आंखें चार होना : top 10 moral stories in hindi

अब तो शादी हो गई – संगीता अग्रवाल

” ऐ कुत्ते चल हट हे….हे…उई !” नीमा की स्कूटी के आगे कुत्ता आ गया और लाख बचने की कोशिश करते भी उसकी स्कूटी एक पेड़ से टकरा गई।
” हे भगवान मैं जिंदा हूँ की मर गई मेरी तो अभी शादी भी नही हुई है मुझे इतनी जल्दी नही मरना !” नीमा आँख बंद किये जमीन पर पड़ी बोली।
” उठो बालिके तुम स्वर्ग मे हो !” तभी उसे एक आवाज़ सुनाई दी और उसने झट से आँख खोली।
” हें पर ये तो धरती जैसा ही है !” नीमा बोली। तभी उसे हँसने की आवाज़ सुनाई दी उसने आवाज़ की दिशा मे देखा तो एक नौजवान खड़ा हंस रहा था।
” शर्म नही आती आपको लड़की से मजाक करते …आह !” नीमा गुस्से मे बोली और उठने को हुई पर पैर मुड़ने के कारण उठ नही पाई।
” लाइये मैं मदद कर दूँ ।” लड़के ने नीमा का हाथ पकड़ कर उठाया तो दोनो की निगाह चार हुई और वो नौजवान बस नीमा को देखता ही रह गया । नीमा को उठाकर वो नौजवान बोला ” लगता है आपको शादी की बड़ी इच्छा है .. वैसे आपको बता दूँ इस ज़नाब की भी अभी शादी नही हुई !” उस लड़के ने नीमा के कान मे धीरे से कहा तो वो झेंप गई वो तो वहाँ से भागना चाहती थी पर पैर की चोट के कारण चल भी नही पा रही थी।
वो लड़का जिसका नाम किंशुक था वो नीमा को उसके घर तक छोड़ने चल दिया।
” वैसे आप कहाँ रहते है !” नीमा ने पूछा।
” जी वो सामने वाली बिल्डिंग मे मैं अपनी माँ के साथ रहता हूँ इंजीनियर हूँ और आप ?”
” मैं बैंक मे जॉब करती हूँ यहां अकेली रहती वो सामने की बिल्डिंग के फ्लैट मे !” नीमा बोली।
” अरे वाह मतलब हम पड़ोसी है !” किंशुक बोला। इतने नीमा का घर भी आ गया किंशुक ने देखा नीमा के पैर मे सूजन है उसने डॉक्टर को बुला लिया । नीमा के मना करने के बावजूद भी उसने नीमा का ध्यान रखा। किंशुक अपनी माँ को भी नीमा के घर लेकर आया । पराये शहर मे किंशुक और उसकी माँ का अपनापन देख नीमा के मन मे भी किंशुक के लिए प्यार उमड़ने लगा। जब तक नीमा पूरी तरह सही हुई किंशुक और नीमा मन ही मन भविष्य के सपने बुनने लगे थे । किंशुक की माँ ने नीमा की माँ से बात की और उनसे नीमा का हाथ मांगा ।
दोनो के घरवालों की रजामंदी से दोनो का विवाह हो गया।
अचानक टकराए दो अजनबियों की निगाह चार हुई और एक खूबसूरत रिश्ते मे बंध गये दोनो।
” अब तो तुम्हे कोई शिकायत नही रहेगी ना अब तो तुम्हारी शादी हो गई अब तो मरने से डर नही लगेगा!” शादी के बाद किंशुक ने नीमा को छेड़ते हुए कहा।
” लगेगा ना तुम्हारे साथ अभी बहुत जीना जो है !” ये बोल नीमा किंशुक के गले लग गई ।
संगीता अग्रवाल ( स्वरचित )

आंख मिचौली – पूनम श्रीवास्तव

नेहा जल्दी करो बारात आ गई हैं तुम हो की अभी तक तैयार नहीं हुई हो । ओफ्फो ,मेरी प्यारी मम्मी बस आप चलो में आ रही हूं। आज नेहा की चाचा की बेटी की शादी थी । वो भी फटाफट तैयार हो कर नीचे आ गई। बारात अभी द्वार पर नहीं आई थी।वो और उसकी बहन रिबन कटाई के लिए तैयार थी तभी राहुल ( दूल्हे ) ने अपने दोस्तो के साथ प्रवेश किया ।
खूब हंसी मजाक चल रहा था दोनो तरफ से मगर नेहा की नजर राहुल के दोस्त आकाश पर थी पता नही क्यों उसे ऐसा लग रहा था कि वो उसे पहले से जानती हैं था यही हाल आकाश का भी था दोनो तरफ बेकरारी थी पहली नजर का खुमार था इन्हीं सब आंख मिचौली करते विदाई का भी समय हो गया था । दोनो ने एक दूसरे के फोन नंबर ले लिए थे। पहली नजर का पहला प्यार दोनो के दिलो में महक रहा था उसकी भीनी भीनी खुशबू महक रही थी। जाते समय आकाश ने कहा में जल्द ही तुम्हे विदा करा के ले जाऊं गा। उन दोनो के बीच बाते होती रही । नेहा ने अपने मम्मी पापा को आकाश से मिलवा दिया था।दोनो के परिवार वालों को इस बात से कोई ऐतराज नहीं था। आकाश भारतीय सेना में था ये तय हुआ जब आकाश छुट्टी में घर आएगा तो इन दोनो की शादी कर देंगे । आकाश अपनी ड्यूटी पर चला गया । दोनो को जब भी समय मिलता दोनो आने वाले समय कि योजना बनाते ।
14 फरवरी का दिन नेहा के लिए ऐसी सुबह ले कर आया कि पुलवामा अटैक में आकाश और भारतीय सेना के जवान शहीद हो गए है ।नेहा पत्थर हो गई थी,साल पर साल बीत गए मगर आज भी आकाश उसकी यादों में जिंदा है।
नेहा ने एक नई इबादत लिख दी थी की प्यार ऐसी चीज़ है, जो कभी भुलाया न जा सके। आकाश उसकी सांसों मैं, उसकी धड़कन मैं समहित था।
#आंखे चार होना (प्यार होना)
पूनम श्रीवास्तव

आंखें चार होना – सुभद्रा प्रसाद

रजनी बड़ी तेजी से सीढ़ियों पर चढी जा रही थी | सोच रही थी,आज आफिस में उसका पहला दिन था और कहीं आज ही देर न हो जाये |लिफ्ट उपर गया हुआ था और आफिस पहली मंजिल पर ही है, यह सोचकर रजनी फटाफट उपर आ गई |आफिस में वह जैसे ही अपनी सीट पर बैठी, चपरासी ने आकर बताया कि साहब उसे बुला रहे हैं | वह झट से उठी और साहब के केबिन की ओर चल दी |
“मे आई कम इन सर” उसने पूछा |
“यस, कम इन ” सुनकर वह अंदर आ गई |
” रोहण तुम , तुम रोहण ही हो ना|”साहब को देखकर वह आश्चर्य चकित रह गई |
” रजनी “रोहण भी चकित हो गया| ” तुमने ठीक पहचाना | मैं रोहण ही हूँ | बैठो |” रजनी बैठ गई, पर उसका मन अतीत की ओर दौड पडा़ |
सोलह वर्ष पहले की बात थी |वह आठ वर्ष की थी और उसका भाई राजेश दस साल का |रोहण उसका पडोसी था और उसके भाई के साथ पढ़ता था | रोहण के पिता बैंक मैनेजर थे और उसके पिता सरकारी कर्मचारी | रोहण अपने माता- पिता की इकलौती संतान था | दोनों परिवार में काफी मेलजोल था |तीनों बच्चों में भी काफी दोस्ती थी और वे हरदम साथ -साथ खेलते थे |
” आओ आज एक नया खेल खेलते हैं |”रोहण एक दिन रजनी से बोला |
“कौन सा खेल? ” रजनी ने पूछा |
“आंखें चार करने का खेल ” रोहण तुरंत बोला |
“यह कैसा खेल है? ” रजनी उत्सुकता से पूछी |
“तुम मेरी आँखों में देखो, मैं तुम्हारी आंखों में देखूंगा |” रोहण बोला |
“इसका क्या मतलब है |” रजनी ने प्रश्न किया |
” मैम ने बताया है कि आंखें चार होना, इस मुहावरे का मतलब है, प्यार होना |एक दूसरे को पसंद करना |मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूँ, इसीलिए तुमसे आंखें चार करना चाहता हूँ |”रोहण ने समझाया |
“पसंद तो मैं भी तुम्हें बहुत करती हूँ |” रजनी बोली |
“ठीक है फिर, आंखें चार करो |मैं तुम्हें जीवन भर पसंद करूँगा|” रोहण बोला|
“मैं भी |” रजनी ने कहा और दोनों की आंखें चार हो गई |
“क्या सोच रही हो? ” रोहण की आवाज से रजनी की विचारधारा भंग हुई |
“तुम अचानक से कहाँ गायब हो गये थे? ‘रजनी ने पूछा |
” मेरे पापा की बदली दूसरी जगह हो गई थी और तुम उस समय अपनी माँ के साथ नानी के घर गई हुई, इसी से अचानक जाना पडा |मैं जब कालेज पढने गया, तब तुमसे मिलने तुम्हारे घर गया था, पर तुम्हारे पापा की भी दूसरी जगह बदली हो गई थी और तुमलोग वहाँ से जा चुके थे |मैं आगे मैनेजमेंट की पढाई के लिए विदेश चला गया |अभी छ माह पहले ही लौटा हूँ और इस कंपनी में ज्वाइन किया हूँ |”रोहण इतना बोलकर रूका और फिर बोला -“तुम अपनी बताओ |”
“मैंने भी एक माह पूर्व ही अपनी मैनेजमेंट की पढ़ाई पूरी की है |भैया इंजिनियरिंग की पढ़ाई कर दिल्ली में नौकरी कर रहा है |पापा रिटायर हो चुके हैं और इसी शहर में घर खरीदें हैं | ” रजनी बताई |
“तब तो मैं रविवार को तुम्हारे घर अपने मम्मी-पापा के साथ तुम्हारे मम्मी-पापा से मिलने आता हूँ |” रोहण झट से बोला |
“इतनी जल्दी, किसलिए? ”
“अपने बचपन के खेल ” आंखें चार होना ” अपने प्यार को पूरा करने, तुम्हारा हाथ, साथ मांगने|” रोहण ने पूछा -“तुम सहमत हो ना ”
“यस सर” रजनी ने शर्माते हुए सर झुकाकर धीरे से कहा |
” तो फिर, हसते हुए मेरी तरफ देखो|”रोहण उसका सिर उठाते हुए हंसने लगा |रजनी भी हंस पडी |

# आंखें चार होना
स्वलिखित और अप्रकाशित
सुभद्रा प्रसाद
पलामू, झारखंड

” अद्भुत प्यार ” – सरोज माहेश्वरी

लॉन में पंक्तिबद्ध कुर्सियां लगी थी…आज वृद्धाश्रम की संख्या में एक अंक और बढ़ऩे वाला था…नियमानुसार नवीन आगन्तुक को अपने साथियों के समक्ष अपना परिचय देना होता हैं…काले शूट बूट में एक़ स्मार्ट ज्येष्ठ नागरिक का आगमन हुआ…जोरदार तालियों से साथियों ने स्वागत किया…बिना भूमिका के रामनाथ जी ने बताया…”मैं रामनाथ अरोरा” अपनी मर्जी से इस वृद्धाश्रम में आया हूं। एक वर्ष पूर्व पत्नी राधा का देहान्त हृदयगति रुक जाने से हो गया। जीवन में एकाकीपन छा गया। बच्चे अपनी अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त हैं। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। धन ,नौकर चाकर,गाड़ी, घर की कोई कमी नहीं है।यह एकाकीपन मुझे कहीं अवसाद में न पहुंचा दे…इससे बचने के लिए मैंने हमउम्र साथिय़ों के साथ रहने का निर्णय लिया है। कविता, कहानी, लेख लिखता हूं। दो लाइन सुनाना पंसद करूँगा…
जीवन की इस संध्या में, हम कहीं गुम न हो जाएं।
जी ले जी भर के हम, आओ साथ साथ गुनगुनाएँ।।
सदा शांत रहने वाली पुष्पादेवी अपनी डायरी में कुछ न कुछ दिखती रहती थीं। पति के मृत्यु के उपरांत वह भी इस आश्रम में आईं थीं।प्रत्युत्तर में पुष्पादेवी ने साहस करके अपनी लिखी लाइन बोलते हुए कहा…
चलो अब हम सब मिलकर,कुछ ऐसा कर दिखाएं ।
याद करे ये ज़माना,अपनी बेबसी पे न आंसू बहाएं।।
तालियों से ऐसा शमा बंधा गया। अब तो अक्सर रामनाथ जी एवं पुष्पाजी एक साथ देखे जाते ,एक दूसरे को अपने लिखे उद्गार सुनाते। एक दूसरे का सानिध्य दोनों को रास आने लगा और न जाने कब दोनों की “आँखें चार हो गईं” पता ही न चला। आश्रम में लोग गलत नज़ारों से देखने लगे, परन्तु वे दोऩों मानसिक एवं भावनात्मक रूप से एक दूसरे के समीप आ गए थे… एक दूसरे के बिना रहना अब उन्हें असम्भव लगने लगा। उनका यह प्यार कहीं बदनामी की डगर पर न बढ़ जाए ,वे शादी करके अपने प्यार के नाम देना चाहते थे… शादी करके दोनों ने एक साथ रहने का निर्णय किया तो बेटों ने पुरज़ोर विरोध दिया। राजनाथ जी के पोते प्रशांत और पुष्पादेवी के पोते राघव को जब दादा दादी की पवित्र प्रेम कहानी का पता लगा तब दोनों के पोतों ने पूरी जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेकर कोर्ट और समाज में ससम्मान ऐसे अद्भुत प्रेमियों को मिलाकर पुण्य का काम किया….

स्व रचित मौलिक रचना
सरोज माहेश्वरी पुणे ( महाराष्ट्र)
#आंखें चार होना ( मुहावरा)

मृग मरीचिका – शुभ्रा बैनर्जी

कोलकाता में अपनी मौसी के पास रहकर पढ़ाई करने आया था, सिद्धांत। मौसा जी का पुश्तैनी मकान था श्याम बाजार में। उनके दोनों बच्चे विदेश में निवास करते थे। उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था, तो मौसी ने मां से सिद्धांत को अपने यहां रहकर पढ़ने देने की वकालत की।अच्छे कॉलेज में एडमिशन हुआ था।घर से पास से ही बस मिल जाती थी।
मौसी के दोनों बेटों के कमरे दूसरी मंजिल में थे। सिद्धांत को अपने छोटे बेटे का कमरा दिया था मौसी ने,जो काफी बड़ा था। सिद्धांत को उस कमरे की बालकनी से हुगली नदी का सौंदर्य देखना बहुत पसंद आया।सुबह सूरज की पहली किरण मानो खिड़की पर आकर उसे टटोल जाती थी।
सफेद पर्दों से छनकर आती धूप सिद्धांत का मन गुदगुदा जाती।एक पवित्र वातावरण में आंख खोलना जैसे स्वर्ग का सुख देता था।मोगरे और चंदन की खुशबू से भरी हुई सुबह, सिद्धांत को बालकनी में खड़े होने के लिए मजबूर कर देती।
अभी कुछ ही दिन हुए थे,वहां रहते हुए कि एक सुबह उसके घर के ठीक सामने वाली बालकनी में एक अप्सरा जैसी सुंदर युवती अपने गीले बाल गमछे से झाड़ रही थी।यौवन अभी – अभी आगंतुक बन कर आया था सिद्धांत के जीवन में। किसी नवयौवना के गीले बाल झाड़ते देखने का प्रथम अनुभव हृदय को झंकृत कर गया।
अपने चेहरे पर उन बालों के पानी की नमी महसूस कर रहा था वह।थोड़ी देर के बाद ही,वही युवती तुलसी के गमले पर पानी देती दिखाई दी।मोगरे और चंदन की खुशबू वाली अगरबत्ती जलते ही, सिद्धांत के कमरे में वही पवित्र वातावरण बन गया।
अब सिद्धांत को समझ आया ,प्रतिदिन कमरे में उस अलौकिक ख़ुशबू का रहस्य। उम्र में बड़ी थी वह युवती,इस बात का अंदाजा लगा चुका था वह।अब सिद्धांत शाम होते ही फिर बालकनी में जा पहुंचा।शाम को युवती के साथ एक तीन-चार साल की बच्ची दिखाई दी।
दोनों संध्या आरती कर रहे थे,तुलसी के मंच के पास। सिद्धांत दोनों को देखने में इतना खो गया कि कब मौसी आकर उसे बुलाने लगी ,पता ही नहीं चला।
मौसी ने जब जोर से उसे झिंझोड़ा तब सिद्धांत को लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई।मौसी ने कड़े स्वर में निर्देश दिया कि उस तरफ नहीं देखना।वह लड़की अच्छे चरित्र की नहीं।सोनागाछी से आई है,अपनी बेटी के साथ अभी -अभी यहां रहने आई है।
पास के काली मंदिर के पुजारी ने इसे उस जगह से उद्धार करके अपने रिश्तेदार के खाली पड़े घर में आश्रय दिया है।इसे अपनी बेटी मानते हैं।कोई भी उससे बात नहीं करता,तो उसे भी सचेत रहना पड़ेगा।
सिद्धांत स्वयं ही लज्जित था ,इस तरह से असभ्य की तरह उस ओर‌ देखने की वजह से।उसने मौसी को आश्वस्त किया कि उसकी तरफ से शिकायत का मौका नहीं देगा वह।
अगले दिन रविवार होने से काली मंदिर जाने के पैदल ही निकला था सिद्धांत।मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते हुए ,वही युवती और बच्ची दिखे।छोटी बच्ची दौड़ रही थी और युवती उसे रोकने के लिए उसके पीछे भाग रही थी।उसके हांथों से पूजा के प्रसाद की थाली गिरी,और सिद्धांत ने नीचे गिरा हुआ प्रसाद उठाकर उसके हांथों में देने के लिए जैसे ही उसके सम्मुख हुआ,अपलक देखता रह गया उस अप्सरा को।
अभी तक अस्पष्ट आभास ही हुआ था बालकनी से।आज अपने सामने उसे देखकर सिद्धांत का मन बल्लियों उछलने लगा।उसकी बड़ी-बड़ी निष्पाप आंखों में सिद्धांत को अपना व्यक्तित्व डूबता हुआ लगा।युवती ने प्रसाद सिद्धांत के हांथ से ले लिया और बेटी के साथ बाहर निकल गई।
सिद्धांत को लगा जैसे उसे जन्म-जन्मांतर से जानता है।यही तो है वह चेहरा जिसकी कल्पना उसने सपनों में उकेरी थी।यह अनुभूति पहले कभी नहीं हुई,क्या उसे पहली नजर में प्रेम हो गया?।मंदिर के पुजारी ने बताया,मालती नाम था उसका।
सिद्धांत शाम होने का इंतजार करने लगा बालकनी में,तभी छोटी बच्ची ने उसे देखकर हांथ हिलाया। सिद्धांत ने भी जवाब में वैसा ही किया।मालती नहीं निकली बाहर।कई दिन हो गए सिद्धांत को मालती को देखे हुए।मन में अजीब बैचेनी हो रही थी।अपनी काम वाली बाई से पूछा उसके बारे में,तो उसने बताया कि मालती दीदी की तबीयत ठीक नहीं।
सिद्धांत से अब सब्र नहीं हो पा रहा था,काम वाली मौसी के हांथों एक पत्र भेजा मालती को।इतना दुस्साहस कैसे आया उसमें,ख़ुद ही समझ नहीं पा रहा था।पत्र का जवाब कुछ दिनों बाद मिला उसे।सीधे शब्दों में मालती की चेतावनी दी कि उससे दूर रहे।सभ्य समाज में मालती जैसी युवती से मेल मिलाप अच्छा नहीं होगा उसके लिए।अपनी बेटी की दुहाई दी थी उसने।लिखा था कि शांति से उसे वहां रहने दे।
सिद्धांत यथार्थ से अनभिज्ञ नहीं था पर अपने प्रेम के हांथों विवश होता जा रहा था।किसी तरह मिलकर अपने प्रेम का इजहार करना चाहता था।रविवार को मंदिर में ही मिल गई मालती। सिद्धांत ने अपने मन की बात आज कह दी थी।मालती ने रोते हुए कहा “सिद्धांत बाबू, मैं उम्र में आपसे बड़ी हूं,जिसे आप प्रेम समझ रहें हैं वह केवल एक मृग मरीचिका है।
आपके जीवन में बसंत अभी-अभी आया है,और मैं पतझड़ का फूल हूं।प्रेम की परिकल्पना भी नहीं कर सकती मुझ जैसी औरत।आप मुझसे प्रेम करतें हैं ऐसा सोचिएगा भी नहीं।आपके भविष्य की नींव हिल जाएगी।
मेरा कलंक आपके जीवन को विषैला कर देगा।आपके प्रेम उपहार मेरे लिए नहीं है।जीवन में कुछ बन जाइए और अपने निश्छल प्रेम को उसे समर्पित करिए जो इसके योग्य है।”
मालती की बातें सुनकर सिद्धांत का मन हुआ कि उसका हांथ पकड़े और कहे निर्भीक होकर कि मैं सच में तुमसे प्रेम करता हूं।तभी मालती ने वचन मांगा काली मां की मूर्ति को साक्षी मानकर “आज के बाद आप किसी भी तरह से मुझसे मिलने का,या पत्र देने की कोशिश नहीं करेंगे।मेरा और मेरी बेटी का जीवन नर्क मत होने दीजिए।आप तो कुछ समय के बाद यहां से कहीं और चले जाएंगे,पर मेरा कहीं कोई ठिकाना नहीं।आपके जीवन में मेरे कलुषित अतीत की छाया नहीं पड़नी चाहिए।”
सिद्धांत अवाक था,कब मालती ने उसका हांथ पकड़ कर अपने सर पर रखा और वचन मांगने लगी,उसे आभास ही नहीं हुआ।मां के चरणों का फूल देते हुए बोली थी वह”यह आशीर्वादी फूल हमेशा अपने पास रखिएगा,आपको अपने वचन की याद दिलाएगा।
“वह जा रही थी,फिर कभी ना मिलने के लिए। सिद्धांत सोचने लगा”सच में,मुझमें कहां सामर्थ्य है कि मैं समाज की कुरीतियों को छोड़ सकूं।प्रेम तक छिपकर करता हूं,तो उसे समाज के सामने अपना नाम कैसे दे सकता हूं?अपने परिवार के खिलाफ जाने का साहस है क्या मुझमें?जिस युवती को एक निश्चित भविष्य नहीं दे सकता,उसे प्रेम करने का भी अधिकारी नहीं मैं।”
सिद्धांत मौसी का घर छोड़कर जा रहा था अन्यत्र रहने।आज आखिरी बार बालकनी में खड़े होकर उस अनुपम सुगंध को ज़िंदगी भर के लिए आत्मसात कर रहा था।मालती के दिए हुए फूल को उसने जतन से रखा और कहा ख़ुद से”तुम्हें कभी भूल तो नहीं पाऊंगा मैं,प्रथम प्रेम बनकर इस फूल में आजीवन रहोगी तुम।
शुभ्रा बैनर्जी
#आँखें चार होना

आँखें चार होना – के कामेश्वरी

संजना अपनी बड़ी बुआ के घर अपनी दादी के साथ आई हुई थी । उसकी बड़ी और दूसरी बुआ एक ही शहर में रहती थी। वह अपनी छोटी बुआ कमला के नज़दीक थी। बड़ी बुआ सुशीला थोड़ी कड़क थी तो वह उससे डरती थी । दो दिन बाद उसने दादी से कहा कि मैं कमला बुआ के घर जाऊँगी आप यहाँ रहिए ।
बड़ी बुआ की लड़की ने कॉलेज जाते हुए उसे कमला बुआ के घर की तरफ़ जाने वाली बस में चढ़ा दिया ।
वहाँ बस से उतरकर बुआ को कैसे सरप्राइज़ दूँगी सोचते हुए उनके घर के बाहर लगी डोर बेल को बजाया और बुआ को डराने के हिसाब से दरवाज़े के पीछे छिपकर खड़ी हो गई थी। जैसे ही डोर खुला सरप्राइज़ करते हुए आगे आई !!!! यह क्या वहाँ तो बहुत ही खूबसूरत हेंडसम लड़का खड़े होकर हँस रहा था और हम दोनों की आँखें चार हुईं ।
अंदर से बुआ ने पुकार कर पूछा विवेक कौन है बेटा । विवेक मेरी तरफ़ मुसकुराते हुए देखा तो मैंने कहा बुआ मैं हूँ मुझे देखते ही उसने गले लगाया और उस लड़के की तरफ़ मुड़कर कहा विवेक यह मेरे बड़े भाई की बेटी है ग्रेजुएट है और मुझसे कहा कि यह मेरी जिठानी का लड़का है बैंक में नौकरी करता है । मेरे कुछ कहने से पहले विवेक ने कहा जी मुझे सरप्राइज़ मिला है जिसे सुनकर संजना शर्मा गई थी ।
दोनों में दोस्ती हो गई थी और दो दिन बाद विवेक वापस चला गया था ।
उन्होंने पता नहीं लिया फ़ोन तो थे ही नहीं बात आई गई हो गई थी ।
एक साल बाद पिताजी दादी को बता रहे थे कि कमला की जिठानी के घर से संजना के लिए रिश्ता आया है हाँ कह दूँ क्या?
चार लड़के हैं तीन नौकरी कर रहे हैं लास्ट वाला लड़का पढ़ रहा है बड़े बेटे विवेक के लिए संजना को पूछ रहे हैं ।
संजना अंदर से सोच रही थी कि हाँ कह दें तो अच्छा है । दादी ने हाँ कर दिया क्योंकि ना कहने या नुस्क निकालने के लिए कुछ था ही नहीं । दादी की हाँ होते ही पिताजी उनके घर पहुँच गए और रिश्ते के लिए हाँ कह दिया । शादी के समय फिर उन दोनों की आँखें चार हुई। वे बेहद खुश थे अपने इस रिश्ते से कि आख़िर वे मिल ही गए हैं । बुआ को मन ही मन धन्यवाद कह दिया ।
स्वरचित
के कामेश्वरी
हैदराबाद
मुहावरे पर कहानी— आँखें चार होना

अंजना ठाकुर

विवेक राधिका के पिताजी सुरेश जी के खास दोस्त का बेटा था राधिका के शहर मैं अपना एमबीए करने आया था विवेक के पिताजी की हैसियत ज्यादा अच्छी नहीं थी तो सुरेश जी ने वादा किया की वो हमारे साथ ही
रहेगा विवेक भी खुश था की पैसों की बचत होगी साथ में घर पर अपनों का साथ रहेगा
राधिका विवेक की हम उम्र ही थी दोनों के बीच बातचीत होना शुरू हुई उसे पढ़ाई से संबंधित कुछ समझ नही आता था तो विवेक से समझ लेती एक दिन पढ़ते हुए
विवेक समझाने के लिए करीब आया दोनो की आंखे चार हुई और दोनों एक दूसरे को देखते रह गए

राधिका शरमाते हुए अपने कमरे मै चली गई विवेक के अंदर भी राधिका के लिए प्यार उमड़ आया लेकिन अगले पल ही उसका मन आत्म ग्लानि से भर गया की जिस घर ने उस पर विश्वास कर के उसको सहारा दिया
वो उनके साथ विश्वासघात नही कर सकता उसने राधिका से बात करके अपने दिल की बात बता दी और कहा तुम भी इस बात को समझ जाओ तो सही है कल को मैं कुछ बन जाऊं तब बात करूंगा तुम्हारे पिताजी से
राधिका को दुख तो हो रहा था लेकिन उसने विवेक की खातिर अपने दिल को समझा लिया
आज चार साल बाद दोनों की आंखे फिर चार हुई विवेक अपने घरवालों के साथ राधिका का हाथ मांगने आया था इस बार उसकी आंखो मैं ग्लानि नही प्यार था.!!

स्वरचित
अंजना ठाकुर

तुम हो तो मै हूँ – त्रिलोचना कौर

बहुत बड़े घर की खिड़की के अन्दर से माथुर दम्पति की झाँकती दो जोड़ी उदास बूढ़ी आँखे फोन पर आँखे टिकाये बेटे विराज के सपरिवार कुशल-मंगल लंदन पहुँचने का समाचार सुनने के लिए बेताब हो रही थी
।दोनो पति-पत्नि सफर के समय का पूरा हिसाब किताब लगा चुके थे कि विराज दो घंटे पहले ही घर पहुँच चुका होगा लेकिन अभी तक फोन क्यों नही आया। अनहोनी शंकाओ के विचार उन दोंनो के चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहे थे।
” मै फोन करता हूँ” माथुर साहब ने अपनी पत्नि से कहा।
“नही-नही,अभी थोड़ा इन्तज़ार और करते है..विराज ने कहा था आप फोन नही करना मै वहाँ पहुँच कर फोन करुँगा” विराज की माँ ने चेहरे पर छाई चिन्ता की लकीरों को हटाकर हल्की मुस्कराहट से कहा।
अचानक फोन बजने से दोंनो के चेहरे चमक उठे विराज का फोन था” माँ हम लोग ठीक-ठाक घर पहुँच गए है…माँ अपना और पापा का ख्याल रखना…टेककेयर ..ओके..बाॅय ..बाॅय”
“जाओ,अब चाय बना लाओ ” राहत की साँस लेकर माथुर साहब ने कहा।अचानक बन्द दरवाजे पर किसी ने जोर से दस्तक दी।किसी आगन्तुक के आने के विचार से माथुर साहब का चेहरा खिल उठा दरवाजा खोलकर देखा कोई नही था तेज हवा चल रही थी उससे दरवाजा खड़-खड़ हो रहा था।
रसोई अन्दर से पत्नी की आवाज आई “कौन है”
“कोई नही,हवा थी” माथुर साहब मायूसी से बोले
पत्नी ने चाय की प्याली हाथ मे पकड़ाकर बोझिल माहौल को हल्का बनाने के लिए हँसकर कहा “अरे कोई तो है न…चाहे हवा.. तुम हो.. मै हूँ.. हमारे संग ये हवा है..और जीने के लिए क्या चाहिए ” कहते-कहते खिलखिला उठी विराज की माँ”
माथुर साहब चाय का घूँट भरकर एकटक पत्नी के चेहरे की ओर देखते रहे जैसे ही आँखे चार हुई.. दोंनो एक दूसरे को देख आत्मिय भाव से मुस्काने लगे ।
त्रिलोचना कौर
#आँखे चार होना

इंतजार  – बालेश्वर गुप्ता

मालती तुम जानती भी हो और समझती भी हो कि मैं भी तुम्हे प्यार करता हूँ,पर क्या हमें प्यार करने का हक भी है? बताओ तो जनता को क्या उत्तर देंगे?
राजेश उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता,आजादी के संघर्ष मे भाग लिया, जेल गये।देश आजाद हुआ तो पहले ही चुनाव में विधायक भी चुने गये, मंत्री भी बन गये।रात दिन अपनी पार्टी और जन सेवा में अपने झोंक रखा था राजेश जी ने।रात्रि की तन्हाई में राजेश सोचते कि आजादी की लड़ाई में तो मालती ने भी हिस्सा लिया था।सादगी और सौम्यता की मूर्ति मालती और राजेश जी कब एक दूसरे की ओर आकर्षित हो गये उन्हें भी पता नही चला।
मालती द्वारा अपने प्यार की स्वीकारोक्ति पर राजेश बोले क्या हमें हक है कि हम अपने प्यार को देश सेवा में आड़े आने दे।हमारी शादी का मतलब होगा प्रदेश और पार्टी में केवल अपनी चर्चा।और देश के पुनर्निर्माण में विघ्न।हमे अपनी भावनाओं का दमन करना ही होगा,मालती दोगी ना मेरा साथ।
मौन प्रेम 1947 से 1986 तक बिना एक दूसरे से मिले चलता रहा।न राजेश ने शादी की और न ही मालती ने।दोनो कर्मवीर देश सेवा कार्य मे लगे रहे।
समय किसके रोके रुकता है,शरीर से क्षीण राजेश जी अपने बड़े से घर मे अकेले रहते। सब परिपाटी बदल चुकी थी,अब तक राजनीति का स्वरूप बदल चुका था।देश सेवा अब व्यापार बन चुकी थी।राजेश जी ने अपने को राजनीति से अलग कर लिया था।
और एक दिन 80 वर्षीय राजेश पहुंच गये मालती के छोटे से घर मे।बोले,मालती इस लोक में तो हम साथ रह न सके ,चल दूसरे लोक में साथ रहेंगे। सुन मालती बोली कितना इंतजार कराया राजेश?दोनो ने एक दूसरे का हाथ पकड़ा ,पंडित जी को बुलाया और ले लिये सात फेरे।राजेश जी ने 75 वर्षीया मालती की मांग में भर दिया सिंदूर।
आज राजेश जी और मालती जी दोनो ही इस संसार में नही है, पर परलोक से दोनो अपनी धरती पर अपनी मुस्कान की वर्षा तो कर ही रहे हैं।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
(सत्य घटना,बस नाम बदले है)।अप्रकाशित
#आँखें चार होना

“प्रेम की परिभाषा”  – कविता भड़ाना

अभी सारा काम खत्म करके, अपने लिए चाय का प्याला हाथ में लेकर बैठी ही थी की फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट का नोटिफिकेशन आया, “निलेश गुप्ता” नाम पढ़कर ही मेरे पेट में तितलियां सी उड़ने लगीं, प्रोफाइल फोटो देख कर जैसे दिल पर काबू ही नहीं रहा, हां ये वही था, जिसे कभी मैं बहुत प्यार करती थी और शायद आज भी करती हूं, पर इतने सालों बाद आज निलेश को मेरी याद कैसे आ गई।
सवाल बहुत थे और उनका जवाब सिर्फ निलेश ही दे सकता था, धड़कते दिल से मैने रिक्वेस्ट स्वीकार की और थोड़ी ही देर में मैसेंजर पर उसका मैसेज भी आ गया
“मोटी कैसी है तू ” निलेश मुझे हमेशा मोटी ही कहता था और मैं भी झूठमूट गुस्सा होकर कहती मोटी नहीं हूं बल्कि
खाते पीते घर की हूं, और ये सुनकर निलेश बहुत हंसता..
मन एकदम से उदास हो गया और मैं उस गुजरे हुए दौर में पहुंच गई जब निलेश से मेरी पहली मुलाकात मेरी बुआ की बेटी की शादी में हुई थी, दूल्हे का छोटा भाई और बहुत ही आकर्षक दिखने वाले निलेश को जानें मैं कब पसंद आ गई, पूरी शादी में मेरे ही आस पास रहने के बहाने ढूंढते हुए निलेश से मेरी भी”आंखें चार हो गई” पता ही नहीं चला।
दुल्हन की विदाई के गमगीन माहौल में नीलेश ने एक गुलाब का फूल और अपना फ़ोन नंबर लिखकर चुपचाप मेरे हाथों में थमा दिया, मैंने भी अपने पहले प्यार के अहसास और निशानी के तौर पर वो गुलाब का फूल आज भी संभाल कर रखा हुआ है, उस समय लैंड लाइन ही हुआ करते थे, वो भी बैठक में, जहां हम अपने दिल की बात कभी कर ही नहीं पाते थे, ऐसे में हम टेलीफोन बूथ से बाते करते और अपने प्यार को मंजिल देने के सपने देखते।
पर हमारे प्यार को भी नजर लग गई, मेरी बुआ और उनकी बेटी नहीं चाहती थी की मेरी शादी उसी घर में हो और एक दिन मेरे घर आकर, पापा और मम्मी को खूब सुनाया की अपनी बेटी को काबू में रखो, हालाकि नीलेश मेरे घर वालो को पसंद था, पर कहते है ना की पहला प्यार अधूरा ही रहता है, निलेश ने अपनी तरफ से खूब कोशिश की पर कही से भी बात नही बनी, किस्मत से समझौता करके आज हम दोनों ही अपनी अपनी घर गृहस्थी में मग्न है।
इतने सालों बाद ऐसा लग रहा है जैसे किस्मत ने वापस उसी मोड़ पर ले जाकर छोड़ दिया, पर आज दिल से अधिक दिमाग की बात सुनते हुए मैंने मैसेज का जवाब दिए बिना ही निलेश को फेसबुक और मैसेंजर पर ब्लॉक कर दिया, थोड़ी देर पहले जज्बातों में बहने वाली में अब अपने जीवनसाथी, बच्चों और परिवार को ही समर्पित
होना चाहती हूं। आंखों को बंद कर अश्कों को रोकना तो चाहती हूं पर “आंखें चार होने” का वो अहसास दिल में हमेशा दफन रहेगा।
“वो तेरे मेरे इश्क का एक, शायराना दौर सा था,
वो तू भी कोई और ही था, वो मैं भी कोई और ही थी”
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स्वरचित, मौलिक रचना
#आंखें चार होना
कविता भड़ाना

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