अपने हाथ में ‘वरिष्ठ नागरिक ‘का प्रमाण-पत्र देखकर कामिनी खुशी-से झूमने लगी।आज वो सचमुच की बड़ी हो गई थी।अब वो भी बड़ी कहलाएगी..उसे भी सम्मान मिलेगा जिसके लिये वो बरसों से…हाँ,बरसों से ही तो तरस रही थी…।
तीन भाई-बहनों में वो सबसे छोटी थी।उससे बड़े राजेश भईया थे और सबसे बड़ी थीं रागिनी दी।घर में नये कपड़े आते तो सबसे पहले दीदी से पसंद करवाये जाते क्योंकि वो घर की बड़ी थीं।माँ का कहना था कि रागिनी की पसंद को प्राथमिकता देनी चाहिए।खाने-पीने की चीज़ें आती थी तो पहले भाई से पूछा जाता क्योंकि वो खानदान के कुलदीपक थे।उसे तो अपने भाई-बहनों की पसंद से ही काम चलाना पड़ता था।जब भी वो अपना होमवर्क करने बैठती अथवा खेल रही होती तो दादी उसे उठाकर कोई काम थमा देती।खीझकर वो कहती,” दीदी बड़ी हैं तो उनसे कहिए ना..।”तब दादी उसके सिर पर हाथ फेर कर प्यार-से कहतीं,” वो बड़ी है, इसीलिए तो उसे नहीं कहती।तू छोटी है ना..हम सब की लाडली..।” तब वो कुढ़ जाती,” कहाँ की लाडली..सारा प्यार तो उन्हें मिलता है..मुझसे तो बस काम..।” गुस्सा तो उसे तब और भी ज़्यादा आता जब दीदी-भईया के नाम को आदर के साथ बिटिया-बाबू लगाकर पुकारा जाता और उसका नाम होते हुए भी घर वाले उसे ‘छोटकी’ कहकर बुलाते।स्कूल में दीदी-भईया के मुँह से उसके लिए छोटकी शब्द सुनकर उसकी सहेलियाँ उसका खूब मज़ाक बनाती थी।
सयानी हुई तब उसने पिता से शिकायत की,” पापा..अब तो मैं दीदी जैसी बड़ी हो गई हूँ, आप मुझे मेरे नाम से बुलाइये..दीदी-भईया की तरह मुझे भी..।” सुनकर पिता मुस्कुराते हुए बोले,” तेरी शादी घर के बड़े लड़के से कर दूँगा..अपने आप तू बड़ी कहलाने लगेगी।” तभी से वो बड़ी बहू कहलाने के सपने देखने लगी।
किस्मत से वो अपने ससुराल में बड़ी बहू ही बनकर ही गई लेकिन पति दूसरे शहर नौकरी करते थे तो ससुराल में वो रह नहीं पाई।उसका देवर अपने पिता के साथ दुकान का काम संभालने लगा और घर की ज़िम्मेदारी भी।इस नाते उसे ही घर का बड़ा समझा जाने लगा और उसकी पत्नी को गृहस्वामिनी का दर्ज़ा मिल गया।
जब कभी कामिनी ससुराल जाती तो मेहमान की तरह उसे यह कहकर बिठा दिया जाता कि तुम तो यहाँ रहती नहीं हो ना..।पारिवारिक मामलों में देवरानी से ही सलाह लिया जाता और ननदें भी उसी से अपना राज़ेदिल शेयर करतीं जो उसे अच्छा नहीं लगता लेकिन वो कुछ कह नहीं पाती।धीरे-धीरे उसने अपने स्वरूप को स्वीकार कर लिया और अपनी गृहस्थी को सँवारने में व्यस्त हो गई।
पति को दफ़्तर भेजने और बच्चों को स्कूल भेजने-लाने में वो एक पत्नी-माँ की भूमिका निभाने में इतनी व्यस्त हो गई कि बालों पर सफ़ेदी आने का उसे पता ही नहीं चला।पति का हुक्म तो चुपचाप मानती आ ही रही थी, अब बेटा- बेटी की फ़रमाईश भी वो मौन रहकर पूरी करने लगी थी।बेटी की शादी कर दी..बेटा नौकरी करने लगा।कुछ समय बाद उसके पति को दफ़्तर से सेवानिवृत्त करके वरिष्ठ नागरिक का दर्जा मिल गया लेकिन वो आज भी पति को ‘ जी, अभी लाई ‘ कहकर उतने ही उत्साह से दौड़ जाती जैसे वो पच्चीस की उम्र में…।
अपनी हम उम्र महिलाओं से उसे जानकारी मिली कि साठ की उम्र होने पर सरकार की ओर से सीनियर सिटीजन का कार्ड मिलता है जो समाज में सम्मान के साथ-साथ सार्वजनिक सेवाओं में छूट भी दिलाता है।बस फिर क्या था, उसने तुरंत पति के कान में अपनी इच्छा डाल दी जिसे उन्होंने यह कहकर नकार दिया कि तुम लेकर क्या करोगी।” कितने दुख की बात थी कि उसका पति ही उसकी इच्छा को समझ नहीं सका था।फिर भी वो निराश नहीं हुई और अपने बेटे के समक्ष अपनी इच्छा
रख दी।उस वक्त बेटे का मूड अच्छा था…उसने तुरंत ऑनलाइन फ़ाॅर्म भर दिया और तकरीबन चौदह-पंद्रह दिनों के भीतर ही बेटे ने उसके हाथ में ‘ सीनियर सिटीजन कार्ड ‘रख दिया।उसी कार्ड को वो एकटक निहारे जा रही थी।उसे लगा कि जैसे कोई उसे बैठने के लिए कुरसी दे रहा है..बैंक में उसके काम को प्राथमिकता मिल रही है…मेट्रो में कोई स्वयं खड़े होकर उसे बैठने के लिए कह रहा है,’ आप बड़ी हैं ‘ कि अचानक पति की आवाज़ सुनाई,” अरे भाई…चाय-वाय हमें नहीं मिलेगी क्या? ” वो हकीकत में लौटी और हाथ में लिए कार्ड को मेज़ पर रखकर पति के सामने तनकर खड़ी हो गई,” सुनिये जी..अब मैं ‘सीनियर सिटीजन’ हो गई हूँ।जितना आराम आपको चाहिये उतना मुझे भी..।जो सुविधायें आपको मिल रही हैं, अब मैं भी उसकी हकदार हूँ।इसलिए सुबह की चाय हमने बनाई थी, अब शाम की आप बनाइये एवं एक कप मेरे हाथ में भी थमाईये..।मुझे भी…।” वो बोलती जा रही थी और पति महाशय चकित हो रहे थे लेकिन प्रसन्न थे कि उनकी अर्द्धांगिनी ने बोलना सीख लिया है।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु