आज विवेक और कल्पना जी के घर से काफ़ी तेज़ आवाजें आ रही थी। वे इतनी तेज़ थी कि आराम से पड़ोसियो को भी सुनाई दे रही थीं। एक बहुत बड़ी वजह, एक कारण जो कई सालों से विवेक जी के घर में आपस में विवाद, कलह, मनमुटाव की बड़ी वजह बन चुका था। वह था घर के मुखिया विवेक जी का हमेशा दूसरों को अपने कंट्रोल में रखना, उनकी जिंदगी को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करना। पूरी आगे की कहानी बताने के लिए चलती हूँ जयपुर निवासी विवेक सक्सेना जी के घर। घर में उनके साथ उनकी पत्नी कल्पना और 17 वर्षीय बेटा सम्राट रहते थे। पेशे से विवेक जी एक व्यापारी थे। स्वभाव से काफी कड़क भी। पत्नी कल्पना को शादी के बाद कंट्रोल में रखना, उसे कुछ भी काम अपने हिसाब से करने की इजाजत ना देना चाहे कल्पना जी घर के कामों में कितनी भी निपुण क्यूँ ना हो, दूसरों की पत्नी से तुलना कर उनकी कमी निकालना उनकी आदतों में शामिल था जिससे कल्पना जी और विवेक जी में शादी के काफी समय बाद धीरे-धीरे उनके बीच काफी कहासुनी होने लग गई।
एक बार तो हद तब हो गई जब सम्राट कोई दस साल का था और हुआ यूं कि विवेक जी ने अपने घर कुछ व्यापारी दोस्तों को अपने घर सपरिवार बुलाया हुआ था। खाने-पीने से लेकर सभी चीजों का अच्छा प्रबंध करने के बावजूद पूरा टाइम विवेक जी घूरती नजरों से पत्नी को इशारे कर रहे थे। विवेक जी अपनी पत्नी से- ये क्या पहन लिया तुमने? क्या सूट है ये? कुछ ढंग का पहन लेती और खाने में क्या बना दिया? मैंने कहा था ना अलग मेन्यू रखना, पर नहीं तुमने मेरी थोड़े ही सुननी है। गुस्सा करते हुए पति ने कहा। ये आप क्या कह रहे हो? मैं और सुनकर आपकी नहीं मानी तो फिर कोई मान भी नहीं सकता और इतना अच्छा तो खाना बनाया है, सब मैंने चखकर देखा है, कम से कम आपके दोस्त आलोक जी की पत्नी की तरह बाहर से तो नहीं मंगवाया जिनकी तारीफे करते आप नहीं थकते और मेरी हर समय बुराई करी जाती है। पत्नी के इतना बोलते ही अलग कमरे में विवेक गुस्से में कल्पना की बाजू मरोड़ देता है। कल्पना एक बार तो चुप कर जाती है ताकि पार्टी खराब ना हो।
मेहमानों के जाने के बाद। कल्पना जी अपने पति से- विवेक आपका ये इस तरह का प्रभुत्व वाला स्वभाव हमारे रिश्ते को खोखला कर रहा है। जरा-जरा सी बात पर अपनी चलाना, दूसरों की नहीं सुनना, अपने आपको सबसे ऊपर मानना, जल्दी से गुस्सा होना। इन सब से रिश्ते की नींव कमज़ोर पड़ रही है। मुझे इनसे तकलीफ होती है। तभी भी गुस्से में। विवेक- घर मेरा है, जो मैं चाहूँगा वैसा ही होगा, समझी तुम। आप जो चाहते हो वही तो होता है और ये क्या बात हुई? घर मेरा भी है अब। आजकल तो नौकर भी नहीं सहते इतना रौब और गुस्सा। मेरे पास टाइम नहीं है ये सब सुनने का और विवेक जी सोने चले जाते हैं। उस समय सम्राट दस साल का था। पर बेचारी करती भी क्या? हिम्मत ही नहीं कर पायी कि आवाज़ तेज़ उठा पाए या किसी को कुछ कह पाए! कहीं जाने का सोचती तो दस साल के सम्राट को देखकर वो विचार मन से निकाल देती।
सास-ससुर जयपुर से दूर अलवर के पास के गांव में रहते थे। उन्हें शहर की हवा पानी पसंद नहीं थी। सास-ससुर को भी बहू क्या कहती, जो खुद बेटे के स्वभाव को भली भांति जानते थे, पर बहू को ही समझाते कि मिल-जुलकर निर्वाह करो। समय के अनुसार शायद इसमें कुछ बदलाव आ जाए। ऐसे गृहस्थी नहीं खराब करो। अपने आपको कभी-कभी कोसती भी कि किस्मत भी क्या खेल खेलती है। जब विवेक मुझे देखने आये थे तो एक मुलाकात में स्वभाव का इतना पता थोड़े ही लगता है। उस समय तो अच्छे ही लगे थे। ये तो जब साथ रहो तब धीरे-धीरे पता चलता है। उदास होती कल्पना अपने मन में सोचती। मम्मी-पापा से भी कई बार कह चुकी थी अपनी मनःस्थिति, पर माँ के संस्कारों ने उसे अपना घर बनाए रखने की ही अनुमति दी। परंतु अब धीरे-धीरे पिता की ये प्रभुत्व ज़माने की गंदी आदत पत्नी के साथ साथ बेटे को भी परेशान करने लगी।
सुधार तो क्या ही आना था। ज्यों-ज्यों बेटा बड़ा हो रहा था, पिता द्वारा उसे छोटी-छोटी बातों पर सुनाते रहना, “तुम बड़े होकर डॉक्टर बनोगे और कुछ नहीं उसपर इस बात का छोटे से ही जोर डालना। मैं तो पढ़ नहीं पाया या ये कह लो मन ही नहीं था मेरा। पर तुम पढ़कर डॉक्टर ही बनोगे भले कुछ ही हो जाए और सम्राट ये ही सोचता रह जाता कि स्कूल में मैडम कहती हैं और मम्मी भी कि “तुम्हें जो अच्छा लगता है, जिस चीज में तुम्हारा इंटरेस्ट है, तुम वह करो। चाहे वह पढ़ाई हो या खेल कूद या कुछ और।” अब बच्चा किसकी सुने टीचर की या पापा की। इस तरह से समय और बीत गया। अब बेटा दसवीं कर गया था। पढ़ाई में सामान्य था पर कम्यूटर में निपुण हो चला था। उसे कम्यूटर क्षेत्र में कुछ करना था। परंतु पिता के जोर ने माँ और बेटे की नहीं सुनी और विज्ञान में दाखिला दिलवा दिया जहां उसका मन बिल्कुल भी नहीं लगता था।
बहुत उदास रहने लगा था। माँ प्यार से उसे दिलासा देती और कहती “ये तेरे पापा जैसे लोग कभी ना जिंदगी में खुद खुश रहें ना दूसरों को रहने दिया। तू चिंता मत कर, मैं कुछ करूंगी इसके लिए। और थोड़े दिन बाद। उसने हिम्मत करके ये जानते हुए भी कि विवेक जी सुनने वाले तो है नहीं फिर भी कहा “क्यूँ आप अपनी इच्छा बच्चे पर थोप रहे हो? क्यूँ उस पर वह सब करने का दबाब डाल रहे हैं जो वह नहीं करना चाहता।” क्या मतलब? पति ने पूछा। क्या मतलब क्या उसे कम्यूटर लाइन में जाना है ना कि डॉक्टर बनना है। अरे तुम नहीं जानती डॉक्टर-डॉक्टर ही होता है। डॉक्टर बनना बहुत अच्छी बात है। पर सभी डॉक्टर बने ये तो ज़रूरी नहीं। हां जो स्वयं शौकीन है वे मेहनत कर इस क्षेत्र में आगे बढ़े तो अच्छी बात है पर सम्राट का अलग विचार है। कल्पना जी ने विवेक जी से कहा।
मुझे एक शब्द भी नहीं सुनना। तुम विचारों की दुहाई मत दो। विवेक जी ने पत्नी से कहा और पत्नी मन मारकर रह गई। कई दिन और निकल गए। एक दिन पिता विवेक काम पर ना जाकर घर पर ही थे, तभी स्कूल से दोपहर में सम्राट घर वापस आया और थोड़ी देर बाद में विज्ञान का टेस्ट चुपके से माँ को दिखाया ताकि पिता ना देख लें। उन दिनों बेटे सम्राट की त्रैमासिक परीक्षा चल रही थी। परंतु विज्ञान में रुचि ना होने से उसके अंक काफी कम आए, परंतु उसकी अच्छी आदत यह थी कि माँ को बचपन से ही स्कूल में क्या हुआ, परीक्षा में कितने अंक आए सब कुछ बताता था, तो आदत के अनुसार उसने इस बार भी अपना पेपर दिखाना उचित समझा। इतने में पिता को ना जाने कहाँ से पता चल गया और तभी विवेक जी बेटे से- इतने कम नंबर। तुम तो फेल हो एक तरह से और गुस्से में जोर से उसके एक थप्पड़ लगा दिया।
तभी ना जाने पत्नी कल्पना को ना जाने कहाँ से हिम्मत आयीं और बहुत तेज़ गुस्से में बोली। “ये आप क्या कर रहे हैं?” बेटे पर हाथ उठा रहे हैं, वो भी इस उम्र के बच्चे को, कद काठी में आपके बराबर हो गया है। एक अंकों के पीछे उसे आपने हाथ क्यूँ लगाया? वह अब कोई बच्चा नहीं है। एक बात तो बताओ। आप क्या डॉक्टर बने? क्या आप पढ़कर कुछ बने? जवाब दीजिए? क्या मम्मी पापा जी (सास-ससुर) ने आपको जोर जबरदस्ती की कि क्यूँ नहीं पढ़ रहे आप? नहीं तो आप भी डॉक्टर होते डॉक्टर। पत्नी ने तेज़ आवाज़ में पहली बार आज बोला। तभी पति कहते “आवाज़ नीचे।” नहीं करूंगी, जाइए क्या करेंगे आप? मेरे हाथ पकड़कर मोड़ देंगे या मुँह दबा देंगे?
इसके अलावा आपको आता भी क्या है? ये आवाज मुझे बहुत पहले ऊँची कर लेनी चाहिए थी। पत्नी ने बहुत तेज़ गुस्से में कहा। आज आप सुनेंगे और मैं बोल कर रहूंगी जो बहुत जरूरी है, समझे आप। इतने में पति विवेक का पारा भी और बढ़ जाता है और वह कहता है “सामने जुबान चला रही हो?” हाँ चलानी है मुझे आज। पत्नी ने कहा। लगभग चुप ही तो रही आयी हूँ। क्या कभी तुमने बेटे से प्यार से बिठाकर दोस्त बना कर बात करी है उससे? पत्नी-पति को पूछती है। क्या कभी एक दिन भी उसे क्वालिटी टाइम दिया जिसमें आपने इसे कुछ अच्छा सिखाया हो, कुछ नया ज्ञान का बतलाया हो? याद करिए? करिए ना याद? कभी कुछ किया हो तो याद हो। पत्नी ने आज पहली बार मुंह मारते हुए कहा।
लकड़ी को इतना ही मोड़ों कि वह टूटे ना। पर आपने तो बिल्कुल ही हद कर दी। लकड़ी को इतना जोर से दबाया कि मोड़ तो क्या लगभग टूट सी ही गई। आपने अपने इस स्वभाव की वजह से अपने आप को हमसे दूर कर दिया। आपने सिर्फ मुझे और सम्राट को कठ पुतली समझा। हमेशा हमारी कमियां और बुराई ही दिखी आपको। लोगों के सामने भी हमारी इज्ज़त की परवाह नहीं की। कैसे सम्राट की तुलना अपने दोस्तों के बच्चों से करते थे आप कि उसे देख वह कितना होशियार है, उसे सब आता है। उसके जैसा बन। क्यूँ बने वह उन जैसा? वह अपने में खास है। सभी की अपनी अपनी क्वालिटी, अपने गुण होते हैं। क्या तुलना करके अपने बच्चे का दिल दुखाना जरूरी था? पर नहीं? आपको कौन कुछ कह सकता था? पर अब नहीं। बस। आज रोते-रोते कल्पना जी का मन का गुब्बार निकल रहा था जो कई सालों से दबा पड़ा था।
आज मैं बोल कर रहूंगी। आप जानते भी हैं कि सम्राट के स्कूल बैग में सिगरेट के टुकड़े देखे मैंने। पर आपको क्या? आपने तो सिर्फ हुक्म ज़माना है। कभी देखा आपने बच्चा किस दुनिया में जी रहा है? उसे क्या चाहिए? पर नहीं। आप अपनी झूठी शान और प्रभुत्व में जियो। आपको क्या? ये सब बातें आज आग की तरह कल्पना जी के मुंह से निकल रही थी और पहली बार विवेक जी भी अब चुप्पी साधे सुन रहे थे। कुछ सांप सा सूँघ गया हो जैसे उन्हें। ना जाने जैसे आज पहली बार पत्नी की बातें उन्हें शायद असर कर रही थी शायद। कल्पना जी ने फिर कहा “ये उम्र बच्चों से प्यार से डील करने की होती है। अब वह 17 साल का हो गया है। इस उम्र के बच्चों को कुछ भी कहो तो कई बच्चों पर तो खून सवार हो जाता है। देखा नहीं था पिछले साल निखिल (रिश्तेदार का बेटा) किस तरह से अपने परिवार के विरोधी हो गया था, कारण भले ही कुछ और हो।
हमारा सम्राट तो फिर अभी बहुत सीधा है। जो आपके सामने बोला नहीं। आजकल के कुछ बच्चे तो सुना है छोटे से ही बड़ो के सामने जुबान चलाते है। जिस दिन ये बराबर जुबान चलाएगा उस दिन अच्छा लगेगा आपको? बताओ? आजकल के बच्चे पहली पीढ़ी से अलग सोचते है थोड़ा। उन्हें प्यार से कुछ उनकी बात सुनकर, कुछ अपनी सुनाकर काम लेना चाहिए। उसे डॉक्टर नहीं कंप्युटर में कुछ कोर्स करना है जो बहुत अच्छा है, मैंने सुना है तो इसमें बुरा भी क्या है? हर प्रोफेशन अच्छा होता है। सभी की एक डिमांड है आजकल। आपको अपना फैसला बदल इसे कम्यूटर में दाखिला दिलवाना चाहिए। नहीं तो ये ऐसे ही उदास रहेगा और शायद डिप्रेशन में ना चला जाए। मुझे तो आपने सदा दबाकर रखा, कभी पसंद से एक दिन भी कुछ करने नहीं दिया। पर बच्चे को लेकर अब मैं चुप नहीं रहूँगी। इस अन्याय को नहीं बर्दाश्त करुँगी! इस बात को आप समझ लीजिए। कल्पना जी ने कहा। बच्चों की जिंदगी है उन्हें फ़ैसला करने दो।
हमे साथ देना है और सही राह दिखानी है। ये सभी बातें आज एक माँ, अपने पति से कह रही थी। फ़ैसला अब आपको लेना है और वो भी हित में। इतने में विवेक जी कुछ कहते, इससे पहले वह बोली “बस मुझे कुछ नहीं सुनना और वह वहां से चली जाती है। उसके बाद घर में एक अजीब सी चुप्पी एवं शांति छा जाती है और एक दो दिन बीत जाते है। फिर विवेक जी बेटे को बुलाते है “बेटा आज पहली बार अपनी भूल का एहसास हुआ है। इतने सालों मे जो गलती हुई, उसका आज एहसास हुआ और अपना फैसला मैं तेरे हित में सुनाता हूँ। जा जो करना है कर। मैं तेरे सदा साथ हूँ और पत्नी को बुलाकर पिछले सालों का किया हुआ माफ़ करने को कहते हैं। मुझे अपनी भूल का एहसास तुमने करा कर अच्छा ही किया नहीं तो मैं अपना बेटा खो बैठता शायद। जिंदगी भर य़ह मुझसे नफरत करता। तुमने मुझे एक अपराध करने से बचा लिया। और दुखी ह्रदय से वे नीचे देखने लगते हैं। इतने में पत्नी कहती है, काफी देर से आए पर दुरुस्त आ ही आए आप जनाब। चलिए मैं चाय बनाती हूँ ऐसा कहकर वह प्यार से किचन में चली जाती है और पिता पुत्र को गले लगा लेता है।
ज्योति आहूजा