निर्मला तीसरी बार माँ बनने वाली है। सास तो चाहती है कि भ्रूण परीक्षण करवा ही लें, क्यों कि पहले से ही दो बेटियाँ हैं। पर निर्मला ने साफ मना कर दिया।
” नहीं माँ जी, मैं ने आपके दबाव में ही तीसरी कोशिश की। भ्रूण परिक्षण तो बिल्कुल नहीं। जो होगा वो मेरा अपना खून होगा।”
बेटा ने भी बहू का ही साथ दिया। अब निर्मला अपनी तीसरी संतान के आगमन की तैयारी करने लगी, पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। पाँचवा महीना था और पति सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया। महीना भर भी नहीं बीता था कि मायके ससुराल से भ्रूण परिक्षण का दबाव फिर से पड़ने लगा। विधवा औरत यदि एक बेटा हो जायेगा तो बुढ़ापे का सहारा बनेगा।
तीन- तीन बेटियों का भार
निर्मला लोगों की बात सुन काँप उठी। निर्मला की माँ ने इसका विरोध किया और बेटी को प्रसव के लिए अपने पास बुला लिया।
सास ने इस चेतावनी के साथ मायके भेज दिया कि यदि बेटा हुआ तभी लौट कर इस घर में आना वरना——–।
माँ ने निर्मला को बुला तो लिया, लेकिन बेटों की मर्जी के खिलाफ।
समय पर प्रसव हुआ, लेकिन कुदरत का करिश्मा जुड़वा बच्चा हुआ- एक बेटा और एक बेटी। ससुराल वालों के साथ भाईयों ने भी चैन की साँस ली।
इधर निर्मला जिस वेदना को नौ महिनों से झेल रही थी, अब मन-ही-मन एक निर्णय ले चुकी थी। कुछ महिनों के बाद वो अपनी पुरानी नौकरी को पाने की कोशिश में लग गयी। शादी से पहले निर्मला एक स्कूल में शिक्षिका थी, जिसे वह शादी के बाद छोड़ चुकी थी। वापस वही नौकरी तो नही मिल सकती, पर अच्छे रेकॉर्ड के कारण उसे एक मौका मिला
और साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। निर्मला सफल रही। इसका विरोध भी ससुराल वालों ने बहुत किया, सास- ससुर निर्मला को घर चलने का आग्रह करने लगे। भाईयों ने भी चाहा कि वो अपने घर चली जाती। चार-चार बच्चों की परवरिश करना आसान नहीं होगा। वे लोग भी तो अपने घर में सदस्यों की संख्या बढाना नहीं चाहते थे।
निर्मला ने अपनी सास से साफ शब्दों में कह दिया-
” माँजी! आपने तो बेटी होने से वापस आने को मना कर दिया था। बेटी भी तो हुई है। मैं इसे छोड़कर नहीं जा सकती।”
“अरे बहू, कौन कहता है इसे छोड़कर जाने को। भाई के साथ ये भी पल जायेगी।”
” यही भेद-भाव मुझे जाने से रोकता है। आप भी तो किसी की बेटी थीं। अगर आपको जन्म लेते ही छोड़ दिया गया होता तो…..”
सास ने बात को अनसुना कर वापस जाने की गुहार लगाती रही, लेकिन निर्मला अपने निर्णय पर अडिग रही।
अगले महीने से ही उसने अपना कार्य भार सम्भाल लिया। अब वह अपने भाईयों के साथ भी रहना नहीं चाहती थी। पिता की मौत के बाद भाईयों का ही शासन था। बेटी की वजह से माँ का अपमान हो, ये कोई भी बेटी नहीं चाहेगी
” माँ ! अब दोनों बच्चे आठ महीने के हो गये। बड़ी दोनों बेटियों का नामांकन भी तो अच्छे स्कूल में कराना है। मैंने स्कूल के नजदीक ही एक घर किराये पर ले रखा है। अगले महीने चली जाऊँगी।”
” नौकरी और चार बच्चों की देख- रेख अकेले कैसे कर पाओगी? मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। जब-तक बच्चे बड़े नहीं हो जाते मैं भी तुम्हारे साथ रहूँगी।”
” माँ , भैया का परिवार …।”
मैं इन्हें छोड़कर कहाँ जाना चाहती थी, पर तुम्हें भी तो नहीं छोड़ सकती।अभी तुम्हें मेरी जरूरत है।”
निर्मला के साथ माँ का जाने का फैसला बेटों को पसंद नहीं आया। बहुएँ भी नहीं चाहती थी कि सासुमाँ जाती। रसोई का काम आधे की जगह पूरा करना पड़ेगा।
“माँ, इस उम्र में वहाँ जाकर काम करोगी? बीमार पड़ जाओगी तब?”
“बीमार तो यहाँ भी पड़ सकती हूँ।”
“पर माँ….”
आगे माँ कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया। मन- ही- मन में बुदबुदाती रही- बेटा आज मुझे अपने बेटी पर गर्व है। अपने स्वाभिमान के साथ मेरे मान का भी ख्याल रखा। उस घर में वापस नहीं जाने का निर्णय एक बड़ा कदम था। यदि बेटा नहीं हुआ होता तब तो वो लोग इसे मूड़ कर देखते भी नहीं। ऐसी मानसिकता से दूर रहना ही अच्छा है। वहाँ जाकर हर पल अपनी बेटियों को अपमानित होने से भी बचा लिया। मैं मन से तो इसके साथ हूँ ही तन से भी जब-तक इसके बच्चे छोटे हैं मैं साथ रहूँगी।
बच्चे और माँ के साथ निर्मला ने अपने नये घर में प्रवेश किया। दूसरे ही दिन निर्मला के सास- ससुर वहाँ पहुँच गये।
निर्मला घर पर नहीं थी। माँ से ही मुलाकात हुई।
” आप कैसी माँ हैं? बेटी को समझाने के बजाए उसका साथ दे रही हैं? निर्मला अभी युवा है। इस समाज में एक अकेली जवान विधवा के साथ कुछ ऊँच- नीच हो गया तो? हमारी भी तो कोई इज्जत है?”
” समधन जी, आपकी इज्जत तो उसी दिन मैं ने देख लिया था जिस दिन आपने कहा था कि ‘बेटी होगी तो लौट कर मत आना।’ हमें अपनी बेटी पर गर्व है। वह हमारा स्वाभिमान है। आप निश्चिंत रहिए। मेरा दिया संस्कार भी उसके साथ है।”
अब निर्मला की सास के पास कोई जबाब नहीं था। मायूस होकर चली गयी, लेकिन अपने पोते से मिलने यदा-कदा आती रहती थीं।
स्वरचित एवं मौलिक रचना
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।