अपने मनपसंद का काम करना चाहता है कुछ दिन की बात  है और आप समझती क्यों नहीं  मां जो मुझे चाहिए वह विवेक में है गीता के पति में गीता की पसंद है , मैं वैसी नहीं हूं । वह कोई सामान नहीं मैंने दिल की गहराई से प्यार किया है, पर  राधा की मां ने तो आज ठान ही लिया था राधा को नीचा दिखाने का । 

राधा विवेक के लिए चुप रह जाती थी कि उसे दुख न पहुंचे, इसलिए वह उससे कभी कुछ कहती नहीं थी वक्त का फेर समझ कर कड़वा घूंट पीकर रह जाती थी।

राधा की माँ ने भरी दोपहर में फिर वही बात दोहरा दी।
“एक बेरोजगार और अनाथालय में पले-बढ़े दामाद को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहीं थीं । राधा को सुनाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती थी वह तो बस पिता और छोटी बहन के कारण ही 5 महीने काट ली थी ।

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विवेक अच्छी-खासी नौकरी कर रहा था पर थोड़ी सी मैनेजर से बहस होने पर उसने वह नौकरी बिना सोचे समझे छोड़ दी थी । पिता ने बहुत ही आग्रह पूर्वक राधा को अपने पास बुला लिया था, राधा ने भी यही सोचा कि यदि विवेक को घर परिवार की चिंता कम रहेगी तो वह काम को अच्छे से कर सकेगा । राधा ने कस्बे  के प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली थी  । 

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राधा के पिता राम सहाय जी ने कहा जब बेटी को आपत्ति नहीं है तो तुम क्यों परेशान होती हो, समय है वसुधा कट जाएगा विवेक में टैलेंट है बस अभी कोई उसके टैलेंट को पहचान नहीं रहा है ।

राधा चुपचाप खड़ी रही। माँ की बातें उसे अंदर तक वेध गयीं थीं , लेकिन जवाब में कुछ कहने से हालात और बिगड़ जाते थे।

पति विवेक को लेकर ससुराल वालों की नज़रों में शिकायत नहीं, बल्कि तिरस्कार था। राधा और विवेक की शादी प्रेम-विवाह थी। विवेक एक ईमानदार, मेहनती पर बेरोज़गार युवक था, जो इंजीनियरिंग के बाद खुद का कुछ करना चाहता था। उसने कई कंपनियों की नौकरियों के प्रस्ताव ठुकरा दिए थे क्योंकि वह अपनी पहचान बनाना चाहता था।

ससुराल वालों के लिए उसकी “पहचान” सिर्फ इतनी थी कि वे बेरोजगार घर जमाई है।

राधा की मां हमेशा ताने देतीं—
“इतनी पढ़ाई कर के यही मिला तुझे?”
“वह तो अच्छा है तुम हमारी बेटी हो, नहीं तो भूखी मर रही होती।”

पर आज तो राधा का धैर्य अपनी जननी का व्यवहार देख,जवाब दे गया। कमरे में आते ही और विवेक को देख राधा सिसक पड़ी ,”विवेक !! अब बस ,अपना तिरस्कार कब तक सहते रहेंगे? तुम्हारा इससे अधिक अपमान मैं नहीं सहन कर सकती प्लीज विवेक बहुत हुआ अब नहीं कह रोने लगी।

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पर विवेक टूटा नहीं । विवेक जानता था, राधा उसे बताती नहीं थी, लेकिन उसकी आंखों का नम कोना सब कह जाता था। पर अभी वह मजबूर था राधा को लेकर कहां बैठा दे ।

विवेक राधा की भावना को जानता था उसने अपने मित्र की मदद से दूसरे छोटे कस्बे में जाकर किराए का मकान ले लिया, मकान आधुनिक सुविधाओं युक्त तो नहीं था फिर भी रहने योग्य कहा जा सकता था।

उसने घर के एक छोटे से कमरे में खुद का काम शुरू किया। अपने मित्र के पुराने कंप्यूटर पर बैठकर उसने कोडिंग, वेबसाइट डिज़ाइन और छोटे-छोटे डिजिटल मार्केटिंग प्रोजेक्ट्स लेने शुरू किए। दिन में एक चाय दुकान पर भी बैठ जाता था, जिससे उसकी मदद के तौर पर दुकानदार दिहाड़ी के रूप में कुछ दे देता था  इंटरनेट और मोबाइल के बल पर धीरे-धीरे क्लाइंट जोड़ता गया।

राधा उसकी सबसे बड़ी ताकत थी। वह दिन में सिलाई करती, घर संभालती, और रात को विवेक का डेटा एंट्री में हाथ बंटाती। दोनों का सपना एक था—खुद का स्टार्टअप।

कुछ ही महीनों में विवेक की मेहनत रंग लाई। एक बड़ी कंपनी ने उसका डिज़ाइन अप्रोच खरीदा, और उससे वेबसाइट बनाने का अनुबंध किया। फिर दूसरा क्लाइंट, फिर तीसरा।

विवेक ने ऑफिस के लिए एक छोटा किराए का कमरा लिया और दो युवाओं को नौकरी दी। उसका स्टार्टअप “ई-रूट्स” अब चल निकला था।

राधा की आंखों में वही चमक लौट आई थी, जिसे शादी के बाद उसके मायके के तानों ने धीरे-धीरे बुझा दिया था।

एक दिन राधा के पिता का फ़ोन आया।
“बेटा,विवेक राधा को  साथ लेकर घर आ  जाओ। छोटी बहन की शादी है। तुम दोनों का आना ज़रूरी है।”

विवेक ने हामी भर दी।
पिछली बातें याद कर राधा का मन का कसैला हो गया था और वह जाना तो नहीं चाहती थी। हां वह बात अलग थी कि उसकी छोटी बहन अक्सर उसे दिलासा देती रहती थी। तीन बहनों में राधा की छोटी बहन गायत्री ही उसका संबल थी जो उसने शादी के बाद के 5 महीने मां के पास काट लिए थे।

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शादी के दिन राधा के मायके में रौनक थी, लेकिन ताने भी वैसी ही गर्मी से उड़ रहे थे।

“दामाद जी आए हैं? अब कुछ करते भी हैं या अब भी ख्याली पुलाव ही पक रहे हैं?”

“राधा बहुत सीधी है, वरना और कोई लड़की कब का छोड़ देती।”

विवेक शांत रहा।
शादी के कार्यक्रम में राधा और वह पीछे ही बैठ गये। पर तभी ससुर जी के एक पुराने मित्र, श्री मिश्रा, जो एक बड़े व्यवसायी थे, ने विवेक को पहचान लिया।

“अरे! आप ही तो हैं ‘ई-रूट्स’ के संस्थापक? आपकी कंपनी ने हमारी वेबसाइट तैयार की थी! कमाल की टीम है आपकी! मैंने सुना है कि आपने एक स्टार्टअप एक्सपो में भी प्रेजेंटेशन दिया था?”

आइये आपकी जगह आगे है चलिये मैं आपका परिचय सभी से करवाता हूँ।
सारा हॉल सन्न रह गया।

राधा की मां, जो अभी तक अपनी बहन को विवेक की ‘नाकामी’ सुना रही थीं, चुप हो गईं।

श्री मिश्रा ने आगे कहा—
“आपका काम देखकर मेरे बेटे ने कहा था कि छोटे शहरों में असली टैलेंट है। आपके जैसे युवाओं पर देश को गर्व है।”

विवेक मुस्कुराया, लेकिन जवाब में बस इतना कहा—
“धन्यवाद, सर। ये सब राधा के बिना संभव नहीं था।”

अब चुप रहने की बारी सबकी थी।

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शादी खत्म होने के बाद राधा की माँ विवेक से मिलीं।
पहली बार उनकी आंखों में नरमी थी।
“बेटा, माफ करना… हमने बहुत कुछ गलत कहा।”

विवेक ने मुस्कुरा कर कहा—
“नहीं माँ, आपने वही कहा जो दुनिया कहती है। लेकिन मैं चाहता था कि दुनिया बदले… और आपने आज से शुरुआत कर दी।”

राधा के हाथ में हाथ डालकर वह बोला,
“अब चलें, मेरा घर मेरा इंतज़ार कर रहा है… और मेरे सपने भी।”

हर इंसान को उसके पेशे या पैसे से नहीं, उसके इरादों और ईमानदारी से परखा जाना चाहिए। “तिरस्कार कब तक”?
                    स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
                          ‘अनाम अपराजिता’

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