कितने बरस हो गए हमें एक साथ आराम से बैठ कर बातचीत किए हुए ! वह बचपन का सरल और निश्छल प्रेम, बात-बात पर झगड़ पड़ना ,एक दूसरे को मारने के लिए अंधाधुंध दौड़ पड़ना और बाबूजी को सामने पा कर शराफत से एकदम ठहर जाना, तुम्हारी किताबों को हाथ न लगाने की सख्त ताकीद के बावजूद मेरा तुम्हारी किताबों की शैल्फ को छेड़ना और तुम्हें आते देखकर,
तुम्हारे चोटी खींचने के डर से बाबूजी को पुकारना लेकिन रोज शाम को तुम्हारा मेरा हाथ पकड़ कर साइकिल चलाना सिखाने को ले जाना, बाहरी सुरक्षा हेतु बड़े रौब से अपने दोस्तों के बीच ‘मेरी बहन’ के रूप में परिचय देना और फिर रामलीला के दिनों में रोज शाम को बाबूजी जी को मनाने के लिए अपनी मीठी- मीठी बातों में फंसा कर मुझे आगे कर देना, सब समय के साथ न जाने कहां गुम हो गया ?
सच में, समय हमें देने के साथ-साथ हमसे बहुत कुछ लेता भी है। अब तो हमारा झगड़ना भी अपेक्षित नहीं है और मति-भिन्नता पर भी संयमित रहने की औपचारिकता निभानी पड़ती है।
भैया तुम्हे याद है, रुड़की में, मैं तब शायद छः बरस की और तुम साढ़े आठ बरस के थे, एक बार मैंने ‘सुमित्रा’ मैडम को गलती से ‘सुमुत्री’ मैडम कह दिया था । तुमने मुझे मैडम का नाम बिगाड़ने की शिकायत का भय दिखा कर पूरे एक साल तक अपने काम करवाने के लिए ‘ब्लैकमेल’ किया था।रुड़की से लखनऊ आ जाने
पर ही मेरा डर खत्म हुआ था । फिर लखनऊ में जब एक बार मेरी उंगली में छल्ला फंस गया था तो पूरी उंगली कटवाने का भय दिखा कर तुम मुझे कितना रुलाते थे, लेकिन शाम की चाय पीते हुए मैं आज भी तुम्हारे हाथों से बनी चाय का स्वाद महसूस करती हूं , क्योंकि बाकी सबको छोड़कर कर न जाने क्यों तुम सिर्फ मुझे और माँ को ही चाय में हिस्सेदार बनाया करते थे। हमारे छुटपन का यह ‘स्नेह बंधन’ कितनी मासूमियत से भरा था न भाई ?
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हां ! मुझे याद है ग्वालियर का वह पल, जब अपने मित्रों से घिरे हुए तुम अखबार में मेरा हायर सैकैण्डरी का रिजल्ट देखकर ख़ुशी से झूम उठे थे ,लेकिन एम.ए.में यूनिवर्सिटी में मेरे प्रथम आने पर तो तुम सबको दिखाने के लिए डिपार्टमैंट के बाहर चिपकी पूरी की पूरी लिस्ट ही उतार लाए थे और फिर बाबूजी से तुम्हें कितनी डांट पड़ी थी। कैसा अद्भुत था
न हमारे स्नेह का यह बंधन भाई !
उन दिनों ,राखी का पर्व कितना सरल हुृआ करता था ! एक दिन पहले ही हम रेशम की रीलों के धागों से गत्ते के अलग-अलग आकारों पर रंग- बिरंगी राखियाँ बनाया करते थे। हम बहनों में सुबह जल्दी उठकर नहाने की होड़ हुआ करती थी क्योंकि पहले उठने वाली को, बाबूजी से, बुआ द्वारा भेजी राखी बांधने के 5 रु मिलते थे और शाबाशी अलग से, लेकिन तुम हमें 5 रु की ‘चोट्टी’ कहते हुए उस दिन जान बूझ कर देरी से तैयार होते थे।
क्या कहा ? ‘पराग’ और ‘चंपक’ ? हां ! मुझे कुुछ भी नहीं भूला है।कैसे तुम मेरी बारी पर भी ‘पराग’ ‘चंपक’ और ‘चन्दामामा’ मुझसे छीन कर ले जाते थे और बड़ी दीदी से शिकायत करने पर किताबों को लहरा-लहरा कर मुझे चिढ़ाते थे।
हमारे ‘अष्टा- चंगा- पो’ तथा बाबूजी से छिपा कर खेलने वाले ‘रमी’ और ‘तीन दो पांच’ का अंत तो हमेशा ही हारने का आभास होते ही तुम्हारे द्वारा खेल के सामान को उलट- पुलट कर देने और हताशा में मेरे रो पड़ने से ही होता था।तुमने मेरा नाम ‘रोंदू’ रखा था, लेकिन विवाह के बाद मेरी विदाई पर तुम स्वयं कितना फूट-फूट कर रोए थे।
फिर,पहली बार मुझे मेरी ससुराल छोड़ने आने पर मेरी सासू मां को मेरा ध्यान रखने के लिए कहते हुए तुम कैसे भावुक हो गए थे। उस दिन अपने तेजतर्रार भाई के अंत:करण में छिपे स्नेह-भाव ने मुझे भी बहुत रुलाया था।
उसके बाद का मां का लिखा वह पत्र पढ़कर आज भी मेरी आंखे नम हो जाती हैं कि अब तुम्हारा भाई खाना खाते समय बिल्कुल झगड़ा नहीं करता।तुम्हें याद है न मुझसे जबरदस्ती चपाती बनवाना ? (भैया, मां का वह पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित है।)
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किंतु बड़े होकर हमारे ‘अपने-अपने’ संसार बसा लेने से न जाने कब और कैसे जीवन में औपचारिकताएं प्रवेश कर जाती हैं।’अपने-अपने’ परिवारों के दायित्व तले हम दोनों आपसी एकांत को ही तरस गए।
एकांत ? ‘एकांत’ से याद आया ! यूनिवर्सिटी से मेरे गोवा-मुम्बई ट्रिप पर जाते समय बाबूजी द्वारा पर्याप्त रुपए दे देने पर भी तुमने बाबूजी से छिपाकर ‘एकांत’ में ही तो मेरी मुट्ठी में और रुपए रख दिए थे और मैंने अपनी मित्र मंडली में बड़ी शान से ‘भाई ने अलग से दिए हैं’ कहते हुए सब खर्च कर दिए थे, लेकिन अब तुमसे लिए रुपयों और उपहारों में वैसा अधिकार क्यों महसूस नहीं होता भाई ?
‘अपने-अपने परिवारों की सीमाओं में बंध जाने से धीरे-धीरे हमारे ‘स्नेह के बंधन की मासूमियत’ क्यों कम होती चली गई? क्या इसलिए कि अब हम ‘बड़े’ हो गए हैं ?
बड़े होकर ‘परिपक्वता’ की हमें सचमुच बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है न भाई ?
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।
#स्नेह का बंधन