आईना – डा. पारुल अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

दीपिका की जिंदगी में हर दिन सूरज उगते ही एक नई जिम्मेदारी के साथ शुरू होता था। उसका हर दिन सुबह-सुबह जल्दी उठने, घर को व्यवस्थित करने, सभी के लिए नाश्ता बनाने और बच्चों के स्कूल के लिए तैयार करने में ही गुजरता। सास-ससुर के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना, पति का टिफिन तैयार करना, और देवर की पसंद का नाश्ता बनाना, ये सब दीपिका की दिनचर्या का हिस्सा थे। वह बिना किसी शिकायत के सबकी आवश्यकताओं को पूरा करती थी।

घर की सफाई से लेकर सभी के लिए भोजन तैयार करना दीपिका की जिम्मेदारी थी। उसके अपने किसी भी काम के लिए समय नहीं निकल पाता था। वह बस यही चाहती थी कि उसके घर के लोग खुश रहें और परिवार में प्रेम और सामंजस्य बना रहे। दीपिका का चेहरा हमेशा शांत और मुस्कुराते हुए होता था, लेकिन उसके अंदर अपने लिए बहुत कुछ दबा हुआ था, जिसका किसी को भी अंदाजा नहीं था।

त्योहार का मौसम आने वाला था और दीपावली के लिए दीपिका ने मन ही मन कई तैयारियां कर रखी थीं। उसने घर को नए तरीके से सजाने का सोचा था और अपने सास-ससुर, पति और देवर के लिए भी नए कपड़े और मिठाइयाँ लाने का विचार था। दीपावली का त्यौहार हमेशा से ही उसका पसंदीदा त्यौहार था और इस बार वह इसे खास बनाने के लिए पूरा मन बना चुकी थी।

दस दिन रह गए थे दीपावली में, और दीपिका को लगा कि अब त्यौहार की खरीदारी करने का समय आ गया है। वह अपने सारे कामों को जल्दी-जल्दी निपटाकर बाजार जाने की तैयारी करने लगी। काम करते-करते उसका ध्यान इस बात पर था कि बाजार से क्या-क्या सामान लाना है और घर को किस तरह से सजाना है। इन सब कामों में इतना व्यस्त हो गई कि जब वह सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी, तो उसका ध्यान भटक गया और उसका पैर फिसल गया। दीपिका के गिरते ही उसकी चीख सुनकर घर के सभी लोग बाहर आ गए।

दीपिका के पति ने जैसे ही उसे देखा, उसकी आँखों में दर्द और पीड़ा साफ झलक रही थी, लेकिन उसके पति ने बिना संवेदना के बस इतना कहा, “तुम्हें हमेशा जल्दी होती है, देखो क्या हाल कर लिया।” दीपिका को उनके इस तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं थी। उसने अपने दर्द को सहते हुए, नजरें झुका लीं। तभी उसकी सास ने भी आकर ताना मारा, “इतना बड़ा त्यौहार है, ऐसे में ये सब क्या तमाशा कर लिया तुमने! अब हम सब पर काम का बोझ पड़ जाएगा।”

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दीपिका अपने भीतर की पीड़ा को दबाए हुए खामोशी से सबकी बात सुन रही थी। उसका देवर भी, जो अभी-अभी घर आया था, अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए बोला, “भाभी, अब ये सब काम कौन करेगा? मैं तो ऑफिस से छुट्टी नहीं ले सकता।”

दीपिका का दिल इन सभी के शब्दों से छलनी हो गया। उसकी आँखों में आंसू थे, लेकिन उसने सबके आगे कुछ नहीं कहा। उसे दुख अपने चोटिल होने का उतना नहीं था, जितना अपनों की ऐसी प्रतिक्रिया का था। आखिरकार उसने इस परिवार के लिए क्या नहीं किया? दीपिका का मन दुख और निराशा से भर गया। उसे अपने पति, सास और देवर से ऐसी बेरुखी की उम्मीद नहीं थी। इतने सालों तक उसने हर हालात में घर के कामों का ध्यान रखा और अब, जब उसे उनकी जरूरत थी, तो सबने उसे केवल ताने मारे।

तभी उसके ससुर जी, जो अब तक खामोशी से सब कुछ देख और सुन रहे थे, अपने भीतर की पीड़ा को दबा न सके। उन्होंने गंभीर आवाज में सभी को फटकारते हुए कहा, “क्या तुम्हें शर्म नहीं आती? इस घर की बहू ने अपने कामों में कभी कोई शिकायत नहीं की, हर किसी के लिए हर दिन, हर परिस्थिति में खड़ी रही। आज एक चोट क्या लगी, तुम सभी ने अपनी असलियत दिखा दी। क्या तुम सब भूल गए कि जब तुम में से कोई बीमार हुआ, तो इसने रातों-रात जागकर सबका ख्याल रखा था? अगर एक दिन इसे आराम चाहिए, तो तुम सब इसे इतनी बेरुखी से जवाब दोगे?”

उनकी यह बात सुनकर घर के सभी लोग झेंप गए। पति, सास और देवर के चेहरे पर ग्लानि के भाव थे। दीपिका के पति ने झुके हुए सिर के साथ दीपिका के पास जाकर उसका हाथ पकड़ा और उसे नर्म लहजे में कहा, “मुझे माफ कर दो। मैंने तुम्हारी मेहनत और त्याग की कद्र नहीं की। तुमने हमेशा हमारा साथ दिया, और हम तुम्हारे साथ यही कर रहे हैं, यह हमारी गलती है।” सास ने भी धीरे से दीपिका की ओर देखते हुए कहा, “बेटा, तुमने घर के लिए बहुत किया है। हमें अपनी गलती का एहसास हो गया है। माफ कर दो।”

दीपिका के दिल पर लगे घाव अब पिघलने लगे थे। उसके ससुर के शब्दों में जो अपनापन और प्रेम था, उसने उसकी तकलीफ को काफी हद तक कम कर दिया था। उनके चेहरे पर संतोष और स्नेह का भाव देखकर दीपिका के आँसू अब बहने लगे, लेकिन अब ये आँसू दुख के नहीं, बल्कि राहत और खुशी के थे। उसे अपने परिवार का सच्चा सहयोग और सम्मान महसूस हुआ।

उस दिन के बाद दीपिका का परिवार उसके प्रति और भी संवेदनशील हो गया। पति ने दीपिका के हर काम में मदद करना शुरू कर दिया। सास ने भी घर के छोटे-मोटे कामों में अपना हाथ बंटाना शुरू कर दिया और देवर ने भी ऑफिस से थोड़ा जल्दी घर आकर घर के कुछ जिम्मेदारियों को उठाने का प्रयास किया।

दीपिका अब यह महसूस कर रही थी कि उसका परिवार अब केवल कहने को नहीं, बल्कि सच में उसके साथ खड़ा है। परिवार के सभी सदस्यों ने त्यौहार की तैयारियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। दीपावली का त्यौहार उस साल दीपिका के लिए खास बन गया था। घर में रौनक भी थी और दीपिका के दिल में भी एक नया उत्साह जागा था।

मूल रचना

डा. पारुल अग्रवाल

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