आत्मसम्मान का स्वाद – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

    ” नंदा..ज़रा मेरी साड़ी तो प्रेस कर दे..।” छोटी भाभी के आदेश पर नंदा उनके कमरे की तरफ़ दौड़ी तभी ,” नंदा.. ,मोनू को लंचबाॅक्स दे आ।” बड़ी भाभी की आवाज़ पर नंदा किचन की तरफ़ दौड़ी।प्रतिदिन उसके दिन की शुरुआत ऐसे ही दोनों भाभियों के आदेशों से ही होती थी।कुछ सालों पहले तक तो वह इस घर की राजकुमारी कहलाती थी लेकिन आज…।

          दो बेटों के चार बरस बाद जब एक बेटी का जनम हुआ तो शशिभूषण जी पत्नी से बोले,” सरोज..,एक लक्ष्मी की कमी थी जो तुमने मुझे दे दिया।” उनकी माताजी भी कहती थीं कि बेटी के आने से आँगन खिल उठा है।माता-पिता की दुलारी थी नंदा तो भाईयों की थी लाडली।अशोक और आनंद स्कूल से आते ही उसके साथ खेलने के लिये आपस में झगड़ने लगते थे।

      ऐसे ही हँसते-खेलते दिन बीतने लगे और तीनों बच्चे सयाने हो गये।शशिभूषण जी का हार्डवेयर का शाॅप था।बीए करके अशोक उनका सहायक बन गया और फिर आनंद।आनंद के आने के बाद उन्होंने एक और शाॅप खोल ली।इस तरह से उनके घर में लक्ष्मी की वर्षा होने लगी।

     अशोक- आनंद का विवाह कराकर शशिभूषण जी दो बहुएँ घर में ले आयें।दोनों ही सुशील और गुणवंती थीं।साल-दो साल में बहुओं के गोद में बच्चे भी खेलने लगे। अब उन्हें इंटर में पढ़ने वाली अपनी नंदा के विवाह की फ़िक्र होने लगी।पत्नी के सामने अक्सर अपनी चिंता व्यक्त करते,” मेरी फूल-सी बच्ची के लिये राजकुमार-सा वर कहाँ मिलेगा?” तब सरोज हँसकर कहतीं,” चिंता क्यों करते हैं..हमारी नंदा तो राज करेगी…।”

       संयोग से शशिभूषण जी के एक परिचित ने उन्हें एक अच्छा रिश्ता बता दिया।सास-ससुर और एक बड़ा भाई..लड़का स्मार्ट और बैंक में काम करता है।अच्छी बात यह थी कि बेटी अपने शहर में ही रहेगी।

     शशिभूषण जी बोले,” नंदा का ग्रेजुएशन पूरा हो जाता तो…।”तब सरोज बोलीं,”हाथ आये रिश्ते को जाने नहीं दीजिये…और फिर कौन सा हमारी बेटी को नौकरी करना है।”

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         पत्नी की बात मानकर शशिभूषण जी उस परिवार से मिल आये..नंदा और राहुल ने एक-दूसरे को पसंद कर लिया तो एक शुभ-मुहूर्त में उन्होंने दोनों का विवाह करा दिया।

       ससुराल में पति के साथ-साथ सास-ससुर का प्यार पाकर नंदा बहुत खुश थी।वह जब मायके आई तो बेटी के चेहरे की चमक देखकर सरोज ने तुरंत उसकी नज़र उतार ली थी।देखते-देखते दो साल बीत गये।एक दिन नंदा की सास बोली,” बहू..अब परिवार बढ़ाने के बारे में भी सोचो…बच्चे के बिना तो ये घर-आँगन सूना ही है ना।” तब वो ‘जी मम्मी’ कहते हुए लजा गई थी।

       बैंक के काम से राहुल दिल्ली गया था।वापस आने पर वह एयरपोर्ट से घर आ रहा था कि उसकी कार का एक्सीडेंट हो गया और…।क्षण भर में नंदा की दुनिया उजड़ गई।पति के शव से लिपटकर रोती ही कहती जा रही थी,” आपके बिना कैसे जीऊँगी..मुझे भी अपने साथ ले जाते..।” रिश्तेदारों को तो मौका मिल गया था।दबी ज़बान से उसे अभागन..डायन कहने लगे थे।सास उस समय तो चुप रहीं लेकिन कुछ समय बाद अपने जवान बेटे की मौत का कारण मानकर गाहे-बेगाहे उसे प्रताड़ित करतीं रहतीं।

       नंदा की सूनी माँग देखकर उसके माता-पिता का कलेजा मुँह को आ गया था।उसे अपने साथ ले जाना चाहा लेकिन उसने मना कर दिया।कुछ दिनों बाद जब शशिभूषण जी बेटी से मिलने गये..सास द्वारा गालियाँ खाते देखा तो बेटी को अपने संग ले आये।मायके में भी विधवा बेटी को सुकून तो मिलता नहीं। पिता ने उसकी पढ़ाई फिर से शुरु करवाना चाहा तो पत्नी के कहने पर भाईयों ने मना कर दिया।

       शशिभूषण जी बेटी के वैधव्य-दुख का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाये और एक दिन पत्नी के हाथ में बेटी का हाथ देकर हमेशा के लिये अपनी आँखें बंद कर लीं।किसी के जाने से जीवन तो ठहरता नहीं…नंदा का जीवन भी चल रहा था।ससुर के जाने के बाद बहुओं ने अपने रंग दिखाने शुरु कर दिये।खुलकर तो नहीं कहतीं लेकिन उनके हाव-भाव से सरोज ने सब समझ लिया था।इसलिये नंदा को बोलीं कि भाभियों के काम में हाथ बँटा

दिया कर।काम से शुरु की गई मदद धीरे-धीरे उसकी ज़िम्मेदारी बन गयी।कई बार माँ कहती भी कि बेटी, इतना काम मत किया कर।तब वो हँसकर कहती,” माँ, मेरी ही तो भाभियाँ हैं..मेरे भतीजे- भतीजियाँ हैं।अपनों के लिये कुछ करने में कैसी थकान..।” बेटी के इस भोलेपन पर सरोज मन ही मन कहती,” ईश्वर.. मेरी बेटी को शक्ति देना।” 

     एक दिन माँ ने भी नंदा का साथ छोड़ दिया तब भाईयों ने कहा,” हम हैं ना तेरे साथ।” और नंदा वही साथ निभाती चली आ रही थी।उसकी दोनों भाभियाँ बन-ठन कर घूमने जाती और वो उनकी रसोई और बच्चे संभालती।कुछ बिगड़ जाता तो उसे गालियाँ देने से भी नहीं चूकती पर वो हँसकर टाल जाती कि अपने ही तो है।उसके दोनों भाई अपनी छोटी बहन को अपमानित होते देखते लेकिन पत्नी का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।ऐसे ही दिन बीतते चले गये।

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        एक दिन की बात है, नंदा अपने भतीजे को स्कूल से लेकर आई तो काफ़ी थक गई थी।पानी लेने के लिये वो रसोई में जाने लगी तो बड़ी भाभी के कमरे से अपना नाम सुनकर वह ठिठक गई।छोटी भाभी कह रहीं थीं,” बड़े भईया न माने तो..।” बड़ी भाभी तीव्र स्वर में बोलीं,” अरे मानेगे कैसे नहीं..हमारे बच्चे बड़े हो रहें हैं..

अब उनकी बहन का यहाँ क्या काम… दो बच्चों का पिता है तो क्या हुआ..पैसे की तो कोई कमी नहीं है।अब इस उम्र में महारानी को कोई छैल-कबीला तो मिलेगा नहीं..।” सुनकर तो उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके कलेजे पर हथौड़ा मार दिया हो।किसी तरह से स्वयं को संभालती हुई वो कमरे में आकर अपने माता-पिता की तस्वीर के आगे फूट-फूटकर रोने लगी।जिन भाभियों को उसने अपना समझा..उन पर विश्वास करके अपने आत्मसम्मान को किनारे करके अपमान का घूँट पीती रही, उनके दिल में इतना ज़हर…।

बचपन में जब उसकी एक सहेली ने कहा था कि माता-पिता के न रहने पर ननद को उसकी भाभी नौकरानी से भी बदतर समझती है, तब उसने गर्व से कहा था कि मेरी भाभियाँ ऐसी नहीं है।वो कितनी गलत थी…आज ये सारा भ्रम टूट गया था।

      नंदा ने अपने आँसू पोंछे…एक बैग में कुछ कपड़े डाले और एक कागज़ पर लिख दिया,” भईया..मैं जा रही हूँ..,शायद यहीं तक हमारा-आपका साथ लिखा था।”  कागज को माँ की तस्वीर के आगे रखकर वह तड़के निकल गई तो फिर मुड़कर नहीं देखा।सुबह भाभियों की आवाज़ पर जब नंदा नहीं दिखी तो अशोक कमरे में गया।पत्र पढ़कर उसकी आँखें नम हो गई।

     नंदा की भाभियाँ तो अंदर ही अंदर बहुत खुश हुईं कि चलो , बला टली लेकिन ऊपर से पति को सुनाती,” मुँह पर कालिख पोतकर चली गई…अब समाज को क्या मुँह दिखाएँगे।”

     दिन गुजरते चले गये।एक दिन दोपहर के समय अशोक की पत्नी मार्केटिंग करके वापस आ रही थी कि अचानक एक तेज आती बाइक से उसकी टक्कर हो गई और वह बेहोश होकर गिर पड़ी।होश आया तो अस्पताल के बेड पर थी।माथे पर पट्टी बँधी हुई थी और एक हाथ में स्लाइन चढ़ रहा था।वो कुछ समझ पातीं तभी अशोक घबराते हुए आये।पत्नी को सही-सलामत देखकर उन्होंने पास खड़ी नर्स से पूछा कि ये सब कैसे हुआ..इन्हें यहाँ कौन लेकर आया था।तब नर्स ने बताया कि इनका एक्सीडेंट हो गया था। इनकी जान हमारी साथिन एक नर्स ने ही बचाई है जो रूम नंबर पाँच में रेस्ट कर रहीं हैं।

       रूम नंबर पाँच में पहुँचकर अशोक चौंक गये..उनके मुख से निकल पड़ा,” नंदा…तुम…।तुमने अपनी भाभी की जान बचाई है।हम तो समझे थे..।हमें माफ़ कर दो..।” कहते हुए अपनी बहन को गले लगाकर वो रोने लगे।रोते हुए नंदा बोली,” घर से तो मैं मरने के लिये ही निकली थी भईया लेकिन एक देवी ने मुझे बचा लिया।उन्होंने मुझे समझाया कि आत्महत्या करना कायरता है।वो मुझे अपने घर ले गईं…मुझे नर्सिंग की ट्रेनिंग दिलवाई और मुझे आत्मसम्मान के साथ जीना सिखाया।मैं अस्पताल से लौटकर अपने घर जा रही थी तो भीड़ देखकर रुक गई।बड़ी भाभी को बेहोश देखा तो यहाँ ले आई और..।” 

       सिस्टर से सच्चाई जानकर अशोक की पत्नी बहुत शर्मिंदा थी।नंदा को देखी तो उसका हाथ पकड़कर रोने लगी।एक दिन बाद वो डिस्चार्ज होकर घर चली गई। 

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       नाइट-ड्युटी करके नंदा अपने कमरे में आराम कर रही थी कि अचानक काॅलबेल बजा।दरवाज़ा खोला तो सामने दोनों भाई-भाभी खड़े थे।बड़ी भाभी उसका सामान बाँधने लगीं..छोटी भाभी उसका हाथ पकड़कर बोली,” अपनी भाभी को माफ़ कर दो नंदा और घर चलो।” 

     नंदा ने मुस्कुराते हुए अपना हाथ अलग किया और बोली,” भाभी..माफ़ी की तो कोई बात है ही नहीं क्योंकि मैं तो किसी से भी नाराज़ नहीं हूँ।रही बात आपके साथ चलने की तो भाभी..अब मैंने आत्मसम्मान का स्वाद चख लिया है।यहीं पर मेरा सुख है और इन मरीजों की सेवा में ही मेरा सुकून है।” छोटी बहन होते हुए भी नंदा ने आज अपने भाइयों को एक बड़ा सबक दे दिया था।

                                         विभा गुप्ता

# आत्मसम्मान                स्वरचित, बैंगलुरु 

                अपने से बड़ों का सम्मान करना अच्छी बात है लेकिन जब वे आपके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने लगें तब अपने रास्ते अलग कर लेने में ही समझदारी है।   

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