*आपसी सामंजस्य* – पुष्पा जोशी : Moral Stories in Hindi

सीताराम जी शिक्षक थे। उनकी पत्नी रौहिणी कुशल गृहिणी थी। उनका इकलौता बेटा मनीष सीधा साधा, संस्कारी और प्रतिभाशाली था। गाँव में हायर सेकण्डरी की पढाई की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। आगे की पढ़ाई के लिए वह शहर में गया। वहाँ पर उसने बी.ई. की पढ़ाई की और एक प्राइवेट कम्पनी में उसकी नौकरी लग गई। सब बहुत खुश थे। माता -प पिता ने अच्छा घर देखकर  एक सुशील लड़की से उसका विवाह करा दिया। श्वेता पढ़ी लिखी समझदार लड़की थी। मनीष को शहर में खाने-पीने की तकलीफ न हो

अत:शादी के एक माह बाद ही सास ससुर ने उसे भी मनीष के साथ शहर भेज दिया ।रौहिणी की बहू के साथ रहने की इच्छा मन में ही रह गई। सीताराम जी को भी बेटे के बिना अच्छा नहीं लगता था। मगर यह सोचकर कि बेटे का भविष्य बन जाएगा, दोनों खुश रहेंगे वे उनसे दूर रहकर भी खुश रहते। प्राइवेट नौकरी थी, मनीश सुबह ८ बजे घर से निकलता, कम्पनी घर से दूर थी, जाने आने में भी समय लगता  वह करीब ११ बजे के करीब घर आता। एक बेटा भी हो गया। कई बार तो जब वह नौकरी पर जाता बच्चा सोया रहता,

और जब वह घर आता तब भी वह सोया हुआ मिलता।मनीष का मन उदास हो जाता। श्वेता भी दिन भर घर में अकेली परेशान हो जाती। जीवन नीरस लगने लगा था। सबकी अपनी-अपनी परेशानी थी। माता पिता बेटा -बहू‌ और पोते का रास्ता देखते रहते। छुट्टियां मिल नहीं रही थी। नौकरी के खोने का डर भी हमेशा मन में समाया रहता। वेतन भी इतना कि मुश्किल से जीवन बसर होता। मकान का किराया, आने -जाने,खाने- पीने का खर्च। कभी बिमारी का खर्च।  मुश्किल से जीवन की गाड़ी चल रही थी। मनीष के मन में भी घुटन हो रही थी,

कभी-कभई सोचता की नौकरी छोड़ दे और कोई छोटा धन्दा शुरू करे, कुछ समय अपने परिवार को दे। वह अपना दर्द कहै तो किससे? मॉं- बाप ने बड़ी मुश्किल से पढ़ाया-लिखाया नौकरी कैसे छोड़ दे। इसी कशमकश में दिन गुजर रहै थे। एक दिन रौहिणी जी ने कहा -‘मेरा दिल घबरा रहा है, मनीष नहीं आ पा रहा है तो आप शहर जाकर उसके हाल- चाल देखकर आइये। सीताराम जी शहर में गए वहाँ उन्होंने देखा कि बहू घर में अकेली है, रात की ग्यारह बजे गई थी और मनीष घर नहीं आया था। उन्होंने बहू से पूछा’ बेटा! क्या रजत रोज इतनी  दैर से आता है?

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‘ श्वेता ने कहा जी बाबूजी रोज सुबह टिफिन ले जाते है और रात को तो आते -आते इतने थक जाते हैं कि कभी-कभी भोजन भी नहीं करते ,सो जाते हैं। मैंने कई बार कहा कि नौकरी छोड़ दो हम घर वापस चलते हैं। मिलकर कोई छोटा- मोटा व्यवसाय कर लेंगे। कम से कम परिवार के साथ तो रहेंगे, हिम्मत रहैगी। मेरा भी अकेले मन नहीं लगता है। मुझे सिलाई करना याद है, कोई बुकिंग खोल लेंगे या कोई और काम कर लेंगे। बाबूजी, वेतन में से कुछ बचता नहीं और परिवार से भी दूर है।’ वह रूआंसी हो गई थी।’ बाबूजी ने कहा बेटा परेशान मत हो,अब मैं आ गया हूँ,

मनीष से बात करूँगा। रात की साढ़े ग्यारह बजे मनीष घर आया चेहरा मुरझाया हुआ था। बाबूजी को देखा तो खुश हो गया उन्हें प्रणाम किया, तो उन्होंने उसे गले से लगा लिया। सीताराम जी उसका रास्ता देख रहै थे, दोनों ने साथ में भोजन किया। श्वेता चौका बर्तन समेट रही थी। मनीष बाबूजी के पास बैठ गया। बाबूजी ने कहा बेटा तुम्हारी बहुत याद आ रही थी। तुम्हारी माँ भी तुम्हें बहुत याद करती है।तुम खुश तो हो ना बेटा? सीताराम जी ने उसके बालों को सहलाया तो वह उनकी गोदी में ढुलक गया बोला ‘बाबूजी आपके और माँ के बिना मेरा भी मन नहीं लगता है।

छुट्टी मिल नहीं रही आपने मुझे इतनी मुश्किल से पढ़ाया और मैं आपके लिए कुछ नहीं कर पा रहा हूँ।’ सीताराम जी ने कहा बेटा वह तो मेरा फर्ज था अगर हमारे लिए कुछ करना चाहते हो तो घर वापस लौट चलो। सब साथ में रहेंगे। तुम और बहू मिलकर कोई व्यवसाय शुरू करना हम भी मदद करें गे और अपने पौधे के साथ खेलेंगे, जीवन में खुशी आ जाएगी। हमारे घर के पास एक दुकान अभी खाली हुई है, किराया भी बहुत कम है, तुम वहाँ से अपना कोई व्यवसाय शुरू कर देना। बाबूजी ने हिम्मत दी तो मनीष ने नौकरी छोड़ दी।

वे गाँव में आ गए। उसने और श्वेता ने मिलकर रेडिमेड कपड़ो की दुकान डाली। श्वेता को अच्छी सिलाई आती थी। व्यवसाय अच्छे से चलने लगा। राजू अपने दादा -दादी के साथ खुश था। श्वेता और मनीष को भी साथ में रहने का समय मिलने लगा। सबमें आपसी सामंजस्य था और सभी खुश थे। मनीष सोच रहा था कि उसका जो रिश्ता अपनी नौकरी से जुड़ा था। उस घुटन भरे रिश्ते से आखिर आजादी मिल ही गई और इसका श्रेय बाबूजी और पूरे परिवार को है।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक,अप्रकाशित

#एक घुटन भरे रिश्ते से आखिर आजादी मिल ही गई।

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