टमाटर के फुल:- मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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बहुत तीखी तो नहीं लेकिन धुप आ रही थी आँगन में। रात भर सर्दी की ठिठुरन से परेशान विजय कुर्सी डाल कर बैठ गया। सामने कुछ गमले लगे हुए हैं, फुल के पौधों के अलावा मिर्च और टमाटर के पौधे भी पिताजी ने गमलों में लगा रखा है।

विजय अपना डिग्री पुरा कर के कोई अच्छी नौकरी की तलाश में लगा हुआ है। ऐसा नहीं था की उसने बाहर के शहरों में जा कर प्रयास नहीं किया। वो गया था सपनों की नगरी बम्बई और फिर बाद में दिलवालों की नगरी दिल्ली। लेकिन जहाँ भी गया किसी ने उसके क़ाबिलियत के अनुसार काम नहीं दिया।

कुछ दिन काम कर के छोड़ना पड़ जाता था। आख़िरकार झुंझला कर वापस घर आ गया। मन में ठान लिया की अब घर रह कर ही लोक सेवा आयोग की तैयारी करुँगा (सिविल सर्विस), अपने खर्च के लिए दो-चार ट्यूशन पढा लूँगा।

वापस आने के बाद भागा-दौड़ी कर के ट्यूशन पकड़ ही लिया, दोपहर से शाम तक पढ़ाता उसके बाद देर रात तक अपनी पढ़ाई करता।

जब कोई देर रात तक जागेगा तो स्वाभाविक है की सुबह भी देर से ही जागेगा।

यही देर से जागना पिताजी को अखर जाता था और ग़ुस्से में बातें सुना देते।

विजय सही से बैठ भी नहीं पाया था की पिताजी ने सुनाना शुरु कर दिया:

“अरे कब तक फ़क़ीरों जैसा बैठ रहेगा?”

“कम से कम इन पौधों से तो कुछ सीख लेता”

“दो महीने में ही टमाटर में फुल आ गए”

“सप्ताह भर में फल भी बन जाएँगें”

“तू कब तक खाध-पानी लेता रहेगा?”

“तुझसे कब कुछ होगा?”

“अपने बड़े भाई से कुछ सीख, पढ़ाई पुरी करने के कुछ महीनों बाद ही उसकी नौकरी लग गई”

“देख उसे, अब मैनेजर भी बन गया है”

“पता नहीं शर्म-लिहाज़ बचा भी है की नहीं, बस रिटायर बाप के पेंशन से खाता रह”

विजय के लिए यह सब नया तो था नहीं, लेकिन रात भर ठिठुर कर पढ़ाई करने के बाद निंद नहीं आई शायद इसलिए चिड़चिड़ापन होने लगा और ग़ुस्से में बड़बड़ाता हुआ घर से बाहर जाने लगा:

“बना लिजीए टमाटर के पौधे को अपना बेटा”, “पुरी ज़िंदगी उसके फुल देखते रहिए और फल खाते रहिए”


“मैं मर भी जाऊँ तो भी आपको फ़र्क़ नहीं पड़ेगा”

“और हाँ दो साल हो गए हैं, आपसे पैसे माँगना बंद कर दिया है मैंने”

“अपने खर्च लायक़ कमा लेता हूँ”

“रही बात भैया की तो उनको आपने बड़े कॉलेज से एमबीए कराया था”

“मेरी बारी आई तो आपने कहा यही से ग्रेजुएशन कर लो”

“हमारे पास रहो, हम अब बुजुर्ग हो रहे हैं, साथ रहोगे तो आसरा रहेगा”

“आपलोग का ख़्याल नहीं रहता तो बम्बई या दिल्ली में खुद को सँभाल ही लेता”

“कुछ न कुछ तो मैं भी बन ही जाता”

विजय की बातों ने शायद पिताजी को झकझोर दिया था, वो भी उसी कुर्सी पर बैठ कर चुपचाप टमाटर के फुल को देखने लगे।

बाप-बेटे के बीच माँ कभी नहीं आती थी लेकिन किस माँ को बुरा नहीं लगता जवान बेटे को रोज़ बेइज्जत होता देख।

आज तो माँ के भी आँसू लुढ़क गए।

बेटे को उस तरह जाता देख रोक भी नहीं पाई, रोकती भी कैसे? रोकने जाती और विजय के आँखों से बहते आँसुओं को देखती तो कैसे समझाती? जवान बेटा रोता अच्छा नहीं लगता। किचन से ही आवाज़ लगाते हुए कमरे के अंदर चली गई:

“सुनिए जी, नास्ता ढक कर रख दिया है”

“चाय भी कप में रखी हुई है”

“आप नास्ता कर लेना, मेरा सर दर्द हो रहा है, मैं दवाई खा कर लेटने जा रही हूँ”

“मुझे उठाना मत, लंच टाइम से पहले उठ जाऊँगी और खाना समय पर बना दुँगी”

एक तो बेटा आँख पोंछते हुए बाहर चला गया दुसरा पत्नी भी बहुत दिनों बाद नाराज़ हो कर कमरे के अंदर बंद हो गई।

अफ़सोस होने लगा लगा था, लेकिन किया भी क्या जा सकता था? ज़बान से निकले शब्द आज तक कोई वापस ले पाया है?

अचानक सीढ़ियों पर किसी के चलने की आवाज़ आने लगी, ऐसा लगा मानो बेटा वापस आ रहा हो:

नमस्ते अंकल!

नमस्ते बेटा!

अंकल विजय है?

नहीं बेटा, अभी थोड़ी देर पहले ही नाराज़ हो कर गया है.

क्या हुआ अंकल?

विजय के पिताजी ने सारी बात बता दी और टमाटर के फुलों की तरफ़ देखते हुए बोले:

“जवान बेटा मरने की बात करता है”

“कौन से बाप को सुन कर अच्छा लगेगा?”

अच्छा तो किसी को नहीं लगेगा अंकल, लेकिन एक बात कहुँ? बुरा मत मानिएगा

“समय आ गया है, हर माता-पिता को समझना होगा”

“नौकरी मिलना अब पहले जैसा नहीं रहा”

“एक नौकरी के लिए पचास लोग लाईन में लगे होते हैं”

“एक तो हमलोग पहले से ही टूटे हुए होते हैं उपर से घरवालों का ताना, मन टूट जाता है सब चीज़ों से”

“हमें आपलोग से ज़्यादा नहीं चाहिए, हमलोग पुरी कोशिश और मेहनत करते हैं”

“हम बस इतना चाहते हैं की हमारे घरवाले सिर्फ़ इतना कहें की – तुम कर सकते हो – तुम कर लोगे”

“हमारी असफलता हमें भी अच्छी नहीं लगती, लेकिन असफल होने के बाद भी हम कोशिश करते हैं”

“हमारे प्रयासों को सम्मान चाहिए बस”


“थोड़ी देर ही सही लेकिन सफल तो हम भी होंगे एक दिन”

बेटा मैं पुराने ख़्याल का आदमी ठहरा, लेकिन तुम्हारी बातें मैं समझ गया।

अब विजय को वापस घर ले कर आओ तब तक मैं तुम्हारी आँटी को मनाने की कोशिश करता हूँ।

आप घबराइए नहीं अंकल विजय आपलोग की परवाह अपनी जान से भी ज़्यादा करता है। आप देखना अभी वापस आ जाएगा। आँटी को बोलिए मैं हलवा खाए बीना जाऊँगा नहीं।

लगता है आज आप पेपर पढे नहीं?

नहीं बेटा, क्या हुआ?

पेपर लाइए….

ये देखिए, हमारा रिज़ल्ट निकलने की खबर है।

इंटरनेट पर देख लिया मैंने – मैं और विजय दोनों ही पास हो गए हैं।

विजय की माँ हड़बड़ा कर बाहर निकली और विजय के दोस्त के माथे को चुम लिया:

बेटा तुम भगवान का दुत बन कर आए हो।

ये ख़ुशख़बरी विजय को भी बता दो।

हाँ आँटी फ़ोन करता हूँ।

विजय भी सीढ़ियों पर चप्पल की आवाज़ करता हुआ उपर आ गया:

माँ-पिताजी के पैर छु कर मिठाई का पैकेट माँ को पकड़ाते हुए लिपट गया।

अबे साले कहाँ भाग गया था सुबह सुबह?

तेरे घर गया था दोस्त…

तुम्हारी कंप्यूटर पर अपना और तेरा रिज़ल्ट देखा।

आँटी ने हलवा भी खिलाया और बताया की तू मेरे घर के लिए निकला है।

हलवा के दुश्मन, कितना हलवा खाएगा? ले मिठाई खा अब।

पिताजी चोरी-छिपे टमाटर के फुल को देख कर मुस्कुराने लगे… मानो फुलों से कह रहे हों की देख मेरे बेटे के मेहनत के फल लगे हैं।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

 

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