मीता इस शहर में नई नई आई थी। अभी-अभी उसके पति का स्थानांतरण इस शहर में हुआ था। दो-तीन दिन तो जमने में ही लग गए। बच्चों का विद्यालय में नामांकन भी कराना था।
नामांकन के बाद उस दिन वह बच्चों को बस पड़ाव पर छोड़ने जा रही थी,तभी रास्ते में एक विक्षिप्त भिक्षुणी को देखा। उसके कपड़े जहां-तहां से कटे हुए थे, जिनमें से उसका मैला सा तन यूँ ही झाँक रहा था। उसने अपने हाथ में एक पोटली थाम रखी थी। वह कभी उस पोटली को बच्चे की तरह गोद में लेकर सुलाती,
तो कभी अपने आप रोने लगती, कभी झूमकर गाना गाने लगती…… अगल बगल की झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले बच्चे वहां आकर उसके खूब मजे ले रहे और ताली बजा बजाकर “पगली पगली” का कर उसे चिढ़ा रहे थे…….उसने जब पत्थर उठाकर उन्हें दिखाया तो सब भाग गए।
उसके बाद वह सड़क के किनारे रखे कूड़ेदान तक गई और उसमें से कुछ खाने का ढूंढने लगे उसे किसी की फेंकी हुई एक पूड़ी मिल गई, जो अब बिल्कुल सूखकर ऐंठ चुकी थी। फिर उसने अपने थैले से एक जगह जगह से पिचका दबा हुआ बोतल निकाला और उसमें से थोड़ा पानी उस पूरी पर डाल दिया और फिर जैसे तैसे उसे चबाकर खाने लगी, जैसे बरसों से भूखी हो। मीता का मन करुणा से भर गया।
बच्चों को बस पर चढ़ाने के बाद वह घर आई और फ्रिज से आटा निकाल कर दो रोटियां फटाफट सेकी। बच्चों के लिए जो सब्जी बनाई थी, उसमे से थोड़ी बच गई थी। वह सब्जी और रोटियां लेकर उस भिक्षुणी के पास जा पहुंची। कागज की प्लेट में रखकर उसे रोटी और सब्जी खाने को दिए।
उसने खाना देखकर आंख उठा कर के उसकी तरफ देखा और अचानक उसकी आंखों में जैसे ढेर सारी कृतज्ञता भर आई। उसने बड़े चाव से वह रोटी सब्जी खाई,पानी पिया और फिर अपनी पोटली पर सर रखकर वहीं सो गई।
उस दिन के बाद से यह मीता का नियम हो गया था कि वह जब भी बच्चों को बस पड़ाव पर छोड़ने को जाती, वह अपने साथ कुछ ना कुछ खाना जरूर ले जाती जिससे वह उस भिखारिन को देती।
पास पड़ोस के लोगों से पता चला कि वह पास के ही एक झुग्गी में रहती थी । शत्रुता के कारण किसी ने उसके परिवार के सभी सदस्यों की हत्या कर दी। वह सब्जी लाने गई थी, इसलिए वह बच गई। उसके बाद से ही सदमे के कारण उसकी मानसिक अवस्था ऐसी हो गई। जो भी दूरदराज के रिश्तेदार थे,
उन सभी ने इस से मुंह मोड़ लिया। अब यह यूं ही सड़क पर अपना गुजारा करती हैं। और शाम होते ही अपनी झुग्गी में जाकर सो जाती है।
मीता ने जब भी उससे उसका नाम पूछने का प्रयास किया, वह केवल अपनी बड़ी बड़ी उदास आंखों से उस की ओर देखने लगती, जैसे अपना नाम याद करने का प्रयास कर रही हो…..उसकी इन भाव भरी आंखों को देखकर नीता ने उसका नाम ही नैना रख दिया।
एक दिन जब मीता ने उसे खाना थमाया तो उसने अपनी पोटली से निकालकर एक गुलाब का फूल उसकी ओर बढ़ाया। फूल की पंखुड़ियां पोटली में रखे होने के कारण थोड़ी थोड़ी मुड़ सी गई थी, पर उसकी खुशबू बहुत मोहक थी। नैना मीता को देखकर उस दिन पहली बार मुस्कुराई। तभी
अचानक मीता की दृष्टि उसके हाथों पर गई। नैना के हाथों से जगह जगह से खून रिस रहा था जो शायद उसके लिए गुलाब का फूल लाने के समय कांटों से लग गया था। उसके शरीर पर भी जगह-जगह नीले निशान बने हुए थे और उसके बालों को किसी ने काट दिया था। शायद फूल तोड़ने के अपराध के दंड स्वरूप……
आह कितना बहुमूल्य था वह फूल…ढेर सारा स्नेह उमड़ पड़ा मीता के मन में उस भिखारन के लिए। वाह पास की ही दवा की दुकान से उसके लिए दवा लाई और उसकी मरहम पट्टी कर उसका हाथ चूम लिया…. एक अलग सा ही रिश्ता बन गया था उन दोनों के बीच…..
एक दिन नैना को खाना खिला कर वह वापस घर की तरफ आ रही थी, तभी अचानक उसका मोबाइल बज उठा। उसका ध्यान सड़क से हटकर मोबाइल की तरफ चला गया। वह सामने से द्रुत गति से आती पर उस कार को नहीं देख पाई, अचानक दृष्टि उठाई तो काल की तरह वह कार सामने नजर आई……
तभी अचानक उसे बहुत जोर का झटका लगा और वह अगले ही पल सड़क के दूसरी तरफ जा गिरी। मृत्यु उसे छूकर निकल गई….. थोड़ा संभालने के बाद उसने मुड़कर उस ओर देखा तो उसकी धड़कन मानो रुक सी गई। सामने नैना का खून से लथपथ शव पड़ा था।
जिस खतरे को वह ना देख पाई, उसको एक पल में नैना ने देखकर अपनी जान पर खेलकर उसे बचा लिया। मगर वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठी। अपने प्राणों की आहुति देकर नैना ने दिल का रिश्ता निभा लिया…..
मीता फफक फफक कर रो पड़ी। हृदय में अपार पीड़ा और आंखों में आंसू लिए वह अपने घर की ओर भारी कदमों से चल पड़ी। नैना का क्रिया कर्म भी तो अब करना था उसे…….
#दिल_का_रिश्ता
निभा राजीव “निर्वी”
सिंदरी धनबाद झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना