‘मैं उम्मीद करता हूँ, कि आपने मेरी चिट्ठी को पढ़कर, सोच समझ कर निर्णय लिया होगा, मैं चाहता था आपसे मिलकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं, मगर हमारे परिवार के लोगों की दकियानूसी सोच ने यह होने नहीं दिया। बहुत कोशीश की, बड़ी मुश्किल से आपकी माँ को पत्र लिखकर दे पाया। और उन्होंने जब आश्वस्त किया कि आपको कोई एतराज़ नहीं है, तभी मैं आपसे शादी करने का साहस जुटा पाया हूँ।’
दारुण सभी कुछ एक साँस में कह गया।नलिनी की आँखे विस्मय से फैल गई थी, यह क्या शादी के बाद, उसके सपनों की पहली रात और दारुण कैसी बात कर रहे हैं। वह अचकचा गई, फिर हिम्मत करके पूछा ‘आप किस पत्र की बात कर रहे हैं, मैंने तो कोई पत्र नहीं पढ़ा। मुझे तो बस आपके परिवार से मिलवाया था,
परिवार के सभी लोग मुझे अच्छे लगे,आपके बारे में बताया था, कि आपका बैंगलोर में कपड़े का व्यवसाय बहुत अच्छा चल रहा है, दो तीन दुकानें हैं,आप धार्मिक प्रवृत्ति के हैं।मेरी जिद करने पर आपकी फोटो दिखाई थी और मुझे सबकुछ ठीक लगा और मैंने हाँ कह दी, हमारा परिवार भी पुराणपंथी विचार धारा का है। कहिए ना क्या कहना चाह रहै थे आप।’
‘ओह ! यह तो अनर्थ हो गया, मुझे आप क्षमा कर दें। मैं आपके दिल को कभी नहीं दुखाऊंगा, न आपको आर्थिक रूप से कोई परेशानी होगी, मगर मैं आपको दाम्पत्य का सुख नहीं दे पाऊंगा,शरीर से लाचार हूँ।अन्जाने में अपराधी बन गया हूँ। मैंने हर तरह से आपकी माँ को सब बता दिया था, आपकी और आपकी माँ के बीच के वार्तालाप से भी यही लग रहा था कि आप दोनों में अच्छा दौस्ताना है, मुझे लगा आपने सब जान कर भी रिश्ता मंजूर किया, मैं अपने को किस्मत वाला समझ रहा था, मगर……।आपने जो मेरे बारे में जाना वो आधी हकीकत और आधा फ़साना था।’
दारून की आँखे छलछला आई थी,उसने एक लम्बी साँस ली फिर बोला-‘अनजाने में आपके साथ धोखा हो गया, मैं दोषी बन गया।जो हो गया उसके लिए मैं शर्मिन्दा हूॅं, मगर अब आप जो भी निर्णय लेंगी मैं उसका सम्मान करूंगा।’
नलिनी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी,वह रात भर तकिये पर सिर रखे सिसकती रही और दारूण पश्चाताप की अग्नि में जलता रहा,वह यही सोच रहा था, कि उसने नलिनी की माँ पर विश्वास क्यों किया, हिम्मत करके नलिनी से बात क्यों नहीं की।
नलिनी के मन में विचारों का आलोड़न चलता,रहा क्या माँ उसके साथ ऐसा कर सकती हैं? उसे कभी लगा ही नहीं कि उसकी माँ सौतेली है,कुछ लोगों ने उसे सचेत भी किया था,मगर उसने कभी किसी पर विश्वास नहीं किया। उसके पापा के शांत होने के बाद माँ ने उसका और उसके अपने बेटे दोनों का ध्यान रखा। तो क्या यह सब दिखावा था? क्या माँ ने अपना सौतेला पन बता दिया? क्या वह जैसी दिखती है,वैसी है नहीं? क्या दारूण झूठ बोल रहा है ?मगर, उसे दारूण की आँखों में सच्चाई नजर आ रही थी। उसने अपने आप को सम्हाला और सच्चाई जानने का निश्चय किया।
दूसरे दिन उसका भाई उसे मायके ले गया, नलिनी के मन में तो भूचाल था,मगर वह माँ के सामने सामान्य ही रही उसे सच जानना था, और जरूरी था उस खत को ढूंढना। वह उसकी माँ के कमरे में जाकर उनसे बातें करती रही और कमरा जमाने के बहाने खत को ढूंढने का प्रयास करती रही।खत तो उसकी माँ ने फाड़ कर फैंक दिया था,मगर उसकी एक चिन्दी उसके हाथ में लग गई उसमें लिखा था- ‘मैंने अपनी हकीकत आपको बता दी हैं,अब आप रिश्ते को स्वीकारो या मना करो आप पर निर्भर है। आपका दारुण।
सब कुछ कांच की तरह साफ था, नलिनी ने माँ से सिर्फ इतना कहा- ‘माँ मैं अपने घर जा रही हूं,आपसे यह उम्मीद नहीं थी,अब मुझे कभी मत बुलाना।’ उसने वह कागज का पुर्जा माँ के हाथ पर रख दिया, और पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।उसने हृदय से दारूण को अपना लिया था, और नलिनी की इच्छा का सम्मान करते हुए दारुण ने एक बच्चे को गोद ले लिया था।अब उनके सुख – दु:ख उनकी हकीकत थे कोई फसाना नहीं था।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी(एडव्होकेट)
स्वरचित, मौलिक