गाँव की पगडंडियों पर चलते हुए संध्या के कदम डगमगा रहे थे, लेकिन उसके हृदय में एक अदम्य साहस था। वह जानती थी कि आज का दिन उसकी जिंदगी को हमेशा के लिए बदल देगा।
संध्या का विवाह पच्चीस साल पहले अनुराग से हुआ था। अनुराग एक शिक्षित व्यक्ति था, लेकिन समाज के पुराने रीति-रिवाजों में जकड़ा हुआ था। संध्या ने अपने पूरे जीवन को उसके नाम कर दिया,
हर खुशी, हर सपने को कुचलकर अपने परिवार के लिए जिया। उसने अनुराग के तानों को सहा, अपने आत्मसम्मान को कुर्बान किया, सिर्फ इसलिए कि समाज ने उसे यही सिखाया था कि एक औरत का धर्म सहना है।
वह पढ़ना चाहती थी, आगे बढ़ना चाहती थी, लेकिन अनुराग के लिए उसकी जगह सिर्फ रसोई थी। हर बार जब उसने अपनी पढ़ाई जारी रखने या नौकरी करने की इच्छा जताई, तो उसे अपमानित किया गया। लेकिन उसने कभी शिकायत नहीं की, क्योंकि उसे अपने बेटे, आकाश की चिंता थी। वह नहीं चाहती थी कि उसका बेटा एक ऐसे माहौल में पले, जहाँ एक माँ की इज्जत न की जाए।
समय बीतता गया, और आकाश बड़ा हो गया। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए उसे शहर भेजा गया। संध्या ने खुद को दिलासा दिया कि शायद उसका बेटा बड़ा होकर उसे समझेगा, उसका सम्मान करेगा। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था।
एक फ़ैसला आत्मसम्मान के लिए – के कामेश्वरी : Moral Stories in Hindi
आकाश जब नौकरी करके घर लौटा, तो वह पूरी तरह बदल चुका था। उसने भी अपनी माँ को उसी नजर से देखना शुरू कर दिया, जिससे उसके पिता देखते थे—एक साधारण गृहिणी, जिसकी कोई अहमियत नहीं थी।
एक दिन, जब संध्या ने अपने शौक के बारे में बात की और कहा कि वह सिलाई-कढ़ाई का काम करके कुछ कमाना चाहती है, तो आकाश हँस पड़ा।
“माँ, आपकी उम्र अब आराम करने की है, यह सब करने की नहीं। वैसे भी, हमारे परिवार की औरतें काम नहीं करतीं। पापा सही कहते हैं, आपको बाहर जाकर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है।”
उस दिन संध्या के अंदर कुछ टूट गया। वह देख सकती थी कि उसका ही बेटा उसके सपनों का मजाक उड़ा रहा था, ठीक वैसे ही जैसे उसका पति सालों से करता आया था।
उस रात, संध्या ने एक निर्णय लिया। आत्मसम्मान से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। उसने अपना सामान बांधा, कुछ पैसे जोड़े, और अपने मायके जाने के लिए तैयार हो गई। जब अनुराग और आकाश ने उसे रोका और पूछा कि वह कहाँ जा रही है, तो उसने पहली बार आत्मविश्वास से कहा,
“मैं खुद को खोजने जा रही हूँ। अब मैं किसी के तानों को सहन नहीं करूँगी। मैंने पूरी जिंदगी अपने परिवार के लिए दे दी, लेकिन बदले में मुझे सिर्फ अपमान मिला। अब समय है कि मैं अपने लिए जियूँ।”
अनुराग ने गुस्से से कहा, “औरतें ऐसे घर नहीं छोड़तीं! समाज क्या कहेगा?”
संध्या मुस्कुराई, उसकी आँखों में आत्मविश्वास झलक रहा था। “समाज वही कहेगा, जो मैं उसे कहने दूँगी। मैं अब खुद अपनी तकदीर लिखूँगी।”
उसने दरवाजा खोला और बाहर निकल गई—एक नए जीवन की ओर, जहाँ आत्मसम्मान से बढ़कर कुछ नहीं था।
डॉ ममता सैनी
तंजानिया
एक फैसला आत्मसम्मान के लिए