राकेश बालकनी में बैठे एक हाथ में पेपर और दूसरे हाथ में मोबाईल लिए पता नहीं किस सोच में डूबा था। सामने टेबल पर चाय ठंडी हो रही थी पर उसका ध्यान…..।
रिया ने पीछे से आवाज लगाई-” कहाँ ध्यान है आपका? चाय भी ठंडी हो गई। “
“रिया गाँव से पिताजी का फोन था।”
“पिताजी का फोन सुबह- सुबह क्या बात है?” रिया भी थोड़ी चिंतित हो गई।
“क्या कहा उन्होंने जो आप सोच में पड़े हुए हैं।”
वो दिल्ली जाना चाहते हैं मुझे टिकट भेजने को कहा है ।
“दिल्ली!!”
इस बार रिया की आंखों में प्रश्नचिह्न था।
“हाँ कल के लिए ही टिकट चाहिए, वो अभय के पास जाना चाहते हैं ।”
“पिताजी का दिमाग खराब हो गया है क्या! अभय के पास क्यों जाना चाहते हैं?”
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बता रहे थे उसका तबियत खराब है और वह हॉस्पीटल में है ।उसकी पत्नी ने फोन किया था पिताजी के पास।
“तबियत खराब है तो होने दे, ऐसे लोगों का यही हाल होना चाहिये। और मैं कहती हूँ कि जरूरत क्या है पिताजी को वहाँ जाने की । पिताजी भूल कैसे गये अभय की करतूत को।”
रिया गुस्से में बोले जा रही थी और राकेश के दिमाग में फिर वही बीता हुआ घटनाक्रम रिपीट होने लगा…
उसका परिवार एक आदर्श परिवार था जिसकी चर्चा चार गांवों तक होती थी ।उस परिवार की आपसी समझ, सामंजस्य भाईचारा और प्यार हर दूसरे परिवार के लिए उदाहरण था। उसके घर में कोई खटास उत्पन्न हुआ हो ऐसा कभी किसी ने नहीं सुना । उस परिवार के लोग अपने आप को हर परिस्थिति में संयमित रखने की कोशिश करते थे। बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान घर की चारदीवारी के अंदर ही हो जाया करती थी। पिताजी को गांववाले बाबु साहेब संबोधित करते थे। उन्होंने बड़े ही जतन से समाज में अपने परिवार को प्रतिष्ठित करके रखा था। शायद यह संस्कार उन्हें अपने पूर्वजों से मिली थी।
“बाबु साहेब” के परिवार में तीन बेटे और दो बेटियाँ थीं।
इसके अलावा छोटे भाई की पत्नी, एक भतीजा और एक भतीजी भी थी। छोटे भाई की अकाल मृत्यु के बाद इन सब की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर थीं। सभी बच्चे उनकी नजरों में एक समान थे। उन्होंने सबको पढ़ाया लिखाया। बेटी -भतीजी में कोई फर्क नहीं किया। बेटी से पहले भतीजी का ब्याह अच्छे घर – खानदानी लड़के से किया। लोग बाग उनकी मिसाल देते नहीं थक रहे थे। बेटों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया पर छोटे भाई के बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा। सभी पढ़ लिख कर अच्छे- अच्छे पद पर नियुक्त हुए। दोनों बेटों और भतीजे की शादी बड़े ही धूमधाम से की। बाबु साहेब की एक बेटी ब्याह के लिए बच गई थी।
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सभी जिम्मेदारियों को निपटाते -निपटाते जीवन संध्या की बेला आ गई। वे रिटायर हो गये थे। कुछ बीमारियों ने उनके शरीर को अपना आशियाना भी बना लिया था। बच्चों को पढ़ाने लिखाने और उनकी जरूरतों को पूरा करने के बाद उन्होंने अपने भविष्य के लिए कोई जमा पूंजी बचाया ही नहीं।
अंत में उन्होंने यही विचार किया कि सब बच्चे सेटल हो चुके हैं अब जो भी पुस्तैनी जमीन जायदाद है उसमें से कुछ बेकार पड़ी जमीन को हटाकर छोटी बेटी की शादी कर दें और जो भी जीवन बचा है निश्चिंत हो कर आराम से बिताये । उन्होंने त्योहार के मौके पर सबको बुलाया और अपनी मनसा बताई। सब के सब भाइयों ने हामी भरी पर छोटे भतीजे अभय ने अपना ऐसा रूप दिखाया जिसकी कल्पना किसी को कोई थी। जिस भतीजे को बाबु साहेब सबसे अधिक मानते थे। सिद्धांतवादी होने के बावजूद उन्होंने उसकी नौकरी के लिए रिश्वत दी थी। उस भतीजे ने उनके सामने ऐसा प्रस्ताव रखा कि सब के होश उड़ गये।
उसने बड़े ही तल्ख लहजे में कहा – ” ताऊजी “छोटी” आपकी बेटी है उसकी शादी कैसे होगी आप समझिए मुझे इस घर में मेरे पिताजी का हिस्सा दे दीजिये ताकि मैं उसे बेचकर शहर में एक फ्लैट खरीद लू। मुझे अब इस घर से कोई लेना-देना नहीं है । “
बाबु साहेब को इसका अंदाजा नहीं था क्षोभ और गुस्से से उनकी आंखे भर गई। सबने बहुत समझाने की कोशिश की पर अभय कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। घर से बाहर यह खबर नहीं पहुंचे इसके लिए सभी ने बहुत मिन्नतें की पर सब बेकार।
घर की इज्जत बचाने के लिए बाबु साहेब ने अपने तीनों बेटों के सामने झोली फ़ैला दी। चूकी सभी की अपनी अपनी जिम्मेदारी थी सो किसी के पास उतने पैसे नहीं थे जितना अभय का डिमांड था। उन्होंने अपने पेंशन से लोन लिया और माँ के सारे जेवर गिरवी रख कर जीवन भर की जमा पूंजी भतीजे के सामने लाकर रख दिया और हाथ जोड़कर बोले – ” बेटा यह पैसे ले जाओ जो जी करे करो पर घर के हिस्से की बात कभी मत करना, यह घर नहीं, हमारे पुरखों की आत्मा है उनका धरोहर है और धरोहर कभी बेचे नहीं जाते ,संजोये जाते हैं। “
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पिताजी के नसीहत को नजरअंदाज कर अभय पैसे और परिवार के साथ दिल्ली लौट गया। उसके बाद सात सालों में ना आया और न किसी की खोज खबर ही ली। यहां तक कि अपनी माँ के बारे में भी कभी नहीं पूछा। बेचारी माँ के आँचल का कोर हमेशा आंसुओं से भीगा रहता था। बाहर किसी को तो नहीं पता चला पर पिताजी अंदर से बिल्कुल टूट गए ।लोग क्या कहते होंगे यही सोच सोच कर मौन रहने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने बिस्तर पकड़ ली।
“छोटी” पढ़ने में होशियार थी वह ग्रेजुएशन के बाद कॉम्पिटिशन की तैयारी करने लगी। उसकी मेहनत रंग लाई आज वह बैंक में पी.ओ के पद पर कार्यरत है। शादी के लिए कई ऑफ़र आ रहे हैं। बस उसकी हाँ की देर है। हाँ के लिए सिर हिलाते ही झटके से मोबाईल राकेश के हाथ से नीचे फिसल कर गिरा ,दुबारा से पिताजी का कॉल था…
उसने हड़बड़ाहट में कहा जी, पिताजी बोलिए…. जी ठीक है।
“रिया ने इशारे से पूछा क्या कह रहे हैं पिताजी ?”
“मुझे भी साथ चलने के लिए कह रहे हैं।” राकेश ने रिया से कहा ।
“आप मना कर दीजिये।” रिया मूंह बीचकाते हुए बोली।
ऐसे संस्कार नहीं है मेरे जो उन्हें मना कर दूं। अब पिताजी कह रहे हैं तो जाना ही पड़ेगा।
अगले दिन ऑफिस से छुट्टी लेकर राकेश गाड़ी से पिताजी के साथ दिल्ली निकल गया। वहां पहुँच वे लोग बताए पते पर हॉस्पीटल पहुंच गए। अभय की पत्नी इनलोगों को देखते ही जार-जार होकर रोने लगी। पिताजी उसके माथे पर हाथ रख ढाढस बांधते हुए बोले-” बहू, तुम अकेले नहीं पूरा परिवार तुम्हारे साथ है और मेरे जीते जी तुम्हारे आंखों में दुःख के आसुओं की कोई जगह नहीं है। मैं आ गया हूँ न सब ठीक हो जायेगा ।”
डॉक्टर से मिलने पर पता चला कि अभय की दोनों किडनी खराब है और अगर एक का भी इंतजाम नहीं हुआ तो जिंदगी बचाना मुश्किल हो जाएगा।
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आज चार दिन बाद अभय को होश आया था ।उसने जैसे ही आँखें खोली सामने वाले बेड पर पिताजी को देखा। वह कुछ समझ नहीं पाया तभी बगल में खड़े डॉक्टर ने कहा -” आप बहुत लकी हैं जो ऐसा परिवार आपको मिला है इन्होंने अपनी एक किडनी आपको दी है अभय जी।”
बाइ द वे ये कौन हैं आपके?
#परिवार
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर ,बिहार